वेदप्रिय

यह आजादी का 75 वां वर्ष है। प्रतिगामी सोच समझ को संरक्षण एवं अतार्किक, अवैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा ने देश में तर्कशील ( Rational ) आंदोलन को तेज करने एवं प्रभावशाली बनाए जाने की जरूरतों को पुनः रेखांकित किया है। छद्म विज्ञान को सत्ता एवं व्यवस्था जनित संरक्षण ने संविधान निर्दिष्ट नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों के पालन में अवरोध ही खड़ा किया है जिसमें देश के हर नागरिक के लिए ” वैज्ञानिक मानसिकता, मानवतावाद, सुधार एवं खोज भावना विकसित करने ” की बात कही गई है। मौजूदा इसी परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए भारत में तर्कशील आंदोलन की दशा एवं दिशा पर प्रस्तुत है देश के प्रमुख विज्ञान लेखक एवं विज्ञान संचारक वेदप्रिय का यह महत्वपूर्ण आलेख –

यह दिसंबर, सन 1929 की बात है। मुंबई से प्रकाशित होने वाले एक दैनिक समाचार पत्र बॉम्बे क्रॉनिकल में एक लेख छपा। इस लेख के नीचे डॉ सी एल डिअवाइन, मिस्टर डीआरडी वालिया ,डॉ एस आर जोगलेकर डॉक्टर ए एस यूरेलकर व कुछ अन्य व्यक्तियों के हस्ताक्षर थे। इस लेख में एक सुझाव रखा गया था व अपील की गई थी कि भारत में तर्कशीलों की एक संस्था बनाई जाए। इस लेख की पहल पर जनवरी ,1930 में मुंबई में ही उपरोक्त लेख के नीचे हस्ताक्षरित एवं कुछ अन्य प्रबुद्ध व्यक्तियों की एक बैठक बुलाई गई। इस बैठक में एक एसोसिएशन गठित करने वाले न्यूनतम प्रस्ताव पर चर्चा हुई। बैठक में इस बात पर सहमति बनी कि संस्था का नाम रखा जाए The Antipriestcraft Association .इस संस्था का मुख्य उद्देश्य होगा कि वे सभी सामाजिक विश्वास, रीति- रिवाज व सभी धार्मिक कर्मकांड जो तर्क या विवेक की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं उनका विरोध किया जाए ।साथ में समाज में वैज्ञानिक नजरिया पैदा करना तथा जनता में सहनशीलता व सहिष्णुता की भावना को बढ़ावा देना होगा।इसी प्रस्ताव को लेकर एक अगली बड़ी मीटिंग मार्च, 1930 में बुलाई गई ।यह बैठक द स्टूडेंट ब्रदरहुड हॉल मुंबई में आयोजित हुई ।इसकी अध्यक्षता माननीय डॉक्टर जी वी देशमुख एम डी एफ आर सी एस ने की। यह एक बड़ी बैठक थी ।इसमें संगठन के गठन की विधिवत घोषणा हुई। इसमें निम्नलिखित पदाधिकारियों का चयन हुआ।
अध्यक्ष डॉ जी वी देशमुख
उपाध्यक्ष श्री ए एस तैयबजी व
Dr C L d’Avoine M D
कोषाध्यक्ष श्री डी आर डी वालिया Bar at law
सचिव डॉ George Coelhe MRCP व
श्री J M Cooper तथा
E C members
Dr A S Erulker
Sh M A Somjee
Sh Purushotam Tricumdas
Sh S A Brelvi M A LlB
Sh S A Megharian और
Miss P Nariman

