राष्ट्रीय बालिका दिवस की इस साल की थीम है, ‘सुनहरे भविष्य के लिए बच्चियों का सशक्तीकरण’। जाहिर है कि जब तक बच्चियां सशक्त नहीं होंगी तक तक उनका भविष्य सुनहरा नहीं हो सकता। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 (एनएचएफएस 2019-21) के आंकड़ों के अनुसार, देश में 18 से 24 आयु वर्ग की 23.3 प्रतिशत लड़कियों का बाल विवाह हो जाता है।

हर साल 24 जनवरी को मनाए जाने वाले राष्ट्रीय बालिका दिवस का उद्देश्य बच्चियों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना और शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण में लैंगिक भेदभाव को खत्म करते हुए उन्हें बराबरी के अवसर मुहैया कराना है। राष्ट्रीय बालिका दिवस की इस साल की थीम है, ‘सुनहरे भविष्य के लिए बच्चियों का सशक्तीकरण’।

जाहिर है कि जब तक बच्चियां सशक्त नहीं होंगी तक तक उनका भविष्य सुनहरा नहीं हो सकता। लेकिन सशक्तीकरण के सपने को पूरा करने के लिए हमें सबसे पहले बच्चियों के समक्ष मौजूद चुनौतियों की पहचान करनी होगी और उसके बाद ही इसके निदान के उपायों को मिली सफलता का आकलन किया जा सकता है।अगर चुनौतियों की बात करें तो देश इस बात से अभी भी बेखबर है कि बच्चियों के सामने बाल-विवाह एक बड़ी समस्या है जो उनके शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और आर्थिक स्वालंबन के रास्ते बंद कर देता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 (एनएचएफएस 2019-21) के आंकड़ों के अनुसार, देश में 18 से 24 आयु वर्ग की 23.3 प्रतिशत लड़कियों का बाल विवाह हो जाता है।

दरअसल, पश्चिम बंगाल, बिहार और त्रिपुरा जैसे राज्यों में बाल विवाह की दर 40 प्रतिशत से भी अधिक है जबकि असम और झारखंड ज्यादा पीछे नहीं हैं। बाल-विवाह महिलाओं की श्रम बल में भागीदारी नहीं होने के पीछे सबसे बड़ा कारण है। बाल-विवाह बच्चों से बलात्कार के अलावा कुछ भी नहीं है।

भारत के सुप्रीम कोर्ट का भी कहना है कि 18 वर्ष से कम उम्र की बच्ची के साथ वैवाहिक संबंधों में यौन संबंध बनाने को भी बलात्कार माना जाएगा। दूसरी सबसे बड़ी समस्या है बच्चियों को यौन शोषण और ट्रैफिकिंग का शिकार होने से बचाने की। ड्रग्स और हथियारों के बाद मानव ट्रैफिकिंग दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा संगठित अपराध है। मासूम बच्चियों को प्रेमजाल में फंसा कर, उन्हें शादी का झांसा देकर या उनके परिजनों को इन बच्चियों को नौकरी दिलाने का सब्जबाग दिखाकर बड़े शहरों में लाया जाता है। इन बच्चियों को या तो बेच दिया जाता है या उन्हें वेश्यावृत्ति या

बंधुआ मजदूरी में धकेल दिया जाता है। प्लेसमेंट एजेंसियां भी रोजगार दिलाने की आड़ में इन ट्रैफिकिंग गिरोहों की मददगार हो गई हैं।
तीसरी सबसे बड़ी समस्या है बच्चियों का यौन शोषण रोकना। यौन शोषण की शिकार बच्चियों के प्रति अभी भी समाज में अपेक्षित संवेदनशीलता की कमी है। थाने में मामला दर्ज करने में होने वाली परेशानी और फिर अदालतों में तारीख पर तारीख से पीड़ित बच्चियां टूट जाती हैं।

समाज भी अक्सर उन्हीं पर उंगली उठाता है। इन्हें समाज की मुख्य धारा में लाने के प्रयासों में भी काफी हद तक कमी है। इसके अलावा ऑनलाइन यौन शोषण एक महामारी बन कर उभरा है। बच्चों का ऑनलाइन यौन शोषण एक ऐसा अपराध है जिसे राष्ट्रों की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। सबसे बड़ी बात यह है कि आंकड़ों से इस अपराध की भयावहता का पता नहीं चलता, क्योंकि इनमें से ज्यादातर मामलों की जानकारी बाहर नहीं आ पाती।
लेकिन मानना होगा कि पिछले कुछ वर्षों में इन मोर्चों पर भारत में जितने कदम उठाए गए हैं, उतने किसी और देश में नहीं। खास तौर से बीते साल कई न्यायिक फैसले ऐसे आए और सरकार ने कुछ ऐसे कदम उठाए जिसके दूरगामी परिणाम होंगे।

देश में बाल-विवाह, बाल श्रम, बच्चों की ट्रैफिकिंग और ऑनलाइन यौन शोषण के खिलाफ देश के 26 राज्यों के 416 जिलों में काम कर रहे 250 गैरसरकारी संगठनों के नेटवर्क ‘जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रेन’ के सहयोगियों की अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट ने बाल विवाह पर न सिर्फ ऐतिहासिक फैसला सुनाया बल्कि इसकी रोकथाम के लिए एक समग्र कार्ययोजना की जरूरत पर भी जोर दिया।
बाल-विवाह एक जटिल समस्या है और इसके लिए सभी स्तरों पर और सभी हितधारकों के साथ मिलकर काम करने की जरूरत है। इस फैसले के बाद भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने 27 नवंबर को देशव्यापी ‘बाल विवाह मुक्त भारत’ अभियान शुरू किया। यह अभियान अब तक 25 करोड़ लोगों तक पहुंच चुका है।

