वेदप्रिय
अंग्रेजी में एक कहावत है – ‘ All that glitters is not Gold ‘ ,अर्थात सभी चमकने वाली चीज सोना नहीं होती है ।इसको थोड़ा इस रूप में भी आगे बढ़ाया जा सकता है कि सोने जैसी दिखने वाली या सोने की होने का बहाना करने वाली वस्तुओं की अलग पहचान जरुरी है। हम छद्मविज्ञान को इसी उक्ति के सहारे समझने की ओर बढ़ सकते हैं ।हम सब जानते हैं कि सोना( यदि मैं विज्ञान कह दूं) एक बहुमूल्य चीज है। और यदि पीतल (छद्मविज्ञान) हमारे सामने हो जो चमक में सोने जैसा दिखता हो तो बिना पड़ताल हम उसे सोना नहीं स्वीकारते। हमारे पास कुछ परीक्षण होंगे, सोने के कुछ गुणधर्म होंगे जिनके सहारे हम असली/ नकली का अंतर समझ पाएंगे। इसलिए छद्मविज्ञान इसी तरह कुछ पीतल जैसी बात है ।लेकिन यह इतना सरल भी नहीं है कि आप तुरंत पहचान लेंगे। हमें विज्ञान होने की कसौटियां ,गुण, इतिहास ,प्रकृति आदि का ज्ञान होना अनिवार्य है। इसलिए यह प्रश्न सीधे-सीधे विज्ञान की प्रकृति( दर्शन ,गुणधर्म, इतिहास )का प्रश्न है । हम जितना ज्यादा सटीक ,स्पष्ट तरीके से विज्ञान को समझ लेंगे उतना ही हमारे लिए सरल हो जाएगा कि हम छद्मविज्ञान को विज्ञान से अलग कर सकें।
हम कई बार यह कह देते हैं कि प्रत्यक्ष (Evident )को प्रमाण की क्या आवश्यकता ।हमें प्रत्यक्ष को इस बात से अलग करने की जरूरत है कि हमारे तथ्य(Facts ) किन सबूत/ गवाहियों ( Evidences) से पहचाने गए हैं। प्रत्यक्ष को स्वतः ही ठीक मानने की जल्दबाजी अच्छी नहीं ।उदाहरण के लिए पानी भरे कांच के एक गिलास में टेढ़ी खड़ी हुई सीधी पेंसिल बीच से मुड़ी नजर आती है ।प्रथम दृष्टया यह प्रत्यक्ष अवलोकन है, परंतु तथ्य इसके विपरीत हैं। ऐसा भी हो सकता है कि कोई अवलोकन एक व्यक्ति विशेष के लिए सही हो(क्योंकि हमारे अवलोकन कई बार हमारे व्यक्तिगत विश्वासों से प्रभावित हो जाते हैं )।इनके लिए पुख्ता सबूत( Confirmatory) इकट्ठे किए जाएं और जो अच्छी तरह विश्लेषित हों। यदि विश्वास हैं भी तो हमारे सबूत हमारे विश्वासों को पुख्ता करें न कि हमारे विश्वास हमारे सबूतों को ।बात सच से आगे बढ़ने की है। संज्ञा के रूप में ‘सत्य’ सच होने का एक गुण है। यदि ‘सत्य’ एक विशेषण के रूप में देखा जाए तो यह होगा तथ्य /यथार्थ की संगति में ।इसको प्रायः एकदम सही( Accurate or Exact) भी कह सकते हैं। यदि यह विशेषण के रूप में है तो यह भिन्न-भिन्न तरीकों से पड़ताल के दायरे में आ सकता है। इस प्रकार यह एक व्यक्तिगत विश्वास नहीं रह जाएगा। क्योंकि यह तथ्यों के द्वारा पुष्ट किया गया है। तथ्य बिना आलोचनात्मक अध्ययन स्वीकार्य नहीं होते ।तरह-तरह के सवाल करके अनेक पड़तालों के बाद ही ये मान्य होते हैं। इन्हें (तथ्य ) स्थापित करने के लिए सिलसिलेवार बारीक अवलोकन चाहिए, ठीक मापन व प्रयोग चाहिए, दुरुस्त परीक्षणों के बाद ही ये स्वीकार्य होते हैं। इस प्रकार प्राप्त हुए ये तथ्य हमें कुछ निर्णय( Predictions) लेने में सक्षम बनाते हैं। ये अवलोकन हमारी ज्ञानेंद्रियों की सीमा से आगे बढ़े होते हैं। ये हमारे मस्तिष्क में बने पूर्व अनुभवों से जुड़ते हैं।
