डॉ राणा प्रताप सिंह

पिछली शताब्दी में विज्ञान ने विकास के एक महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में समाज के बड़े हिस्से में अपना महत्त्व स्थापित किया है, जिससे शिक्षित समुदाय की विज्ञान में रुचि बढ़ रही है। विज्ञान, तकनीकी और इंजीनियरिंग के क्षेत्रों में शिक्षित होने या पेशेवर कुशलता प्राप्त करने को नौकरियों के लिए आमतौर पर अधिक विश्वसनीय माना जाता है। तकनीकी क्षेत्रों के शिक्षण और प्रशिक्षण को व्यापार प्रबंधन की शिक्षा के समकक्ष या पूरक के रूप में भी न मात्र सेवा के क्षेत्र में अपितु व्यापार के क्षेत्र में भी उपयोगी माना जाता है । 

विज्ञान की  उपयोगिता को यदि हम दार्शनिक और व्यावहारिक दोनों स्तरों पर समझने का प्रयास करें तो हम पाएंगे कि विज्ञान की शक्ति को कई सतहों पर उपयोग में लाया जा सकता है। उदाहरण के लिए एक दर्शन के रूप में विज्ञान इस मामले में अनूठा है कि वह किसी सत्य को, किसी ज्ञान को, किसी विचार को उसका अंतिम चरण नहीं मानता। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। विज्ञान के दर्शन की यह प्रौढ़ता नए सत्यों के अन्वेषण के लिए वैज्ञानिकों को निरन्तर प्रेरित करती रहती है। विज्ञान में यह माना जाता है कि सत्य की खोज निरन्तर चलने वाली एक जटिल और क्रमबद्ध प्रक्रिया है। अनन्त काल से मनुष्य, पशु, अन्य जीव-जंतु, वनस्पतियां एवं सूक्ष्म जीव सभी अपने अनुभव और अन्वेषण की चेष्टाओं से ज्ञान धारण करते रहे हैं। और ज्ञान के खोज की ये प्रक्रियाएं अनन्त काल तक ऐसे ही चलती रहेंगी। आज जो ज्ञात नहीं है, वह है ही नहीं, विज्ञान के दर्शन में ऐसी कोई स्थिति स्वीकार्य नहीं है।

विज्ञान क्षेत्र के विमर्श से जुड़ा कोई कुशल और समझदार वैज्ञानिक ऐसा कभी नहीं कहेगा। वैज्ञानिक दर्शन को थोड़ा समझने वाला भी जानता है कि जो आज ज्ञात नहीं है वह कल ज्ञात हो सकता है। सूक्ष्मदर्शी के निर्माण के पहले किसी को ज्ञात नहीं था कि पृथ्वी पर मिट्टी में, पानी में, पौधों की जड़ों में, पत्थरों पर, हवा में और प्रकृति के किसी भी जीवित-अजीवित अवयव की सतह पर एवं अंगों में आंख से दिखने वाले जीवों से कई गुणा अधिक सूक्ष्मजीवों की संख्या एवं प्रकार हैं। दूरबीनों के निर्माण के पहले अंतरिक्ष, आकाश गंगाओं और ग्रह-नक्षत्रों के स्वरूप और गति की सांख्यिकी ज्योतिष शास्त्र में ही परिकल्पित थी, आधुनिक विज्ञान में नहीं। इसे इसके बाद ही एस्ट्रोनॉमी के रूप में विकसित किया गया। वैज्ञानिक जगत को भी इन्हें मापने के लिए बने उपकरणों के पहले रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी और लेजर तकनीकों, एक्सरे तथा गामा किरणों आदि के साथ-साथ ऊर्जा के अनेक स्वरूपों की शक्ति एवम्‌ इनके अंतर्सबंधों का ज्ञान नहीं था। ऐसे उदाहरणों के अनेक दृष्टान्त विज्ञान के इतिहास में किसी टूटी हुई माला के मोतियों की तरह बिखरे पड़े हैं।