इस एसोसिएशन की कुछ बैठकों के बाद ही एक पत्रिका निकालने बारे निर्णय हुआ ।शुरू में यह त्रैमासिक निकालने की योजना बनी ।पत्रिका का नाम रखा गया रीजन ( Reason)।उन्होंने इस पत्रिका के माध्यम से अपने लक्ष्य एवं उद्देश्यों को प्रचारित करने की सोची। इसका पहला अंक जुलाई, 1931 में निकला ।इसके साथ ही उन्होंने अपनी संस्था का नाम भी बदल कर दी रैशनलिस्ट एसोसिएशन ऑफ इंडिया रख दिया। इन्होंने यह सोच कर संस्था का नाम बदला कि एसोसिएशन का काम antipriestcrafthood से कहीं आगे बढ़कर है ।इस संस्था के कुछ उच्च पदाधिकारी भी the Rationalist प्रेस एसोसिएशन ऑफ लंदन के सदस्य भी थे। इनके मस्तिष्क पर द रैशनलिस्ट प्रेस एसोसिएशन ऑफ लंदन का प्रभाव भी काम कर रहा था। वे यहां भारत में रहते हुए इस एसोसिएशन की स्थानीय इकाई के लिए महत्वपूर्ण कार्य भी कर रहे थे। रीजन के दो अंकों के बाद ही जनवरी, 1932 में इसे मासिक कर दिया गया। यह संस्था मुख्यतयः लेक्चर व सेमिनार आदि करती थी। इससे संबंधित लेख ही रीजन में छपते थे। इनके सेमिनारों में उस समय की जानी-मानी बौद्धिक हस्तियां शामिल होती थी। इनमें कुछ प्रमुख नाम है श्री एम सी छागला डॉ डी के कारवे ,न्यायमूर्ति के सी सेन ,डॉक्टर डी डी कारवे आदि।

इस संस्था को जल्दी ही बहुत प्रसिद्धि मिली। यह संस्था अपने चरम पर उस समय पहुंची जब दिसंबर, 1933 में रीजन के संपादक डॉ सी एल डी अवॉइन पर मुकदमा चलाया गया। मामला कुछ इस प्रकार था। पत्रिका रीजन में एक लेख छपा। इसका शीर्षक था रिलिजन एंड मोरालिटी। यह सितंबर ,1933 के अंक में छपा था। इस लेख को ऐसे माना आ गया कि यह धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला है ।इस पर धारा 295 ए के तहत ईशनिंदा का मुकदमा दर्ज हुआ। यह लेख ईसाइयत के खिलाफ जा रहा था। इस प्रकार यह मुकदमा किंग एंपरर बनाम सी एल अवॉइन चलाया गया ।यह मुकदमा चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट की अदालत में चला। डी अवॉइन की ओर से श्री एफ एस तलयारखां और सी एन क़ानूगा ने बचाव पक्ष रखा। इसके लिए उन्होंने कोई फीस भी चार्ज नहीं की। सी एन डीअवॉइन इसमें बरी हुए ।इस मुकदमे की जीत की खुशी अभिव्यक्ति की आजादी के रूप में मनाई गई। जश्न के रूप में ताजमहल होटल में पार्टी रखी गई। डी अवॉइन को उपहारों से नवाजा गया। उस समय के सभी मुख्य समाचार पत्रों में इस जीत के संबंध में लेख छपे।

दिसंबर, 1934 में कुछ अति उत्साही युवकों ने रैशनलिस्ट यूथ लीग संस्था का गठन कर लिया। यह एक प्रकार से संगठन की युवा विंग थी। युवाओं विशेषकर विद्यार्थियों में इसका नाम गया। बहुत से लेख छापे गए व बांटे गए। लगभग दो-तीन वर्षों तक इस लीग ने अपना कार्य किया और इसके बाद इसे मुख्य एसोसिएशन का ही हिस्सा बना दिया गया। इसी दौरान लगभग एक वर्ष तक रीजन का प्रकाशन ठप्प रहा। सितंबर ,1938 में संस्था को वर्ल्ड यूनियन ऑफ फ्रीथिंकर्स के लंदन में होने वाले सम्मेलन में भाग लेने का अवसर मिला। इसमें संस्था के चार प्रतिनिधि शामिल हुए। इनमें लाला हरदयाल का नाम प्रमुख है।