हमें छद्मविज्ञान को एकदम सीधे-सीधे झूठा विज्ञान नहीं कहना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि हम विज्ञान को अच्छी तरह से समझ लें। विज्ञान का अर्थ इस प्रकार है कि यह उस प्रक्रिया को समझना है जिससे विश्व संचालित होता है व इसकी घटनाएं संचालित होती हैं। ये ब्रह्मांड के वे मौलिक (भौतिक) नियम हैं जो यहां काम करते हैं । इस प्रकार विज्ञान , ज्ञान प्राप्त करने का एक सर्वोत्तम तरीका है ,यह पूर्वाग्रहों पर काम नहीं करता। यह पुष्ट सबूतों पर चलता है । विज्ञान में एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें कारणता (Causality )और आकस्मिकता( Casuality) में अंतर स्पष्ट होना चाहिए। यह हमेशा जरूरी नहीं की एक पक्ष किसी दूसरे के लिए पूर्णतया जिम्मेवार है ।यह जानने का एक बड़ा क्षेत्र है कि आकस्मिकता की संभावनाएं क्या-क्या हैं। इसमें व्यक्तिगत विश्वासों और पूर्वाग्रहों को निरंतर खारिज करना पड़ता है ।जब तक पूर्णतया सही जिम्मेवार संभावना का पता नहीं लग जाता हमें इसके लिए कारणता का संबंध स्थापित नहीं करना चाहिए। कारणता में हर बार जिम्मेवार कारक नहीं ठहराए जा सकते ।आकस्मिकताएं भी हो जाती है जो बाद में समझ आती हैं।डार्विन का विकासवाद आकस्मिकताओं का एक बड़ा क्षेत्र है ।
हमारे समाज में विज्ञान के इलावा ज्ञान के अन्य स्रोत भी हैं। इनमें पारंपरिक विश्वास, किसी तरह की एक्सपर्टाइजेशन आदि भी शामिल हैं।यहां से हमें छद्मविज्ञान की एक परिभाषा मिलती है । ऐसे व्यवहार एवं विश्वास जिन्हें भूल से विज्ञान विधि पर आधारित समझ लिया गया हो। इनकी अपनी कुछ विशेषताएं होती हैं। प्रायः इनमें विरोधाभास होता है। कुछ ऐसे असाधारण दावे होते हैं जो सिद्ध नहीं किए होते। ये बिना पुष्ट प्रमाणों के मान लिए गए होते हैं। ये अन्य विशेषज्ञों से पड़ताल करवाने की क्रिया से परहेज करते हैं। इनमें कुछ प्रक्रिया संबंधी चरण गायब रहते हैं । येन -केन- प्रकारेण ये विज्ञान की जगह स्थापित होने की कोशिश करते हैं।यदि अच्छी तरह से तुलनात्मक रूप में समझने की कोशिश करें तो हम इनमें निम्नलिखित अंतर पाएंगे ।एक सही वैज्ञानिक अपनी सीमाएं मानते हुए आगे खोजने की बात करेगा, जबकि छद्मवैज्ञानिक नहीं। एक सही वैज्ञानिक नई समस्याओं और नए प्रश्नों से उलझ कर आगे बढ़ना चाहेगा जबकि छद्मवैज्ञानिक इससे बचने की कोशिश करेगा या अप्रमाणित बातों में उलझ जाएगा।