अब विज्ञान के क्षेत्र में सहज रूप से माना जाता है कि जो आज ज्ञात नहीं है, वह कल नए उपकरणों और नई तकनीकों के निर्माण के पश्चात्‌ ज्ञात हो सकता है। इसलिए आज की कोई भी परिकल्पना कल सत्य या गलत साबित हो सकती है। विज्ञान के दर्शन की यह गतिशीलता विज्ञान के विकास की महत्त्वपूर्ण आधार शिला है। ऐसे नवाचारी एवं बंधनमुक्त दर्शन के साथ-साथ विज्ञान की कार्यशैली भी बहुत प्रगतिशील है। विज्ञान के क्षेत्र में वस्तुओं, जीवों, पदार्थों, तत्त्तों और इन सबके अंतःसंबंधों को समझने के लिए पहले एक छोटे से क्षेत्र को चुना जाता है। जो ज्ञात है, उसका विश्लेषण किया जाता। जो अज्ञात है, उसे अन्वेषित करने के लिए ‘परिकल्पनाओं को गढ़ा जाता है। परिकल्पनाओं की प्रामाणिक जांच के लिए प्रयोगों, अवलोकनों तथा सांख्यिकी आधारित विश्लेषणों की शृंखला से नए और महत्त्वपूर्ण अवलोकनों को बार-बार कई तरह से परखा जाता है, और इसकी सभी संभावित व्याख्याओं के साथ अंत में कोई निष्कर्ष निकाला जाता है।

विज्ञान में नए ज्ञान की  खोज की विधियों को एक पुरानी कहानी के दृष्टान्त से जोड़कर देखना उचित होगा। कहानी है, चार अंधों और ‘एक हाथी की कहानी। एक बार चार नेत्र-ज्योति विहीन लोगों के सामने एक हाथी आ गया। चूंकि वे देख नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने उस अनजान वस्तु को छूकर पहचानना चाहा। एक ने उसका पेट छुआ, दूसरे ने सूंढ़। तीसरे के हाथ उसकी पूंछ आई और चौथे के हाथ कान। अब प्रश्न है कि एक ही वस्तु चार लोगों को चार तरह की कैसे लग सकती है। कोई सहमति नहीं बनी तो उन्होंने उसी वस्तु को दोबारा परखा। दूसरी बार दिशाएं अलग थीं। कान वाले को पूँछ मिली और पेट वाले को सूंढ़। उन्हें लगा कुछ रहस्य है। उन्होंने हाथी को बार-बार छुआ और उनको लगा कि यह कोई ऐसा जीव है जिसमें वे सभी अंग हैं, जो उनके स्पर्श में आए हैं। पर ठीक-ठीक से वे हाथी कौ परिकल्पना तब भी नहीं कर पाए क्योंकि उन्होंने हाथी कभी देखा ही नहीं था। विज्ञान में नवीन ज्ञान ‘को शोध की ऐसी ही प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। अधिक प्रतिष्ठित शोध जर्नल किसी नवीन शोध को तभी स्वीकृत और प्रकाशित करते हैं, जब उसे कई स्तरों पर और कई आयामों से अवलोकनों, प्रयोगों तथा प्रामाणिक विश्लेषणों के साथ व्याख्यायित किया गया होता है।

विज्ञान के ज्ञान-अर्जन और ज्ञान के विकास के लिए निश्चित क्रम में अन्वेषण तथा अध्ययकिया जाता है। सर्वप्रथम एक समस्या की पहचान ‘की जाती है और उससे जुड़े प्रश्न निर्मित किए. जाते हैं। फिर इस बात के लिए तथ्य जुटाए जाते हैं कि इससे जुड़ा किस तरह का और कितना प्रामाणिक ज्ञान पहले से उपलब्ध है। किस तरह के बिंदुओं पर ज्ञान का अभाव है ? इसकी पहचान के बाद कुछ सम्भावित उत्तरों की परिकल्पना की जाती है। और तब अपने प्रश्न का जवाब ढूंढ़ने के लिए अवलोकलनों, प्रयोगों तथा विश्लेषणों की अनेक शृंखलाओं को आजमाया जाता है। संभावित नवीन ज्ञान को अपने उत्तरों में समावेशित करने के लिए फिर से उससे सम्बंधित उपलब्ध ज्ञान शृंखलाओं का अपने शोध के नतीजों के परिप्रेक्ष्य में उनकी उचित व्याख्या के लिए उपयोग में लिया जाता है। विज्ञान में शोध पत्रों के द्वारा ही नया ज्ञान वैश्विक स्तर पर सामने आता है। इसलिए शोध-पत्रों के प्रकाशन के लिए भी नवीन शोध के ज्ञान को कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ता है।

 

