वेदप्रिय

यह आजादी का 75 वां वर्ष है। यह 21 वीं सदी का, विज्ञान – तकनीक का अहम दौर है, जब देश-दुनिया में विज्ञान ने विभिन्न क्षेत्रों में, तेजी से, महत्वपूर्ण छलांग लगाई है। भारत के लिए चंद्रमिशन, मंगल मिशन के बाद यह सूर्य मिशन का दौर है। वैसे भारत शीघ्र ही इसी वर्ष पुनः चंद्र यान भेजने की तैयारी में है। देश में विज्ञान तकनीक के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति के बावजूद विज्ञान एवं आमजन के बीच अब भी गहरी खाई कायम है। हालांकि संविधान ने वैज्ञानिक मानसिकता के विकास को नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों में शामिल किया है पर इस मामले में अब भी अपेक्षित प्रगति नजर नहीं आती। कोरोना संक्रमण ने एक हद तक आम आदमी से विज्ञान के सरोकार को गहरे रेखांकित किया है। पर कुल मिलाकर अब भी विज्ञान एवं आम आदमी के बीच का फासला चिंता पैदा करने वाला है।

ज्ञान व व्यवहार का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जहां वैज्ञानिकता की बात न होती हो ।फिर भी यह कहा जाए कि विज्ञान आमजन से दूर है तो यह एक विरोधाभासी कथन नजर आएगा। ज्ञान के दूसरे अनुशासनों के मुकाबले पिछले 400 वर्षों में विज्ञान ने काफी तेजी से खुद को विकसित किया है । थॉमस पेन ने काफी पहले ही द एज ऑफ रीजन लिख दिया था। लेकिन क्या वास्तव में रीजन हमारे व्यवहारिक जीवन में पूरी तरह शामिल है जबकि रीजन विज्ञान का एक मूल आधार है। लोगों का जीवन पहले भी चलता था जब विज्ञान ने इतनी तरक्की नहीं की थी ।ऐसा भी नहीं है कि पहले कुछ समृद्ध काल न रहे हो। विज्ञान निश्चित ही मानव जीवन की बेहतरी के लिए है लेकिन अभी जनता से दूर है ।।यहां कुछ ऐसी बातों का जिक्र किया जा रहा है जो विज्ञान और आमजन के बीच अलगाव का कारण बनती हैं ।

1. विज्ञान में विशेषज्ञता
विज्ञान का नाम लेते ही हमारे मस्तिष्क में भौतिकी ,रसायनिकी, जीव विज्ञान जैसे नाम आते हैं। यदि इन शब्दों की उत्पत्ति देखी जाए तो ये शब्द 300 वर्ष पूर्व शब्दकोश का हिस्सा भी नहीं होते थे ।आज तो रसायननिकी की ही शाखाएं 50 से ज्यादा है ।आप चिकित्सा विज्ञान में कितनी ही शाखाएं देख सकते हैं। सभी विज्ञान है ।यदि कोई चिकित्सा विज्ञान क्षेत्र का विशेषज्ञ यह कह दे कि उसे भौतिकी के अमुक सिद्धांत की जानकारी नहीं है तो कोई बात नहीं ।लेकिन यहां तो एक क्षेत्र विशेष का चिकित्सक भी किसी दूसरे चिकित्सा क्षेत्र की बाबत थोड़ा सा भी बताने से ही हिचकता है ।यह जरूरी है कि सावधानी रखी जाए परंतु यह भी क्या हुआ कि एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ज्ञान के दूसरे कमरे में झांक कर भी नहीं देखना चाहता। इस विशेषज्ञता के चक्कर में वरिष्ठ वैज्ञानिकों की ज्ञान की चारदीवारियाँ तय कर दी हैं ।ये वैज्ञानिक भी अपने-अपने क्षेत्रों में काम करते हुए इतने गहरे चले गए हैं कि विज्ञान की inter disciplinary बाधाओं को पार नहीं कर पाते ज्ञान के दूसरे अनुशासन की तो बात ही क्या कहें ।चिकित्सा विज्ञान का क्षेत्र सीधे-सीधे हमें प्रभावित करते दिखता है ।यह आम आदमी की मजबूरी है कि वह इस विज्ञान को अपने सबसे नजदीक समझ लेता है जबकि मोबाइल हम सबके हाथ में है फिर भी हम इसकी बैटरी, चिप, स्क्रीन आदि के विज्ञान को गंभीरता से नहीं लेते जितना चिकित्सा विज्ञान को ले रहे हैं ।कई मामलों में तो विज्ञान की यह विशेषज्ञता आम आदमी से इतनी दूर निकल गई है कि वह चाह कर भी इनसे अपना नाता नहीं जोड़ सकता। ब्लैक होल, बिग बैंग आदि का विज्ञान इसी श्रेणी में आता है ।विज्ञान के कुछ क्षेत्र ऐसे भी विकसित हो गए हैं जो जनमानस की शब्दावली से ही बाहर है जैसे भूगर्भ विज्ञान एंथ्रोपोलॉजी आदि। ये आम आदमी के लिए क्यों जानने योग्य हैं कैसे समझा जाए ।