एक सही वैज्ञानिक नई अवधारणाओं का स्वागत करता है व नई प्रक्रियाओं को टैस्ट करना चाहता है, जबकि छद्मवैज्ञानिक अपनी अवधारणाओं से चिपका रहना चाहता है और इन्हें ही अंतिम मानता है। एक वैज्ञानिक के लिए रीजन (Reason )ही अंतिम अथॉरिटी होता है( संभाविताओं को स्वीकारते हुए)। जबकि छद्मविज्ञान में प्रायः एक अंतिम अथॉरिटी नियत कर दी जाती है ।विज्ञान में सार्वजनिक बहस /पड़ताल स्वीकार्य है और उत्तर न मिलने की दशा में यह भी कहना स्वीकार्य होता है कि- ‘मुझे अभी नहीं पता’। जब की छद्मविज्ञान हर प्रश्न के अंतिम उत्तर के लिए प्रायः तैयार रहता है। विज्ञान में आंकड़े छिपाए नहीं जाते। यदि ये फेवरेबल नहीं है तो भी और न ही इनका अनुकूलन किया जाता है। जबकि छद्मविज्ञान में आंकड़ों के साथ प्रायः छेड़छाड़ होती है। छद्मविज्ञान को मानने वाले अपने दावों को स्थापित करने की कोशिश ही करते हैं, इन्हें गलत सिद्ध करने के प्रयोग व प्रयास नहीं करते( कार्ल पॉपर की शब्दावली)। इस प्रकार ये अनिश्चितताओं को दबाने का कार्य करते हैं। इस प्रकार ये कभी भी प्रगतिशीलता की ओर नहीं बढ़ पाए ।या तो ये जड़वत खड़े रहते हैं या अवसान( गिरावट)की ओर जाते हैं। जबकि विज्ञान हमेशा फॉरवार्ड लुकिंग रहता है।
विज्ञान में इनके अलावा और भी ऐसे कारक है जो इसके औचित्य को सिद्ध करते हैं। अर्थात विज्ञान को विज्ञान होने के लिए इन कारकों को भी देखना होता है। उदाहरण के लिए वैज्ञानिकों का भी एक समुदाय है जो एक सहमति (वैज्ञानिक पैमानों पर) रखता है। बेशक यह समुदाय शोध कम करता है परंतु विज्ञान होने को कसौटियों पर कसता रहता है। इन वैज्ञानिकों के ज्ञान स्तर पर भी यह निर्भर करता है कि ये किसे उचित ठहराते हैं। यह तो सही है कि ये हठी नहीं होते अपितु परिवर्तनों को हमेशा स्वीकार करते रहते हैं।
उपरोक्त विमर्श की रोशनी में आइये कुछ छद्मविज्ञानों के बारे में कुछ जाने।एक बहुत विवादित ज्ञान शाखा को लेते हैं ।यह है मस्तिष्क विज्ञान (Phrenology) ।इसकी अवधारणा जर्मन वैज्ञानिक F J Gall (1758 -)1828 ने दी थी। इनका कहना था कि मस्तिष्क में मानसिक व्यवहार बनने के कुछ स्थान चिन्हित हैं, जहां से किसी मनुष्य का व्यवहार निर्धारित होता है। काफी समय तक इस अवधारणा पर सवाल नहीं उठे। क्योंकि तंत्रिका विज्ञान उस समय तक ज्यादा विकसित नहीं हुआ था ।और उसे दौर में इनके परीक्षण के टूल्स एंड टेक्निक्स भी विकसित नहीं हुए थे। बाद में मेरी जे पी फ्लोरेंस द्वारा इन्हें छद्म सिद्ध किया गया। एक उदाहरण हम एस्ट्रोलॉजी का लेते हैं। लगभग 16वीं सदी तक ज्योतिष व खगोल में अंतर स्पष्ट नहीं हो पाया था। ये दोनों क्षेत्र घुले- मिले काम कर रहे थे। यह भी स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए कि ज्योतिष की बात करने वाले दिग्गज भी अपने समय में खगोल की गणनाएं तो कर ही रहे थे। अच्छी तरह तो यह यंत्रों के आविष्कार और न्यूटन के नियमों के बाद ही स्थापित हुआ कि निर्जीव पिंड गुरुत्वीय (भौतिक) प्रभाव ही डाल सकते हैं मानसिक क्रियाकलापों में दखल नहीं दे सकते ।