बच्चों की ट्रैफिकिंग और बाल मजदूरी की रोकथाम के लिए भी सरकार तमाम प्रयास कर रही है। कड़े कानून बनाए गए हैं और मुक्त कराए गए बाल मजदूरों के पुनर्वास के उपाय भी  मौजूद हैं। सवाल सिर्फ यह है कि इन पर कितनी ईमानदारी से अमल हो रहा है? भारतीय रेल ट्रैफिकिंग की जीवनरेखा है और आम तौर पर ट्रैफिकिंग गिरोह बच्चों को ले जाने के लिए इसी का प्रयोग करते हैं। इसकी रोकथाम के लिए रेलवे पुलिस फोर्स (आरपीएफ) को प्रशिक्षित किया गया है और इसकी सतर्कता से बच्चों की ट्रैफिकिंग पर काफी हद तक लगाम लगी है।  
हालांकि, हैवानियत की शिकार बच्चियों को शीघ्रता से न्याय दिलाने के लिए अभी काफी कुछ करना शेष है। इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन की पिछले साल ही जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, जहां पूरे देश की अदालतों में बलात्कार व पॉक्सो के मामलों के निपटारे की दर 2022 में सिर्फ 10 प्रतिशत थी, वहीं इन विशेष त्वरित अदालतों में यह दर 83 प्रतिशत रही जो 2023 में बढ़कर 94 प्रतिशत तक पहुंच गई। लेकिन इन विशेष त्वरित अदालतों में 2,02,175 मामले लंबित हैं।
रिपोर्ट बताती है कि अगर इनमें एक भी नया मामला नहीं जोड़ा जाए तब भी इन लंबित मामलों के निपटारे में अनुमानित तीन साल का समय लगेगा। अगर ये सभी लंबित मामले निपटाने हैं तो देश में तत्काल एक हजार नई विशेष त्वरित अदालतों के गठन के अलावा यह भी सुनिश्चित करने की जरूरत है कि मौजूदा सभी 1023 विशेष अदालतों में कामकाज सुचारू जारी रहे। फिलहाल सिर्फ 755 अदालतों में ही कामकाज हो रहा है।
जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रेन की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा- इसके अलावा शीर्ष अदालत ने अगस्त 2024 में एक फैसले में सभी राज्यों व केंद्रशासित क्षेत्रों को यौन शोषण के पीड़ित बच्चों की सहायता के लिए अनिवार्य रूप से सपोर्ट पर्सन की नियुक्ति के आदेश दिए। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि जब तक इन बच्चों को यह महसूस नहीं कराया जाता कि वे सुरक्षित हैं, उन्हें समाज की मुख्य धारा में नहीं लाया जाता और उनकी गरिमा की बहाली नहीं हो जाती, तब तक ये नहीं माना जा सकता कि इन बच्चों के साथ न्याय हुआ है। यह निस्संदेह एक बहुत बड़ा बयान और दूरगामी फैसला है।
जाहिर है कि सरकारें और न्यायपालिका बच्चियों की सुरक्षा व उनके कल्याण के प्रति संवेदनशील हैं लेकिन स्थानीय स्तर पर जागरूकता का अभाव है। सबसे बड़ी जरूरत गांवों, कस्बों और सुदूर इलाकों में लोगों को जागरूक करने की है। सरकार और नागरिक संगठन सभी हितधारकों के साथ इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं। इसके नतीजे भी दिख रहे हैं लेकिन अभी भी बचिचियों का भविष्य सुरक्षित करने की दिशा में बहुत कुछ किया जाना बाकी है। तभी ‘सुनहरे भविष्य के लिए बच्चियों के सशक्तीकरण’ का सपना आकार ले पाएगा। इसकी शुरुआत बच्चियों की शिक्षा व सुरक्षा सुनिश्चित कर की जा सकती है। यह तभी संभव होगा जब कानूनों व योजनाओं पर ईमानदारी से अमल हो और चूक व लापरवाही की जवाबदेही तय की जाए।

चाइल्ड पोर्नोग्राफी यानी बच्चों के अश्लील वीडियो डाउनलोड करना और उन्हें देखना यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम और सूचना तकनीक कानून के तहत अपराध है। शीर्ष अदालत ने सरकार को यह भी निर्देश दिया कि वह पॉक्सो कानून में “चाइल्ड पोर्नोग्राफी” की जगह “चाइल्ड सेक्सुअल एक्सप्लायटेटिव एंड एब्यूज मैटीरियल (सीएसईएएम)” शब्द का इस्तेमाल करे ताकि जमीनी हकीकत और इस अपराध की गंभीरता एवं इसके विस्तार को सही तरीके से परिलक्षित किया जा सके। इस बदलाव का नतीजा ये है कि चाइल्ड पोर्नोग्राफी को अब वयस्कों के मनबहलाव के तौर पर नहीं बल्कि अब एक ऐसे गंभीर अपराध के तौर पर देखा जाएगा जिसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

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