विकास शर्मा

दुनिया में देखा जाता है कि इंसानों में स्त्री और पुरुषों के बीच का अनुपात समान होता है. जहां भी ये अनुपात कुछ ऊपर नीचे होता है तो वह एक्सपर्ट्स के लिए चिंता का विषय बन जाता है. पर जानवरोंऔर पंछियों में नर और मादा अनुपात कुछ ज्यादा ही होता है.वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि इसके पीछे इंसानों की एक खास तरह फितरत है.

इंसानों में लड़के और लड़कियों की संख्या बराबर होती है. अगर आपको यह बात अजीब ना लगे तो आपको बता दे कि आमतौर पर बाकी जानवरों में ऐसा नहीं होता. जानवरों में लिंग अनुपात में असमानता होती है. इंसान ही हैं जो हमेशा लगभग पूर्ण संतुलन बना पाते हैं. और यह संतुलन  मिशिगन विश्वविद्यालय की एक नई स्टडी में इस 1:1 अनुपात के पीछे जेनिटिक कारकों की जांच की गई है और पता लगाया गया है कि यह पूरे विकास में क्यों बना रहा है. इंसानों में ऐसा क्या है तो वे यह संतुलन बना सके?

मानव लिंग अनुपात में क्रोमोजोम
मानव लिंग X और Y क्रोमोजोम्स गुणसूत्रों से निर्धारित होता है. महिलाओं को दो X क्रोमोजोम विरासत में मिलते हैं, जबकि पुरुषों को एक X और एक Y क्रोमोजोम विरासत में मिलता है. Y क्रोमोजोम SRY जीन को लाता है, जो भ्रूण में पुरुष विकास को सक्रिय करता है. SRY के बिना, भ्रूण एक महिला में विकसित होती है.

कैसे तय होता है
जब पुरुष का स्पर्म और महिला की ओवरी से मिलते हैं तो शुक्राणु अंडा बनता है जो भ्रूण या एम्ब्रियो में विकसित होता है. शुक्राणु अंडे में दो क्रोमोजोम होते हैं जिसमें से एक तो X होता ही है, लेकिन दूसरा या तो X या Y क्रोमोजोम होता है. यदि दूसरा क्रोमोजोम भी X हुआ, तो भ्रूण एक लड़की (XX) होती है. यदि दूसरा क्रोमोजोम Y हुआ तो एक लड़का (XY) पैदा होता है. X और Y क्रोमोजोम के इस समान वितरण के परिणामस्वरूप लगभग समान संख्या में पुरुष और महिला जन्म होते हैं.

1:1 अनुपात असामान्य क्यों?
कई प्रजातियों में, लिंग अनुपात बराबर नहीं होता. कुछ जेनेटिक म्यूटेशन अधिक बदलाव का कारण बनते हैं, जबकि पर्यावरण संबंधी कुछ कारक भी नर और मादा के अनुपात को प्रभावित करते हैं. मिसाल के तौर पर, कुछ पक्षी स्वाभाविक रूप से एक लिंग के ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं, दूसरे लिंग के नहीं.

जनसंख्या संतुलन
संतुलन प्रकृति का नियम है. और उसका मकसद लिंगानुपात में संतुलन के तुलना में जनसंख्या और पीढ़ी का आगे बढ़ते रहने की व्यवस्था को कायम रखने का संतुलन अधिक अहम है. ब्रिटिश स्टैटिस्टीशियन रोनाल्ड फिशर के सिद्धांत के अनुसार, 1:1 अनुपात अपने आप ठीक हो जाता है. यदि एक लिंग दुर्लभ हो जाता है, तो उसकी संतानों के जीवित रहने और प्रजनन करने की संभावना अधिक होती है, जिससे जनसंख्या फिर से संतुलित हो जाती है.

क्या इंसानों में होता है ये कारण
अपने हाल के अध्ययन में, शोधकर्ता सिलियांग सोंग और जियानज़ी झांग ने यूनाइटेड किंगडम से बड़े मानव डेटा सेट का विश्लेषण किया. उनका मकसद यह पता लगाना था कि क्या मानवों में लिंग अनुपात इस प्राकृतिक संतुलन से बदलता है? उनके नतीजो में 1:1 अनुपात से लंबे समय कोई अहम बदलाव नहीं पाया गया.

इंसानों की एक खास फितरत?
लेकिन उन्होंने कुछ खास बातें जरूर पाईं. उन्होंने कुछ जेनिटिक वेरिएंट की पहचान की, जो लिंग अनुपात को प्रभावित करते हैं. फिर भी ये वेरिएंट एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में नहीं गए. मनुष्यों में लगातार 1:1 अनुपात के लिए एक कारण विकासवादी दबाव हो सकता है.इसमें खास तौर से   इंसानों की एक ही साथी के साथ रहने की फितरत की ज्यादा भूमिका हो सकती है. यह आबादी में पुरुषों और महिलाओं की समान संख्या की जरूरत को बताता है.

एक वजह ये भी
एक अन्य कारक मानव परिवारों द्वारा पैदा किए जाने वाले बच्चों की अपेक्षाकृत कम संख्या हो सकती है. बड़ी संख्या में संतानों वाली प्रजातियों में, 1:1 अनुपात से बदलाव अधिक आसानी से दिख सकता है वहीं .इंसानों में, छोटे परिवार के आकार का मतलब है कि परिवार के स्तर पर लिंग अनुपात में उतार-चढ़ाव पूरी आबादी को ज्यादा प्रभावित नहीं करते हैं.

हमेशा बना रहता है पर क्यों यह बड़ा सवाल
जबकि मानव लिंग अनुपात 1:1 नियम के करीब बना हुआ है, अध्ययन इस बारे में अहम सवाल उठाता है कि यह संतुलन मनुष्यों में इतना मजबूती से क्यों बना रहता है जबकि अन्य प्रजातियों में व्यापक उतार-चढ़ाव का अनुभव होता है. यह शोध लिंग अनुपात को आकार देने वाली शक्तियों में आगे की खोज के लिए एक आधार प्रदान करता है.

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

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