2. विज्ञान संप्रेषण
हम विज्ञान के काम को तीन चरणों का काम मान लेते हैं। विज्ञान या वैज्ञानिक ,विज्ञान संप्रेषण व तीसरा जनमानस। इनमें विज्ञान संप्रेषण का कार्य बहुत ही दमदार ,अति महत्वपूर्ण और चुनौती भरा है ।यही वह कड़ी है जो विज्ञान या वैज्ञानिक के कार्य को जनमानस तक ले जाने का कार्य करती है ।यह एक बहुत विस्तृत आयाम लिए हुए हैं इस पर जिम्मेवारी भी बहुत है। विज्ञान या एक वैज्ञानिक की तमाम सीमाओं के बावजूद यह तय है कि उसके काम या भाव व विचार जनमानस तक पहुंचते-पहुंचते कम भी हो जाता है तथा dilute तो हो ही जाता है ।और जब तक विज्ञान का काम जनमानस तक न पहुंच जाए और वहां से फीडबैक लेकर वापस वैज्ञानिक तक ना जाए तब तक यह पूरा नहीं माना जाता ।इसलिए यह संप्रेषण का कार्य किसी भी रूप में एक वैज्ञानिक के कार्य से कम महत्वपूर्ण नहीं है। यह संप्रेषण का कार्य कई कारकों द्वारा संपन्न होता है और इन्हीं के अनुसार इसकी अनेक विधियां और रणनीतियां होती है। यहां केवल कुछ कारकों का संक्षेप में वर्णन किया हुआ है।

A .शिक्षा
शिक्षा ,विशेषकर विज्ञान की शिक्षा पर यह अधिकारिक जिम्मेदारी है ।वैसे तो विज्ञान की शिक्षा तभी पूरी मानी जायेगी जब यह विज्ञान से जुड़े सभी मानदंडों को पूरा करें। लेकिन हम सब जानते हैं कि विज्ञान की शिक्षा के नाम पर सूचनाओं की अदायगी की खानापूर्ति ही ज्यादा होती है और इन से जुड़ा विज्ञान का बहुत बड़ा भाग पीछे छूट जाता है ।इसमें थोड़ी थोड़ी भूमिका पाठ्यक्रम, पाठ्य पुस्तकें ,भाषा इसमें थोड़ी थोड़ी भूमिका पढ़ने पढ़ाने के तरीके,infrastructure आदि सभी की होती है। केवल दो उदाहरण देखते हैं ।हमने न्यूटन की गति के नियम व गुरुत्वाकर्षण को समझाना है। यह साधारण बात लग सकती है कि कोई भी विज्ञान अध्यापक इन्हें समझा देगा और बच्चे समझ जाएंगे ।लेकिन यह इतना आसान है नहीं।जब तक हम न्यूटन का प्रिन्सिपिया नहीं पढ़ते हम नहीं जान पाएंगे की न्यूटन के विज्ञान के इन नियमों के पीछे क्या विज्ञान छिपा पड़ा है। इस ब्रह्मांड का प्राकृतिक नियम सम्मत होना और सामाजिक व्यवहारों में इनकी भूमिका तो शायद ही कभी संप्रेषित हो पाती हो जबकि यह आशय उस विज्ञान के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इसी प्रकार हम डार्विन का उदाहरण ले सकते हैं ।प्रकृति सर्वोत्तम का चुनाव करती है। जैव वैज्ञानिक दृष्टि से तो समझा दिया जाएगा लेकिन सामाजिक जीवन में यह बात कैसे काम करती है बहुत कम संप्रेषित हो पाती है। इसके साथ ही डार्विनवाद किस प्रकार हेतुवाद को खारिज करता है इसका यह दार्शनिक पक्ष हमेशा छूटा रहता है। डार्विन ने जिस प्रकार अपना काम किया, बहुत समय तक प्रकाशित क्यों नहीं किया ,उसकी अपनी विचारधारा में किस प्रकार के अंतर आने शुरू हुए आदि सभी बातें पूरी गहराई से कभी संप्रेषित नहीं हो पाती। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था आधे अधूरे विज्ञान को ही संप्रेषित करती है ।जब विज्ञान का विद्यार्थी ही विज्ञान की भावना से अच्छी तरह परिचित नहीं होता तो जनमानस के बारे में तो क्या कहें ।