ज्योतिष अन्य वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में भी असफल रही। एक्यूरेट प्रिडिक्शंस, सटीक भविष्यवाणी में यह खरी नहीं उतरी। एक और रोचक छद्मविज्ञान की बात करते हैं। आपने कीमियागिरी ( Alchemy) के बारे में सुना होगा ।आधुनिक विज्ञान युग से पहले यह बहुत चर्चा में रही। इसमें सस्ते धातुओं जैसे सीसा, पारा आदि को सोने में बदलने के प्रयोग शामिल थे। बहुत से लोगों का मानना था कि अच्छे जानकार कीमियागिर इस विधि में पारंगत होते हैं। वे इस बारे में रासायनिक परीक्षण करते रहते थे। आज यह सिद्ध हो चुका है कि यह एक छद्मविज्ञान था ।रासायनिक क्रियाओं द्वारा यह संभव नहीं। लेकिन दिलचस्प बात तो यह है कि इनकी प्रक्रियाओं से रसायन विज्ञान एक विशुद्ध विज्ञान के रूप में विकसित हो गया। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि उनका यह मौलिक विचार तो था ही। एक धातु दूसरे धातु में बदला तो जा ही सकता है ।आज हम जानते हैं कि यदि किसी तत्व का परमाणु क्रमांक बदल दिया जाए तो तत्व बदल जाएगा ।
आज तो उच्च स्तर की भौतिकी यह कर सकती है। लेकिन उस दौर में न तो यह परिकल्पना ( परमाणु सिद्धांत)ही विकसित हुई थी और न ही परमाणु सिद्धांत इतने विकसित हुए थे ।और न ही इतनी बड़ी ऊर्जा के स्रोत व तरीके उपलब्ध थे कि परमाणु क्रमांक बदला जा सके।कई बार हम कह देते हैं कि कुछ- न- कुछ बात तो होगी ही ।इस वाक्य के द्वारा यह ठहराए जाने की कोशिश की जाती है कि इसे पूरी तरह नकारा न जाए ।यद्यपि विज्ञान भी सचेत है कि छद्मविज्ञान रूपी कूड़े के ढेर में कहीं कुछ भी विज्ञान का अंश यदि मिलता है तो फेंका न जाए। परंतु यह छलनी का काम बहुत मुश्किल है। यदि ऐसा कुछ मिल जाता है तो इसे प्रोटोसाइंस का नाम दिया जाता है ।इस पर और ज्यादा प्रयोग व परीक्षण किए जाते हैं। अत्यधिक वैज्ञानिक परीक्षणों में से गुजरते रहने के बाद यदि यह प्रोटोसाइंस है तो विज्ञान में विकसित हो जाएगी अन्यथा यह छद्मविज्ञान के रूप में ठहरा हुआ सड़ा हुआ पानी जैसा ही रह जाएगा। आओ, हम परामनोविज्ञान पर बात करते हैं। किसी दूर बैठे व्यक्ति के विचारों को पढ़ना और उससे संप्रेषण करना (टेलीपैथी ),मानसिक शक्ति से दूर रखी भौतिक वस्तुओं को हिलाना- डुलाना (साइको काइनेटिक पावर) आदि इसमें आते हैं। वैज्ञानिक J B Rhine ने इस बारे में बहुत बड़े-बड़े दावे किए और इसे स्थापित करने के बहुत प्रयास एवं यहां तक कि प्रयोग भी किये। लगभग तीन- चार दशक तक वैज्ञानिक भी बहुत उलझन में रहे। आखिर में इनका पर्दाफाश हुआ ।