ललित मौर्या

कभी खेतों में नीम, महुआ, जामुन जैसे पेड़ों की बहार हुआ करती थी, सावन के झूले पड़ा करते थे। लोग महुआ चुनते, उसके पकवान बनते। घंटों नीम, पीपल की पूजा होती, मान-मनुहार होता। जामुन पकती तो पक्षियों और जानवरों का उन्हें खाने के लिए मेला लग जाता। लेकिन कहीं न कहीं पेड़ों के साथ यह सब भी गायब होता जा रहा है। आपको जानकर हैरानी होगी की पिछले पांच वर्षों में भारत के खेतों से 53 लाख छायादार पेड़ गायब हो चुके हैं।

इसमें कोई दोराय नहीं कि भारत में कृषि न केवल किसानों बल्कि आम लोगों के लिए भी बेहद जरूरी है। यह किसानों को उनकी पैदावार से आम आदमी को दो वक्त की रोटी देती है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह खेती के तौर तरीकों में बदलाव आ रहा है, वो न केवल पर्यावरण बल्कि किसानों के लिए भी हितकारी नहीं है। ऐसे ही बदलावों में से एक है खेतों से नीम जैसे छायादार पेड़ों का गायब होना। हालांकि यह जानते हुए भी कि ये पेड़ पर्यावरण के साथ-साथ खेतों के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण हैं, फिर भी इनकी निगरानी पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा। इसका मतलब है कि हम इस बारे में ज्यादा नहीं जानते कि वे कहां हैं, इनका प्रबंधन कैसे किया जाता है, या वे जलवायु परिवर्तन और बीमारियों से कैसे प्रभावित होते हैं।

देश का 56 फीसदी हिस्सा कृषि भूमि के रूप में है, वहीं महज 20 फीसदी पर जंगल है। हालांकि, भारत में जंगल और वृक्षारोपण के बीच अंतर बेहद स्पष्ट नहीं है। लेकिन इतना जरूर स्पष्ट है कि इस भूमि उपयोग में भारत में मौजूद पेड़ों का एक बड़ा हिस्सा शामिल नहीं हैं, जो खेतों से लेकर शहरी क्षेत्रों में बिखरे हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए कोपेनहेगन विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं के नेतृत्व में एक नया अध्ययन किया गया है, जिसके नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित हुए हैं। अपने इस अध्ययन में शोधकर्तों ने भारतीय खेतों में मौजूद 60 करोड़ पेड़ों का मानचित्र तैयार किया है।

इसके मुताबिक जहां देश में प्रति हेक्टेयर पेड़ों की औसत संख्या 0.6 दर्ज की गई। वहीं इनका सबसे ज्यादा घनत्व उत्तर-पश्चिमी भारत में राजस्थान और दक्षिण-मध्य क्षेत्र में छत्तीसगढ़ में दर्ज किया गया, जहां पेड़ों की मौजूदगी प्रति हेक्टेयर 22 तक दर्ज की गई। अध्ययन के दौरान इन पेड़ों की दस वर्षों तक निगरानी की गई। हालांकि इनमें वो पेड़ शामिल नहीं थे जिन्हें वृक्षारोपण के लिए लगाया गया था।

इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनसे पता चला है कि 2010/11 में मैप किए गए करीब 11 फीसदी बड़े छतनार पेड़ 2018 तक गायब हो चुके थे। रिसर्च के मुताबिक ज्यादातर क्षेत्रों में खेतों से गायब हो रहे परिपक्व पेड़ों की संख्या आमतौर पर पांच से दस फीसदी के बीच रही। हालांकि मध्य भारत में, विशेष तौर पर तेलंगाना और महाराष्ट्र में, बड़े पैमाने पर इन विशाल पेड़ों को नुकसान पहुंचा है।

