ललित मौर्य
जर्नल लैंसेट प्लैनेटरी हैल्थ में प्रकाशित एक नई रिसर्च से पता चला है कि दुनिया की केवल 0.001 फीसदी आबादी ही सुरक्षित हवा में सांस ले रही है। जहां प्रदूषण का वार्षिक औसत स्तर पांच माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से कम है। मतलब की भारत सहित दुनिया की ज्यादातर आबादी ऐसी हवा में सांस लेने को मजबूर है जो उसे हर दिन बीमार कर रही है।
गौरतलब है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने पीएम 2.5 के लिए पाँच माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर का मानक तय किया है। डब्लूएचओ के अनुसार इससे ज्यादा दूषित हवा में सांस लेने से बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है। इस तरह देखें तो दुनिया के केवल 0.18 फीसदी हिस्से में वायु गुणवत्ता का स्तर इससे बेहतर है।
वहीं दुनिया का 99.82 फीसदी हिस्सा पीएम 2.5 के उच्च स्तर के संपर्क में है। वैज्ञानिकों के मुताबिक हवा में मौजूद प्रदूषण के यह महीन कण फेफड़ों के कैंसर से लेकर सांस संबंधी बीमारियों और हृदय रोग की वजह बन सकते हैं।
मोनाश विश्वविद्यालय द्वारा किया गया यह अपनी तरह का पहला अध्ययन है जिसमें वैश्विक स्तर पर दैनिक आधार पर प्रदूषण के महीन कणों यानी पीएम 2.5 के स्तर का अध्ययन किया गया है। 2000 से 2019 तक के लिए जारी आंकड़ों को देखें तो इस दौरान पीएम 2.5 का वार्षिक औसत स्तर 32.8 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर था।
दक्षिण एशिया में साल के 90 फीसदी दिनों में हानिकारक थी हवा
रिपोर्ट से पता चला है कि दक्षिणी और पूर्वी एशिया में वायु गुणवत्ता विशेष रूप से चिंताजनक है, जहां 90 फीसदी से अधिक दिनों में पीएम 2.5 की मात्रा 15 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ज्यादा दर्ज की गई थी, जोकि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय मानकों से तीन गुणा थी। वहीं यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो पीएम 2.5 के स्तर में मामूली कमी आने के बावजूद 2019 में 70 फीसदी से ज्यादा दिनों में पीएम 2.5 का स्तर 15 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ज्यादा था।
खास बात यह रही कि जहां यूरोप और उत्तरी अमेरिका में पिछले दो दशकों के दौरान वायु गुणवत्ता के दैनिक स्तर में सुधार देखा गया। वहीं दूसरी तरफ दक्षिणी एशिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण अमेरिका और कैरिबियन क्षेत्र में पीएम 2.5 के स्तर में वृद्धि आई है।
अपने इस अध्ययन में मोनाश विश्वविद्यालय से जुड़े प्रोफेसर युमिंग गुओ के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने पिछले दशकों में पीएम 2.5 के स्तर में आए बदलावों का एक मैप भी तैयार किया है, जिससे आने वाले बदलावों को समझा जा सके। इस अध्ययन में पीएम 2.5 के स्तर का सटीक आंकलन करने के लिए शोधकर्ताओं ने पारंपरिक वायु गुणवत्ता निगरानी स्टेशनों के साथ-साथ उपग्रहों, वायु प्रदूषण डिटेक्टरों और मशीन लर्निंग की भी मदद ली है।
रिसर्च के जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनके अनुसार ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में 2019 के दौरान उन दिनों की संख्या में वृद्धि हुई है जब पीएम 2.5 का स्तर सुरक्षित सीमा से ज्यादा था।
आंकड़ों के मुताबिक पूर्वी एशिया में इन दो दशकों के दौरान पीएम 2.5 का औसत वार्षिक स्तर सबसे ज्यादा 50 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर दर्ज किया गया। वहीं इसके बाद दक्षिण एशिया में यह 37.2 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर जबकि उत्तरी अफ्रीका में 30.1 माइक्रोग्राम प्रति घन तक पहुंच गया था।
वहीं ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में वार्षिक औसत पीएम 2.5 का स्तर 8.5 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर, ओशिनिया के अन्य क्षेत्रों में 12.6 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर, और दक्षिणी अमेरिका में 15.6 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर दर्ज किया गया था।
प्रोफेसर गुओ के अनुसार, पीएम 2.5 का असुरक्षित औसत स्तर अलग-अलग मौसमी पैटर्न को भी दर्शाता है। जहां उत्तर भारत और पूर्वी चीन में सर्दियों के दौरान (दिसंबर, जनवरी और फरवरी) में पीएम 2.5 का स्तर जानलेवा था। वहीं उत्तरी अमेरिका के पूर्वी हिस्सों में गर्मियों के दौरान जून, जुलाई और अगस्त में इसका औसत स्तर ज्यादा दर्ज किया गया था। इसी तरह दक्षिण अमेरिका में अगस्त और सितंबर के दौरान जबकि उप-सहारा अफ्रीका में जून से सितंबर के बीच वायु गुणवत्ता खराब थी।
अध्ययन के बारे में उनका कहना है कि इस जानकारी के साथ, नीति निर्माता, सार्वजनिक स्वास्थ्य अधिकारी और शोधकर्ता वायु प्रदूषण के अल्पकालिक और दीर्घकालिक स्वास्थ्य प्रभावों का बेहतर आकलन कर सकते हैं। साथ ही वायु प्रदूषण को रोकने के लिए प्रभावी रणनीति विकसित कर सकते हैं।
भारत में वायु गुणवत्ता की ताजा जानकारी आप डाउन टू अर्थ के एयर क्वालिटी ट्रैकर से भी प्राप्त कर सकते हैं।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ पत्रिका से साभार )