B. मीडिया ।
आपने किसी भी 14 -16 पेज के समाचार पत्र में अनेक स्थाई स्तंभ या पेज खेल ,आर्थिक जगत, राज्यों के समाचार आदि आदि के देखे होंगे। विज्ञान पर शायद ही कोई स्थाई स्तंभ देखा हो। अखबार जबकि जनता तक पहुंचने का बहुत सशक्त एवं सस्ता सुलभ माध्यम है। विज्ञान संप्रेषण इसकी प्राथमिकता में नहीं आता इसके कई कारण है। समाचार पत्रों के पास विज्ञान समझने वाला नियमित स्टाफ चाहिए। इनके लिए नियमित पैसा चाहिए ।।कभी-कभी कोई बड़ी वैज्ञानिक घटना गुजरती है तो बेशक थोड़ा बहुत जिक्र हो जाता हो।ऐसी घटनाओं में भी जो बात संप्रेषित होनी चाहिए वह पीछे छूट जाती है ।आपको याद हो जब higgs boson कणों पर नए-नए प्रयोग हुए तो यह अखबारों में आया था ।लेकिन बहुत ही बेशर्मी से इस खोज को गॉड पार्टिकल कहकर छापा गया। मूल बात तो यह थी कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति के समय किस प्रकार के सूक्ष्म कण पहले अस्तित्व में आए होंगे। कितनी हैरानी की बात है कि इस घटना को भी ईश्वरीय कणों का नाम देकर परोसा गया। यदि ध्यान से समझा जाए तो यह अखबार अविज्ञान को फैलाने वाले सबसे सशक्त कारक हैं ।कुछ अपवाद छोड़कर। राशिफल सर्वाधिक अवैज्ञानिक बात आपको नियमित मिल जाएगी। यही हाल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का है। छोटे बच्चों से लेकर बूढ़ों तक जो अखबार न भी पढ़ते हो टीवी चैनलों से चिपके रहते हैं ।यहां से कितना अविज्ञान मिलता है,किसी से छिपा नहीं। क्योंकि उन्हें पैसा ही यह सब करके मिलता है। कितने बड़े संसाधनों व तकनीक का दुरुपयोग है यह ।ऐसा नहीं है कि वैज्ञानिक भावना से कुछ बनाया नहीं जा सकता। यही बात गूगल में है। भारत और लंका के बीच पुल को जानने के लिए कुछ ढूंढना चाहा। रामसेतु के नाम से सैकड़ों साइट्स मिली। यहां तक कि पुल बनाते हुए बंदर भी दिखाए गए। कहां से ले आए उस समय की फोटो। लेकिन यह एडम्स ब्रिज प्राकृतिक निर्मित है, यह बात बहुत ढूंढे से जाकर मिली ।