इसे स्थापित करने के लिए जो आंकड़े जुटाए गए थे उनमें अटकलबाजियां की गई थी ।यह आधुनिक युग की ही बात है ।अंडर फ्रॉड प्रूफ कंडीशंस इसके प्रयोग दोहराए नहीं जा सके। इसके अंतर्गत किए जाने वाले सभी क्रियाकलाप भौतिक रूप में मान्य टेस्ट पास नहीं कर सके। अंकविज्ञान ,हस्तरेखा विज्ञान, यूफोलॉजी (यह कहना कि अन्य ब्रह्मांडीय पिंडों के वासी पृथ्वी पर आते -जाते रहे हैं) आदि सभी छद्मविज्ञानों की श्रेणी में आते हैं।
एक और शब्दावली है फ्रिंज साइंस ।कुछ वैज्ञानिक ऐसे हैं जो मुख्य धारा के विज्ञान से एकदम अलग हटकर कल्पना की ऊंचाइयों पर जाकर कुछ खोजने की बात करते हैं। ये प्रायः विवादित सिद्धांतों तक ही पहुंचाते हैं ।हम इन्हें नकारने की जल्दबाजी भी नहीं करते और पूरी तरह स्वीकारते भी नहीं। यद्यपि विज्ञान में कल्पना कोई बुरी बात नहीं है ।ये इन खोजों के लिए सत्तामीमांसा (Ontology) से प्रभाव ग्रहण करते हैं। महा धमाके का सिद्धांत( बिग बैंग), ब्लैक होल, समांतर विश्वों का अस्तित्व आदि फ्रिंज साइंस के उदाहरण है। सकारात्मक बात तो यह है कि ये इमानदारी से रेशनल खोजने की कोशिश करते हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इनमें विरोधाभास इतने ज्यादा होते हैं कि हम निर्णय पर पहुंच ही नहीं सकते। हमें इन्हें छद्म विज्ञानों की श्रेणी में नहीं रखना चाहिए। इस प्रकार के सत्तामीमांसीय प्रश्नों के अंतिम उत्तर या सर्वसम्मत उत्तर शायद जल्दी नहीं मिले ।एक और महत्वपूर्ण बात आती है कि अपरंपरागत विज्ञान की दुनिया भी एक अजीब दुनिया है। यह main stream के विज्ञान से थोड़ा हटकर है ।कुछ व्यक्ति इसे विज्ञान से विचलन करार देते हैं ।एक सामान्य व्यक्ति के लिए इसे स्वीकार या अस्वीकार करना कठिन होता है ।यहां हमें साइंटिफिक डोगमेटिज्म से सावधान रहने की जरूरत है। यह एक प्रकार का विज्ञानवाद होता है। यह भी उतना ही खतरनाक है जितना की छद्मविज्ञान ।कुछ बातों को हमें भविष्य के लिए भी छोड़ देना चाहिए ।यह विज्ञानवाद वैज्ञानिकों के लिए ज्यादा हानिकारक है आम व्यक्तियों के लिए छद्मविज्ञान ज्यादा हानिकारक है ।बुद्धिजीवियों के लिए यह जरूरी है कि वे अंधविश्वास /छद्मविज्ञान/ विज्ञान विरोधी बातों को सुधारने में कम समय लगायें, इनको पूरी तरह से नकारें ।ये हर तरह से बौद्धिक वायरस हैं। ये बौद्धिकों को भी अपनी लपेट में ले लेते हैं।
अंत में यदि आपको सोना (गोल्ड)अर्थात विज्ञान चाहिए तो आपको इसके पहचान के कठिन परीक्षणों को समझना भी आना चाहिए ।अपनी संस्कृति में चमकने व ललचाने वाली अनेक बातें शामिल है। वैसे भी बहुत लंबा समय मानवजाति ने मिलावटी सोने के साथ भी गुजारा तो है ही।
(लेखक हरियाणा के वरिष्ठ विज्ञान लेखक एवं विज्ञान संचारक हैं तथा हरियाणा विज्ञान मंच से जुड़े हैं )