इसके बाद राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ गई ।द्वितीय विश्वयुद्ध दस्तक दे गया। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन जोर पकड़ने लगा। दिसंबर ,1942 आते-आते रीजन का प्रकाशन बंद हो गया। सभी गतिविधियां मंद पड़ गई। कुछ वर्षों तक कोई काम नहीं हुआ। देश स्वतंत्र हो गया। सन 1949 में फिर एक बार नई ऊर्जा उभरी। इस बार दक्षिण से भी कुछ पहल हुई ।एक नई संस्था ने जन्म लिया। इसका नाम रखा गया था इंडियन रेशनलिस्ट एसोसिएशन। श्री आर पी परांजपे इसके संस्थापक अध्यक्ष बने। ये बाद में ऑस्ट्रेलिया में भारत के उच्चायुक्त भी रहे।आप 1957 तक इसके अध्यक्ष रहे। संस्थापक सचिव बने श्री एस रामानाथन। ये मुंबई विश्वविद्यालय के उप कुलपति थे। उन्होंने नियमित कार्य को आगे बढ़ाया। 1949 में ही रैशनलिस्ट एसोसिएशन ऑफ इंडिया को इंडियन रैशनलिस्ट एसोसिएशन में मिला दिया गया (IRA)। आई आर ए के बाद के अध्यक्षों में शामिल थे प्रोफेसर आर एस यादव। ये मेरठ यूनिवर्सिटी के उपकुलपति थे। ये 1957 से 1959 तक इसके अध्यक्ष रहे ।अगले एक वर्ष के लिए एम एन रॉय की पत्नी एलन रॉय इसकी अध्यक्षा रही। आई आर ए को सर्वाधिक पब्लिसिटी उस समय मिली जब इसने प्रसिद्ध तर्क शास्त्री एवं वैज्ञानिक डॉक्टर अब्राहम की कवूर के साथ मिलकर 3 वर्षों तक( 1975 से 78) चमत्कारों की वैज्ञानिक व्याख्या का विशाल कार्यक्रम चलाया ।पहली बार यह कार्यक्रम बड़े स्तर पर चलाया गया था। अब्राहम टी कवूर की दो प्रसिद्ध पुस्तकें बिगोन गॉडमैन और गॉड्स, डेमोन्स एंड स्पिरिट्स निकली। सन 1978 में ही इनकी मृत्यु हो गई। इन का कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। इन पुस्तकों ने तर्कशीलों के लिए मार्गदर्शन का अहम काम किया।

अब तक आई आर ए देश भर में प्रसिद्ध हो चुकी थी। अब्राहम की कवुर ने 23 बिंदुओं की एक सार्वजनिक चुनौती जारी कर दी थी। यह आज तक जारी है ।देश में कई स्थानों पर इसी प्रकार के छोटे-छोटे ग्रुपों के बनने की एक राह आसान हो गई थी। अब संस्था में इस बात की होड़ भी शामिल हो चुकी थी कि पदाधिकारी कौन बने। सन 1983 से 85 तक प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री है एच नरसिमैया इसके अध्यक्ष रहे। ये एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे। ये बेंगलुरु विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे। इनके कार्यकाल की बड़ी उपलब्धि साईं बाबा की प्रसिद्ध ट्रिक हवा में हाथ घुमाकर वस्तुएं पैदा करने का पर्दाफाश रही। सन 1982 में इंडियन एथीस्ट पब्लिशर्स सामने आई। इसने बहुत सी तर्कशील पुस्तकें निकाली ।इन्होंने आई आर ए के साथ मिलकर काम किया। सन 1996 से 2005 तक जोसेफ एडामारूकू इसके अध्यक्ष रहे। फिर इसके बाद इसकी कमान संभाली इन्हीं के पुत्र सनल एडामारूकू ने। इन्होंने मॉडर्न फ्री थिंकर नाम से एक पत्रिका भी निकाली ।यह बहुत ज्यादा नियमित नहीं चली ।इनके कार्यकाल में महेश योगी व मदर टेरेसा आदि के चमत्कारों का पर्दाफाश हुआ। इन्होंने कई अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस भी यहां भारत में करवाई। यहां ये भारत में असुरक्षित महसूस कर रहे थे। ये बाद में फ्रांस में रहने लगे।