C. पत्र -पत्रिकाएं ।
दुनिया में अनेक शोधपत्र पत्रिकाएं छपती है ।इनका वितरण उच्च स्तर के वैज्ञानिकों तक सीमित रहता है। इनकी भाषा एवं प्रस्तुति तकनीकी होती है ।यह आम आदमी की समझ से बाहर की बात है। नीचे तक ले जाने के लिए इनके रूपांतरण की जरूरत होती है ।यह बड़ा श्रम साध्य कार्य है जो हमेशा नहीं हो पाता ।कुछ पत्रिकाएं विज्ञान लोकप्रिय करण के नाम से छपती है ।ये कुछ हद तक संप्रेषण के काम को सरल बना देती है। लेकिन इनके पाठक व सरकुलेशन सीमित हैं। ये हमेशा आर्थिक दबाव में रहती हैं। मार्केट के मुकाबले में यह कई बार तो बीच में ही दम तोड़ जाती हैं। आर्थिक नुकसान उठाकर कौन इन्हें प्रायोजित करेगा? नियमित पत्रिका निकालने के लिए संस्थागत एवं प्रबंधात्मक काम भी बहुत चाहिए। सदस्यता शुल्क ,नियमित लेखक ,वितरण आदि का काम आसान नहीं है। इनमें रोचकता का भी अभाव है। और वैसे भी आमजन की पढ़ने में रुचि भी कम ही है ।

D. वैज्ञानिक संगठन एवं कार्यकर्ता ।
वैज्ञानिक संस्थाओं के बारे में एक महत्चपूर्ण यह कही गई है कि विज्ञान यदि फेल होता है तो इसलिए नहीं की विज्ञान देने वाले जीनियस वैज्ञानिक नहीं है ,अपितु इसलिए फेल होगा कि विज्ञान को आगे बढ़ाने वाली संस्थाएं कमजोर है ।विज्ञान एक विचार है ।आज विचार भी बाजार नियमों में आ गया है ।इन्हें स्थापित करने के लिए मंच और संस्थान चाहिए।हमारे देश में कई प्रकार के वैज्ञानिक संगठन है सरकारी ,अर्द्ध सरकारी स्वेच्छिक आदि आदि। इनके नेटवर्क भी हैं और इनके द्वारा संचालित वैज्ञानिक गतिविधियां भी। लेकिन इनके काम और काम करने के तौर -तरीकों में दिन रात का अंतर है ।सरकारी संगठनों के पास तमाम प्रकार की सुविधाएं हैं लेकिन समर्पित कार्यकर्ताओं का अभाव है ।वहां यह काम सरकार की नीति के एक भाग के तहत होता है। यहां कार्यालयी औपचारिकताएं एक कार्यकर्ता को जकड़े रखती है ।यहां विज्ञान का काम विज्ञान की भावना का काम न रहकर यांत्रिक कर्मकांड ज्यादा हो जाता है ।जहां तक स्वैच्छिक संगठनों की बात है उनके पास समर्पित कार्यकर्ता और ठोस कार्यक्रम तो होते हैं परंतु वे हमेशा आर्थिक अभावों से जूझते हैं। उन्हें औपचारिक ढांचों में सेंध लगाने के अवसर भी कम मिलते हैं ।सन 1987 में एक अवसर बना था जब दोनों प्रकार के संगठन एक साथ मिलकर विज्ञान लोकप्रिय करण के एजेंडे पर चले थे ।यहां विज्ञान व वैज्ञानिक जनता के निकट आए थे ।लोक कलाओं लोक संगीत लोक भाषा आदि के माध्यम से विज्ञान संप्रेषण का कार्य हुआ था। कुछ वर्षों तक इसकी ऊर्जा व चमक ने काम किया ऐसे प्रयोग ज्यादा लंबे समय तक नहीं चले । दुनिया के मुकाबले अपने यहां वैज्ञानिक संस्थाओं का इतिहास भी कोई ज्यादा पुराना नहीं है ।इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन ऑफ़ साइंस का काम यहां सराहनीय है। इसके बाद तो काफी गैप आ गया है। अपने यहां वैज्ञानिक साहित्य का लगभग अभाव है। सेमिनारों, बैठकों, कार्यशाला आदि की निरंतरता और गहराइयां कम है। यह सब मिलाकर यहां की रूढ़िवादी जड़ता से मुकाबला करने में इतने सक्षम नहीं है।