इस दौरान कई हॉटस्पॉट ऐसे भी दर्ज किए गए जहां खेतों में मौजूद आधे (50 फीसदी) पेड़ गायब हो चुके हैं। वहां प्रति वर्ग किलोमीटर औसतन 22 पेड़ गायब होने की जानकारी मिली है। इस बीच कुछ ऐसे छोटे हॉटस्पॉट क्षेत्र भी उभरे हैं, जिनमें पेड़ों का काफी नुकसान हुआ है। इनमें पूर्वी मध्य प्रदेश में इंदौर के आसपास का क्षेत्र शामिल है।

 

इतना ही नहीं 2018 से 2022 के बीच करीब 53 लाख पेड़ खेतों से अदृश्य थे। मतलब की इस दौरान हर किलोमीटर क्षेत्र से औसतन 2.7 पेड़ नदारद मिले। वहीं कुछ क्षेत्रों में तो हर किलोमीटर क्षेत्र से 50 तक पेड़ गायब हो चुके हैं।

बता दें कि इन पेड़ों का मुकुट करीब 67 वर्ग मीटर या उससे बड़ा था। इनमें नीम, महुआ, जामुन, कटहल, खेजड़ी (शमी), बबूल, शीशम, करोई, नारियल आदि जैसे बहुउद्देशीय पेड़ शामिल हैं, जो कई तरह से फायदेमंद होते हैं।

यह पेड़ मिट्टी की उर्वरता को बढ़ावा देने के साथ-साथ छाया प्रदान करके पर्यावरण की मदद करते हैं। साथ ही किसानों को फल, लकड़ी, जलावन, चारा, दवा जैसे उपयोगी उत्पाद भी देते हैं। सूखने के बाद इनकों बेच कर अतिरिक्त आय भी अर्जित की जा सकती है।

क्या इंसानी लालच की वजह से खेतों से गायब हो रहे हैं पेड़

अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इन विशाल पेड़ों के गायब होने की वजहों की भी पड़ताल की है। इसके मुताबिक इन पेड़ों के गायब होने की सबसे बड़ी वजह खेती-किसानी के तौर तरीकों में आता बदलाव है। देखा जाए तो जैसे-जैसे किसानी के तरीकों में बदलाव आ रहा है खेतों में मौजूद इन पेड़ों को फसलों की पैदावार के लिए हानिकारक माना जा रहा है।

रिसर्च के नतीजे दर्शाते हैं कि सिंचाई के साधनों में होते इजाफे के साथ विशेषकर धान के खेतों में जगह बनाने के लिए ज्यादातर पेड़ों को काट दिया गया, क्योंकि किसानों को लगता है कि यह पेड़ उनकी फसलों के लिए खतरा हैं। उनके मुताबिक नीम जैसे पेड़ जिनकी छाया बहुत गहरी होती वो फसल की पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं।

क्या इन पेड़ों के गायब होने के पीछे जलवायु में आते बदलावों की भी कोई भूमिका थी तो शोधकर्ताओं के मुताबिक यह मुख्य रूप से जलवायु परिवर्तन के कारण नहीं था। हालांकि जब आम लोगों से राय ली गई तो वो इस बात से सहमत थे कि इसमें खेती के तरीकों में हुआ बदलाव पेड़ों के नुकसान का मुख्य कारण था।

इसके साथ ही सर्वे में शामिल ज्यादातर ग्रामीणों का मानना था कि खेतों के भीतर देशी पेड़ दुर्लभ हो गए हैं। हालांकि उन्होंने इस बात की भी स्वीकार किया कि फंगस और जलवायु का पेड़ों की आबादी पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा है। यह बेहद चिंताजनक है क्योंकि खेतों में मौजूद यह पेड़ एक तरफ जहां कृषि के लिए फायदेमंद थे। साथ ही यह जलवायु और जैवविविधता के दृष्टिकोण से भी मायने रखते हैं।

यह निष्कर्ष चिंताजनक है क्योंकि मौजूदा समय में कृषिवानिकी को जलवायु परिवर्तन के प्रमुख समाधान के रूप में देखा जा रहा है। जो पर्यावरण की मदद करने के साथ-साथ खेती का भी समर्थन करता है। यह जैव विविधता को भी बढ़ावा देता है। साथ ही यह जलवायु अनुकूलन और शमन रणनीतियों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

Spread the information