उपरोक्त घटनाक्रम के साथ एक और समांतर धारा चल रही थी। सन 1935 में ही कोचीन में एक और संस्था का पंजीकरण हुआ था ।इसका नाम युक्तिवादी संघम था। युक्तिवादी इसकी अधिकारिक पत्रिका थी। इसकी भाषा व कार्यक्षेत्र मलयालम का क्षेत्र ज्यादा था। एम सी जोसेफ इसके पहले सचिव थे ।सन 1974 तक इनका अपना काम चलता रहा। सन 1975 से 80 के आसपास का वह काल है जब चमत्कारों का पर्दाफाश कार्यक्रम एक आंदोलन का आकार लेने लगा था। इस काल में प्रमुख चेहरे अब्राहम टी कवुर, जोसेफ एडामारूकू व श्री बी प्रेमानंद आदि थे ।अब्राहम टी कवुर की मृत्यु के बाद व्यक्तिगत रुझान उभरने लगे। श्री बी प्रेमानंद ने इंटरनेशनल कमेटी फॉर साइंटिफिक इन्वेस्टिगेशन ऑफ़ क्लेम ऑफ़ पैरानॉर्मल की तर्ज पर इंडियन कमेटी फॉर साइंटिफिक इन्वेस्टिगेशन ऑफ़ क्लेम ऑफ पैरानॉर्मल का गठन किया ।ये इसके आजीवन संयोजक रहे। इन्होंने इंडियन स्केप्टिक्स नाम की मासिक पत्रिका निकाली ।इन्होंने कई प्रसिद्ध पुस्तकें भी निकाली। अब तक तर्कशील साहित्य बाजार में आने लगा था। इसे पढ़कर कई स्थानों पर छोटे-छोटे स्थानीय तर्कशील ग्रुप उभरे ।पंजाब में तर्कशील सोसाइटी का गठन हुआ। इन्होंने पंजाबी में कई पुस्तकें निकाली ।मेघराज मित्र, कृष्ण बरगाड़ी, सरजीत तलवार आदि के नाम यहां प्रमुख रहे। पहले इन्होंने वैज्ञानिक विचार के नाम से तथा बाद में नाम बदलकर तर्कशील नाम की पंजाबी मासिक पत्रिका निकाली। यह इस क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हुई ।बाद में यहां भी यह संस्था दो फाड़ हो गई ।मेघराज मित्र ने तर्कशील सोसायटी भारत का अलग ही गठन कर लिया।

इसी प्रकार महाराष्ट्र में अखिल भारतीय अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति का गठन सन 1982 में हुआ ।इसके संस्थापक प्रोफेसर श्याम मानव थे व सहयोगी थे डॉक्टर नरेंद्र दाभोलकर ।बाद में कुछ दिक्कतों के चलते डॉक्टर नरेंद्र दाभोलकर ने एक अलग संस्था सन 1989 में महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के नाम से पंजीकृत करवाई। इसी प्रकार बंगाल में भी एक ग्रुप मार्च ,1985 में अस्तित्व में आया। उपरोक्त तर्कशील आंदोलन को पहला बड़ा ब्रेक मिला सन 1990 में ।विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी विभाग ,भारत सरकार ने इस आंदोलन को बढ़ावा देने के लिए श्री बी प्रेमानंद को राष्ट्रीय फेलोशिप दी ।इसके तहत इन्होंने भारत के कई राज्यों में पांच- पांच दिन की कार्यशालाएं आयोजित की ।कार्यशालाओं में स्रोत कार्यकर्ता तैयार करने का काम मिला था । NCSTC, DST ने चमत्कारों के पर्दाफाश के प्रयोगों का एक किट भी तैयार करवाया। इस प्रकार की उत्तर भारत में पहली कार्यशाला हिसार कृषि विश्वविद्यालय में 1990 में हरियाणा विज्ञान मंच की पहल पर आयोजित हुई। इसके बाद अन्य राज्यों में भी कार्यशालाएं हुई ।इसके बाद एक कार्यशाला बाल भवन ,नई दिल्ली में आयोजित हुई जिसमें प्रत्येक राज्य के चुने हुए रुचि लेने वाले चुनिंदा कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण किया गया ।

इस कार्यशाला के माध्यम से श्री बी प्रेमानंद का कहना था कि अब आगे से उत्तर भारत में कार्यशालाएं लेने का कार्य ये स्रोत व्यक्ति ही करेंगे। यहां हरियाणा विज्ञान मंच के प्रयास सराहनीय रहे। यहां तैयार हुए स्रोत व्यक्तियों ने दो-तीन वर्षों में ही राष्ट्रीय स्तर की दर्जनों कार्यशालाएं ली ।इसी बीच बी प्रेमानंद ने अपनी पहली पुस्तक चमत्कारों के पर्दाफाश पर निकाली। इसमें लगभग 150 प्रयोग थे। ये इसकी एक श्रृंखला निकालना चाहते थे। लेकिन बाद में इसी तर्ज पर और पुस्तकें नहीं निकली। यही एक पुस्तक अब कार्यकर्ताओं के लिए संदर्भ सामग्री थी ।बाद में इसके अनुवाद भी बहुत प्रकाशित हुए। श्री बी प्रेमानंद चाहते थे कि इस प्रकार का कार्य करने वाली सभी संस्थाएं एक नेटवर्क के अंतर्गत आएं ।इसके लिए इन्होंने फेडरेशन ऑफ इंडियन नेशनलिस्ट एसोसिएशन FIRA बनाने का सुझाव रखा। 7 फरवरी, 1997 को यह सुझाव कई संस्थाओं द्वारा स्वीकृत हुआ। श्री प्रेमानंद इसके संस्थापक अध्यक्ष बने। उस समय लगभग 50 संस्थाओं की पहल पर यह फेडरेशन बनी ।अब लगभग 80 से ज्यादा संस्थाएं इसके अंतर्गत नामांकित है । वर्तमान में नरेंद्र नायक इसके अध्यक्ष है।