3. वैज्ञानिक संस्कृति का अभाव।
हम मिली-जुली संस्कृति का परिणाम है ।मनोवैज्ञानिक रुप में किसी भी मनुष्य को सहज सरल रास्ता स्वीकार्य होगा। वैज्ञानिक संस्कृति की ओर जाने का रास्ता आदर्शवादी तर्क से विद्रोह का रास्ता है ।इसमें जोखिम बहुत है। यह एक वैज्ञानिक को ही समाज से अलग-थलग करने के लिए काफी है ।आधुनिक युग में अपने देश में वैज्ञानिकों ने यह जोखिम कम उठाया है ।हमने ब्रूनो, गैलीलियो ,डार्विन अपने या नहीं पैदा किए। बौद्धिक गतिविधि के किसी भी क्षेत्र में विज्ञान कहीं ज्यादा स्वीकार्य है लेकिन जब पक्षधरता में खड़े होने की बारी आती है तो अधिकांश दूसरे ही पाले में खड़े दिखाई देते हैं। यहां प्रमुखता में दो कारक जिम्मेवार हैं। पहला तो यह कि हम मान कर चलते हैं कि विज्ञान है ही सही अर्थात कहीं न कहीं विज्ञानवाद के शिकार होते हैं। और यह मान लेते हैं कि विज्ञान का विचार आखिर जीतेगा ही। लेकिन अनुभव ने हमें सिखा दिया है की सत्य उतनी मात्रा में ही जीतेगा जितनी मात्रा में इसके लिए खून बहाया जाएगा। दूसरा है विज्ञान में भरोसे की बात। वैज्ञानिक आम आदमी में विज्ञान के प्रति भरोसा नहीं बना पाए। हथियारों की होड़ ,नशीली दवाओं का प्रचलन, कारखानों से फैलता वायु -जल का प्रदूषण, फ़र्टिलाइज़रस व पेस्टिसाइड्स का बढ़ता उपयोग आदि के लिए आम आदमी विज्ञान को दोषी मान लेता है ।ऐसी सब बातों के लिए हम विज्ञान के बचाव में पूरी तरह नहीं उतरते।हमारी तैयारी कमजोर रहती है । जबकि विज्ञान विरोधी ताकतें इस बात को भुनाने में संकोच नहीं करती। आस्था एवं विश्वासों का बनना आसान है लेकिन ढहना बहुत कठिन ।मानव संस्कृति के इतिहास में आधुनिक विज्ञान की उम्र मात्र नवजात शिशु की उम्र के समान है ।

4. विज्ञान जनता का मुद्दा नहीं।
कहने को बड़े-बड़े आयोग गठित हो चुके हो लेकिन बहुत सी छोटी-छोटी लेकिन अधिक महत्वपूर्ण दिखाई देने वाली विज्ञान की बातें आम जनता की मांग के मुद्दे नहीं बन पाते है ।साफ पीने का पानी, पोष्टिक आहार, साफ-सुथरे रहने की परिस्थितियां कभी भी जन आंदोलनों में मांग का हिस्सा नहीं बनती ।जन विज्ञान के मुद्दों पर तथाकथित बड़े वैज्ञानिक प्राय चुप रहते हैं। कितने ऐसे बड़े वैज्ञानिक हैं जो जनता के बीच जाकर उनके मुद्दों को उठाते हो। अधिकांश बड़े वैज्ञानिक अपने ऊंचे संस्थानों से नीचे उतर कर देखना ही पसंद नहीं करते। आइंस्टाइन ,मेरी क्यूरी और मेंडलीव जैसे विरले ही वैज्ञानिक होंगे जो जनता के बीच रहना पसंद करते हो और उनके साथ उनकी बात करते हो। आलोचनात्मक सोच की बहस में एक सवाल कुछ इस प्रकार आया था .माना की सापेक्षता सिद्धांत व क्वांटम भौतिकी होंगी वैज्ञानिकों के लिए बड़ी-बड़ी बातें, लेकिन आम आदमी को तो रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े छोटे-छोटे सवालों के हल चाहिए ।कहां है?

वेदप्रिय
( लेखक हरियाणा के प्रमुख विज्ञान लेखक, विज्ञान संचारक एवं देश के जन विज्ञान आंदोलन की महत्वपूर्ण शख्सियत हैं )

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