विकास शर्मा
डॉ प्रफुल्लचंद्र राय को भारत के में रसायन उद्योग की शुरुआत करने वाले पहले उद्यमी थे. उनकी स्थापित की गई बंगला कैमिकल्स फार्मास्युटिकल्स वर्कर्स कंपनी आज करोड़ों का मुनाफा करती है. उन्हें भारत में दवा उद्योग का पिता भी माना जाता है. उन्होंने दॆश मे पहले आधुनिक रसायनशोध विद्यालय की स्थापाना की थी और उन्हें भारतीय रसायनशास्त्र का जनक कहा जाता है.
आधुनिक भारत के इतिहास में आजादी की लड़ाई के नायक तो बहुत हैं, लेकिन 2 अगस्त को देश के ऐसे नायक की जयंती है जो देश और देशवासियों के लिए सेवा के एक अनूठी मिसाल बन गए थे. डॉक्टर प्रफुल्ल चंद्र रे देश के पहले पहले प्रोफसर या प्रथम भारतीय प्राध्यापक ही नहीं थे बल्कि उन्होंने ही देश में रसायन उद्योग की नींव डाली थी. वे एक वैज्ञानिक और उद्यमी होने के साथ साथ इतिहासकार, शिक्षक, शिक्षाविद, परोपकारी, आदि बहुत कुछ थे. उनकी सादगी और व्यक्तित्व से महात्मा गांधी भी बहुत प्रभावित थे. उन्हें दुनिया भी रसायन शास्त्र की दुनिया में आदर स्वरूप देखती है और उन्हें भारत के रसायन शास्त्र का पिता भी कहा जाता है.
पिता के स्कूल में हुई पढ़ाई की शुरुआत
आचार्य राय के नाम से मशहूर डॉ प्रफुल्ल चंद्र राय का जन्म 2 अगस्त 1861 को बंगाल के खलुना जिले के ररूली कतिपरा गांव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था. पिता श्रीहरीशचंद्र राय फारसी के विद्वान थे. उन्होंने अपने गांव में एक मॉडल स्कूल की स्थापना की थी. जहां प्रफल्लचंद्र राय की भी पढ़ाई हुई थी. बाद में परिवार के कलकत्ता आने पर वे पहले हेयर स्कूल और फिर एल्बर्ट स्कूल में पढ़े.
कॉलेज में विज्ञान की रुचि
1879 में मेट्रॉपालिटन इंस्टिट्यूट में प्रवेश परीक्षा पास करके उन्होंने कालेज की पढ़ाई शुरू की जहां विज्ञान के विषयों का अध्ययन करने के लिये उन्हें प्रेसिडेंसी कालेज जाना पड़ता था. यहां इन्होंने भौतिकी और रसायन के सुप्रसिद्ध विद्वान् सर जॉन इलियट और सर ऐलेक्जैंडर पेडलर से शिक्षा हासिल की. यहीं से इनकी विज्ञान में गहरी दिलचस्पी पैदा हुई.
इंग्लैंड में आगे की पढ़ाई
1882 में प्रफुल्ल राय गिल्क्राइस्ट छात्रवृत्ति प्रतियोगिता की परीक्षा में सफल हुए जिससे उन्हें विदेश जाकर पढ़ने का मौका मिला. एडिनबरा विश्वविद्यालय प्रफुल्लचंद्र ने छह साल तक अध्ययन किया. जहां उन्हें प्रोफेसर जेम्स वॉकर एफ आर एस, एलेक्जेंडर स्मिथ, और हफ मार्शल जैसे सहपाठी मिले और यहीं पर उनका रुझान रसायन शास्त्र की ओर बढ़ने लगा.
भारत में वापसी के बाद भी संघर्ष
एडिनबरा विश्वविद्यालय में प्रफुल्लचंद्र राय यूनिवर्सिटी की केमिकल सोसायटी के उपसभापति भी चुने गए और 1887 में डीएससी की परीक्षा पास कर इंडियन एज्युकेशनलव सर्विस में प्रवेश पाने के प्रयास किए किंतु रंगभेद के कारण उन्हें सफलता नहीं मिली. भारत वापस आकर भी उन्हें प्रांतीय शिक्षा विभाग में नौकरी हासिल करने के लिए एक साल का इंतजार करना पड़ा. जिसके बाद उन्हें प्रेसिडेंसी कॉलेज में सहायक प्राध्यापक के सामान्य पद पर नियुक्ति मिली.
एक ताने किया प्रेरित
जिस प्रेसिडेंसी कालेज कॉलेज में डॉ राय की नियुक्ति हुई थी उसी पर कई अंग्रेज कम योग्यता के बाद भी अधिक ऊंचे पदों और वेतन पर नियुक्त थे. उन्होंने इस अन्याय का विरोध करना शुरु किया तो उनके अंग्रेज डायरेक्टर ने उन पर तंज कसा कि यदि आप इतने ही योग्य हैं तो कोई व्यवसाय क्यों नहीं चलाते. यह बात डॉ रॉय को इतनी चुभी कि उन्होंने आगे चल कर स्वयं के ही प्रयासों से बंगाल कैमिकल्स एंड फार्मास्युटिकल वर्कर्स का का शुरु किया जिसमें विदेशी ढंग से दवाइयां तैयार होती थी.
इतिहास से भी लगाव था डॉ राय को
डॉ राय को रसायन के अलाव इतिहास से बहुत लगाव था. उन्हें ‘नाइट्राइट्स का मास्टर’ कहा जाता है. उन्होंने 10-12 साल तक गहन अध्ययन कर हिंदू रसायन का इतिहास नामक ग्रन्थ लिखा, जिससे उन्हें बहुत शोहरत मिली और इस किताब से देश और विदेश के वैज्ञानिकों को प्राचीन भारत के विलुप्त से हो चुके विशिष्ट रसायन विज्ञान का ज्ञान हुआ.इस पुस्तक के अनुवाद यूरोप की कई भाषाओं में प्रकाशित हुए हैं तथा इसी पुस्तक के उपलक्ष्य में डरहम विश्वविद्यालय द्वारा डॉ रॉय को डी. एस-सी. की उपाधि से भी सम्मानित किया गया.
‘सादा जीवन उच्च विचार’ वाले उनके बहुआयामी व्यक्तित्व से प्रभावित होकर महात्मा गांधी ने कहा था, “शुद्ध भारतीय परिधान में आवेष्टित इस सरल व्यक्ति को देखकर विश्वास ही नहीं होता कि वह एक महान वैज्ञानिक हो सकता है. ” डॉ राय की आत्मकथा “लाइफ एण्ड एक्सपीरियेंसेस ऑफ बंगाली केमिस्ट” के प्रकाशित होने पर अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका “नेचर” ने उनके सम्मान में लिखा था कि “लिखने के लिए शायद प्रफुल्ल चन्द्र राय से अधिक विशिष्ट जीवन चरित्र किसी और का हो ही नहीं सकता. 83 साल की उम्र में 16 जून 1944 को डॉ राय का निधन हो गया था.