शोध-पत्रों को शोध पत्रिकाएं पहले अपने स्तर पर जांचती हैं, फिर कई स्वतन्त्र विशेषज्ञों से इनकी प्रामाणिकता एवं पठनीयता की जांच करवाई जाती है। तत्पश्चात पत्रिकाओं का अधिकृत सम्पादक इसकी स्वयं जांच करता है। प्रकाशित होने के बाद भी शोध-पत्र हर समय किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी तरह की जांच का सामना करने के लिए तैयार रहते हैं। और उसके किसी भी हिस्से में गलती या नकल मिलने पर शोधकर्ता टीम के वैज्ञानिकों को उसे वापस लेना पड़ता है। इससे पूरे विज्ञान जगत में उनकी बदनामी भी होती है और उनकी विश्वसनीयता पर अनेक प्रश्नचिहन लग जाते हैं। इतनी कठिन परीक्षा से निकलने के बाद भी विज्ञान में किसी ज्ञान को अंतिम सत्य नहीं माना जाता। इससे यह भी पता चलता है कि हम विज्ञान से मात्र मशीनों , कारखानों और तकनीकी विपणन के लायक वस्तुओं का निर्माण ही नहीं कर सकते, बल्कि समाज की, देश की, विश्व की, खाद्य सुरक्षा की, पर्यावरण संरक्षण की, युद्ध तथा अहंकार की, वर्चस्ववादी मानसिकता की तथा अनैतिक कार्यों की समस्याओं का हल भी निकाल सकते हैं।

वैश्विक स्तर पर कहीं बाढ़ को, कहीं सूखे की, कहीं अतिवृष्टि की, कहीं तूफान की, कहीं ‘कोविड जैसी भयानक जैविक आपदाओं की, कहीं जैविक और रसायनिक तथा परमाणु हथियारों जैसे विध्वंसक आत्मघाती प्रयासों की होड़ मची हुई है। इन्हें अधिक विध्वंसक बनाने के लिए विज्ञान, तकनीकी, इंजीनियरिंग तथा नवाचारी परिकल्पनाओं का उपयोग किया जाता है, तो इन्हें रोकने और इनसे मुक्ति पाने के लिए भी विज्ञान का उपयोग हो सकता है। विज्ञान कौ शक्ति का एक आयाम उसकी निश्चित व्यवस्था और उस व्यवस्था में किसी भी योजना के संचालन के साथ-साथ और उसके बाद भी उसके ज्ञात एवं अल्पज्ञात, यहां तक कि अज्ञात प्रभावों का निरंतर बहुस्तरीय आकलन करना भी है। इन्हीं आकलनों के आधार पर उनमें निरंतर बदलाव तथा सुधार की कोशिश की जाती है। विज्ञान की यह शक्ति हमें किसी भी सामाजिक, आर्थिक, व्यापारिक, नैतिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में किये जा रहे प्रयासों के प्रभावों को बढ़ाने में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो सकती है।

विज्ञान जैसी सशक्त ज्ञान प्रणाली का वृहद समाज को लाभ तभी मिल सकता है जब विज्ञान के ज्ञान, इसके दर्शन, इसकी विधियों , तकनीकों और नवाचारी प्रवृत्तियों को शान्ति, धारणीय प्रकृति-संगत विकास और जन सामान्य के हित साधक के रूप में स्थापित किया जा सके। इसमें विज्ञान की शोध परम्पराओं के साथ-साथ इसकी तकनीकी सुविधाओं को अलग-अलग आर्थिक सामाजिक, सांस्कृतिक और सामुदायिक समूहों को आवश्यकताओं और सीमाओं से जोड़ा जा सके। अभी बहुत से ज्ञान, बहुत-सी तकनीकें और बहुत-सी सुविधाएं आम लोगों और निर्धन एवं वंचित समुदायों की पहुंच से बाहर हैं। इसके लिए हमें शिक्षा और विज्ञान की संचार क्षमता के विकास एवम्‌ अनुकूलन के लिए बहुत गंभीरता तथा ईमानदारी से बहुआयामी स्तर पर काम करना होगा।

मेरा मानना है कि विज्ञान-संचार का क्षेत्र भारतीय परिप्रेक्ष्य और विशेष रूप से हिन्दी जैसी व्यापक भाषा में अभी बहुत ही अविकसित अवस्था में है। प्रभावी विज्ञान संचार के लिए कम से कम पांच स्तरों पर काम करना होगा :
1.- कथ्य या विषय-वस्तु पर;
2- संचार की शास्त्रीयता पर;
3. संचार के तरीकों पर;
4. भाषा, शिल्प और माध्यम के निर्माण पर; और
5. प्रभाव-निर्धारण एवं निरन्तर सुधार के प्रयासों पर।ज्ञान का उपयोग सर्वदा सक्षम और ज्ञान धारण करने वाले लोगों ने अपने हित-साधन में किया है। वैसे सामान्यतः आज का युग ज्ञान का युग माना जाता है। मेरी समझ में हर युग, ज्ञान का युग ही रहा है। कालान्तर से जिसके हाथ में ज्ञान की डोर रही, उसी ने समाज के लिए नियम बनाए और उन्हें लागू करने के लिए माध्यमों का निर्धारण किया। कथ्य ज्ञान का वह हिस्सा है, जिसे कहा जाना है या लिखा जाना है। कथ्य का चुनाव संचार के उद्देश्य तथा पाठक या श्रोता की आवश्यकता के हिसाब से हो सकता है। अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने के लिए संचारक को कथ्य चुनने की स्वतंत्रता होती है तथा विज्ञान संचारक विज्ञान के किसी विषय के वृहद ज्ञान में से अपने आवश्यकता के लायक हिस्सा चुन लेता है। आवश्यक नहीं कि किसी विषय से जुड़े ज्ञान के लिए कथ्य हमेशा गैर राजनीतिक , पंथनिरपेक्ष, समाज निरपेक्ष, संस्कृति निरपेक्ष, समूह निरपेक्ष, प्रतिष्ठान निरपेक्ष या उद्देश्य निरपेक्ष हो। चूंकि संचार माध्यम, व्यापारिक प्रतिष्ठान या संचार से जुड़ी संस्था किसी भी राजनीतिक,वैचारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या व्यापारिक समूह के साथ जुड़े हो सकते हैं, इसलिए उसका अपने हिसाब से कथ्य चुनना स्वाभाविक है।