कुछ अन्य बातें
श्री बी प्रेमानंद बहुत ही कर्मठ व सक्रिय व्यक्ति थे। इन्होंने 50 से ज्यादा देशों का भ्रमण किया था। ये दुनिया के जाने- माने तर्कशीलों में अपना स्थान रखते थे।कैंसर के कारण इनकी मृत्यु 4 अक्टूबर, 2009 में हो गई ।इसके बाद इंडियन स्केप्टिक निकलनी बंद हो गई ।तर्कशील साहित्य छपने का काम भी धीमा हो गया।यद्यपि आज थोक के भाव इस प्रकार के कार्यकर्ता हैं जो इस गतिविधि चमत्कारों का पर्दाफाश दिखलाते हैं ।क्योंकि इस गतिविधि में एक विशेष प्रकार का ग्लैमर है सो यह एक आकर्षक गतिविधि है। लेकिन अधिकांश कार्यकर्ता केवल सतही तौर पर या यूं कहें कि मनोरंजन के स्तर पर ही ये प्रदर्शन करते हैं ।वे मात्र पहले से सीखे हुए कुछ प्रयोगों की दोहराई ही करते हैं। वे उन प्रयोगों के इतिहास ,विज्ञान तथा एक सीमा तक इनके गहरे संदेश तक नहीं जाते हैं। वे न केवल रुक कर खड़े हो गए हैं अपितु इस गतिविधि को हल्के मनोरंजन के स्तर तक ले आए हैं। इसके लिए निरंतर अध्ययन तथा स्थानीय स्तर पर होने वाली घटनाओं (अंधविश्वास से संबंधित )पर फौरी प्रतिक्रिया व अध्ययन की दरकार है ।

 

इस गतिविधि से जुड़ी हुई तीन प्रकार की संस्थाएं आज हमारे यहां कार्य कर रही हैं।एक तो वे संस्थाएं हैं जो विज्ञान लोकप्रिय करण के नाम से काम कर रही है। दूसरी वे संस्थाएं हैं जो विभिन्न तर्कशील संस्थाओं के नाम से अपने -अपने क्षेत्र में आंदोलन से जुड़ी हुई है तथा तीसरी प्रकार की वे संस्थाएं हैं जो Athiest या Humanist बैनर के तहत काम कर रही हैं। इनमें एथीस्ट सेंटर विजयवाड़ा का नाम अग्रणी है। यद्यपि तीनों के अपने -अपने एजेंडे हैं जबकि चमत्कारों का पर्दाफाश सभी का एक कॉमन एजेंडा भी है ।इसके साथ ही एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यह एक विशेष राजनीतिक विचारधारा के झुकाव को स्वीकार करती है। यह विचारधारा एक विशेष प्रकार की सामाजिक प्रतिबद्धता की मांग करती है।इसलिए इस पूरे कार्यक्रम के बारे में रणनीतिक भिन्नताएं यहां मौजूद हैं। अंधविश्वासों को दूर करने का काम अकेले विज्ञान का कार्य नहीं है। यह केवल तर्कशील जैसी संस्थाओं से भी नहीं होगा। यह लोगों के मनोविज्ञान को बदलने का काम भी है। यह एक नए प्रकार की सामाजिक व्यवस्था के निर्माण की मांग है। यह एक दुस्साहस भरा कार्य भी है। इसमें जोखिम भी बहुत है। साईं बाबा जैसी हस्तियों से टकराना कोई आसान काम नहीं है। इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए अभी और ज्यादा गहन विचार-विमर्श की जरूरत है।

( लेखक हरियाणा के प्रमुख विज्ञान लेखक, विज्ञान संचारक एवं जनविज्ञान आंदोलन के वरिष्ठ सहयोगी हैं )

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