विज्ञान-संचार में इतनी शुद्धि अवश्य होनी चाहिए कि कथ्य प्रामाणिक ज्ञान स्रोतों से लिया गया हो और संभव हो तो उन स्रोतों का उल्लेख भी किया गया हो। विज्ञान के शोध क्षेत्र में भ्रमयुक्त या. अप्रामाणिक तथ्यों के प्रकाशन की सख्त मनाही है क्योंकि उससे आगे का शोध प्रभावित होता है। आम लोगों में विज्ञान-संचार के लिए कथ्य को रोचक और सर्वग्राही बनाया जाना भी आवश्यक होता है। विषय ऐसा हो जो लोगों की दुनिया से जुड़ा हो और उनके मन से जुड़ता हो। किसी भी बात को लोगों की रुचि, उनकी चेतना और उनके सपनों से जोड़ने कौ कला और उसके प्रयासों, सफलताओं, असफलताओं को संचार क्षेत्र के शास्त्रीय ज्ञान में समेटा गया है। इसलिए विज्ञान संचारक को भी संचार पद्धति का उचित अध्ययन तथा ज्ञान होना चाहिए। फिर भी यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि मीडिया की तरह बात को आकर्षक और चटकीला बनाने के लिए विषय को इतना तोड़-मरोड़ न दिया जाए कि वह अपना अर्थ खो बैठे। सहज भाषा में सहज रूप से किया जाने वाला संचार कई बार अधिक प्रभावी होता है।

मेरा मानना है कि लोक कलाओं के तरीके, जो अनेक संस्कृतियों के विकास के साथ विकसित हुए हैं और कला के शास्त्रीय माध्यम, जो लम्बे अनुभव, शोध एवं विमर्श से विकसित हुए हैं, विज्ञान संचार के लिए अधिक प्रभावी साबित होंगें। लोक संस्कृतियों से लोगों का मन मस्तिष्क जुड़ा होता है तथा साहित्य एवं कलाएं दिखने वाले और सामान्य रूप से न दिखने वाले तथ्यों को भी अपने साधनों के माध्यम से अधिक संवेदनशील ‘एवं प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती हैं।  संचारकों को कथ्य वैज्ञानिकों से और संचार की कला साहित्य तथा कला के मनीषियों से सीखने चाहिए और इन सबकी भागीदारी से हिन्दी क्षेत्र में विज्ञान-संचार समाज-निर्माण में एक नई प्रभावकारी भूमिका निभा सकता है।

इस कड़ी में अंतिम बात मैं यह कहना चाहूंगा कि अन्य क्षेत्रों की तरह ही विज्ञान संचार के क्षेत्र में भी विज्ञान की अन्वेषण परम्परा के आखिरी चरण अर्थात्‌ नियमित प्रभाव आकलन, विश्लेषण एवं नीतियों,कार्यक्रमों तथा रणनीतियों में वांछित परिवर्तन को अपने विमर्श में पूरे कद और सभी आयामों के साथ शामिल करना चाहिए। भारतीय परिदृश्य में विज्ञान-संचार में अभी बहुत कुछ किया जाना है। इस क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं। युवाओं के कैरियर के लिए यह बहुत आकर्षक , रोचक और विकासशील क्षेत्र है, जिसकी भविष्य में देश के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास के लिए जितनी आवश्यकता है, उतनी ही इसके वाणिज्यिक विस्तार की संभावना भी है।

डॉ राणा प्रताप सिंह

(लेखक बाबा साहेब भीमरा अम्बेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ, उत्तरप्रदेश में प्रोफेसर हैं।) 

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