डी एन एस आनंद
जन जन तक विज्ञान पहुंचाने एवं लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा लोकतांत्रिक चेतना के विकास एवं विस्तार के लिए प्रतिबद्ध साइंस फॉर सोसायटी, झारखंड द्वारा वैज्ञानिक चेतना अभियान के तहत जारी ऑनलाइन परिचर्चा “राष्ट्रीय युवा-संवाद” की 9वीं कड़ी का आयोजन 13 अक्टूबर रविवार को संपन्न हो गया। उल्लेखनीय है कि 21वीं सदी के मौजूदा दौर में भी जब विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विकास की गति बहुत तेज है। वैश्वीकरण, उदारीकरण एवं बाजारीकरण ने दुनिया की तस्वीर बदल कर रख दी है। भारत ने चंद्र मिशन, गगनयान जैसे तकनीकी मिशन की सफलता के साथ विश्व में अपनी खास पहचान बनाई है वहीं यहां पर अब भी दकियानूसी सोच, कुरीति, पाखंड, रूढ़िवादी परम्पराएं , मूढ़ मान्यताएं, अंधश्रद्धा, अंधविश्वास का बोलबाला है तथा सत्ता, व्यवस्था बाजारवाद एवं धर्म के ठेकेदारों द्वारा उसे खुलकर बढ़ावा दिया जा रहा है। मौजूदा दौर में, जब अवैज्ञानिक सोच, धर्मांधता, संकीर्णता, असहिष्णुता, नफरत और हिंसा को शीर्ष स्तर पर प्रोत्साहित किया जा रहा हो स्थिति की भयावहता को आसानी से समझा जा सकता है। ऐसे परिदृश्य में लोगों में वैज्ञानिक चेतना के विकास एवं विस्तार के लिए ऑल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क के आह्वान पर साइंस फॉर सोसायटी, झारखंड ने खास पहल कर जन संवाद को आगे बढ़ाया तथा वैज्ञानिक चेतना पर ऑनलाइन राष्ट्रीय परिचर्चा की श्रृंखला की शुरूआत की। इसके तहत अब तक वैज्ञानिक चेतना से संबद्ध विभिन्न प्रमुख विषयों पर ऑनलाइन परिचर्चा की 8 कड़ियां आयोजित की जा चुकी हैं तथा यह उसकी 9वीं कड़ी थी। आयोजन में जनवादी लेखक संघ झारखंड की भी सहभागिता रही है। परिचर्चा का विषय था- “संविधान का 75वां साल और हिंदी प्रदेशों में तर्कशील आंदोलन का सवाल”
कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ अली इमाम खां (प्रमुख शिक्षा विद एवं विज्ञान संचारक) अध्यक्ष, साइंस फॉर सोसायटी झारखंड ने की जबकि समन्वयन एवं संचालन डी एन एस आनंद, महासचिव साइंस फॉर सोसायटी झारखंड ने किया। वक्ता पैनल में शामिल थे – डॉ महेंद्र प्रताप सिंह जनवादी लेखक संघ वाराणसी उत्तरप्रदेश, विश्वास मेश्राम, अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ विज्ञान सभा, जसवंत सिंह मोहाली, तर्कशील सोसायटी पंजाब, गुरमीत अम्बाला, तर्कशील सोसायटी हरियाणा तथा इ. सुनील सिंह विज्ञान संचारक पटना, बिहार। हालांकि अपरिहार्य कारणों से विश्वास मेश्राम जी की भागीदारी मुमकिन नहीं हो पाई।
साइंस फॉर सोसायटी झारखंड के महासचिव डी एन एस आनंद ने विषय प्रवेश करते हुए वैज्ञानिक चेतना अभियान के तहत जारी इस राष्ट्रीय परिचर्चा की खास पृष्ठभूमि की चर्चा की। उन्होंने सभी प्रतिभागियों का स्वागत तथा वक्ता पैनल के सदस्यों का परिचय कराते हुए कहा कि यह भारतीय संविधान का 75वां वर्ष है तथा साइंस फॉर सोसायटी झारखंड इसे वैज्ञानिक चेतना वर्ष के रूप में मना रही है। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 51ए (एच) की चर्चा करते हुए कहा कि संविधान ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास को नागरिकों का मौलिक कर्तव्य निरूपित किया है। पर आजादी के 75 वर्षों के बाद भी समाज में अवैज्ञानिक सोच, अंधश्रद्धा, अंधविश्वास, कुरीति एवं पाखंड का बोलबाला जारी है तथा इस मामले में देश के हिन्दी प्रदेशों की स्थिति और भी बदतर है। ऐसे में समाज को इससे मुक्त कराने के लिए और अधिक सामूहिक प्रयास करने एवं वैचारिक संघर्ष चलाने की जरूरत है ताकि तर्कशील, वैज्ञानिक दृष्टिकोण संपन्न, सभी प्रकार के भेदभाव, शोषण उत्पीड़न से मुक्त समतामूलक समाज एवं देश का निर्माण किया जा सके।
गुरमीत अम्बाला, हरियाणा
चर्चा की शुरुआत करते हुए पिछले करीब तीन दशक से तर्कशील आंदोलन से संबद्ध एवं तर्कशील पथ हिन्दी पत्रिका के संपादन से जुड़े, तर्कशील सोसायटी हरियाणा के गुरमीत अम्बाला ने तर्कशील आंदोलन पर राष्ट्रीय परिचर्चा के इस प्रयास को बेहद सराहनीय बताया। भारतीय संविधान में मौजूद इसके प्रावधानों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि देश में आजादी के पहले ही यह विषय सामने आ गया था, जिसे आजादी के बाद तत्कालीन नेताओं ने आगे बढ़ाया। उन्होंने बताया कि 1986 से हरियाणा में इस दिशा में काम शुरू हुआ। लेखन, प्रकाशन के साथ ही तर्कशील मेला, सेमिनार, स्कूलों में मैजिक का प्रदर्शन, तथाकथित ‘चमत्कारी’ ढोंगी बाबाओं का पर्दाफाश, उन्हें खुला चैलेंज समेत विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। जिसके जरिए तर्कशील आंदोलन का संदेश लाखों लोगों तक पहुंचा। हरियाणा में जादू-टोना, झाड़-फूंक के विरुद्ध जारी मुहिम में प्रभावित लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी ध्यान दिया जाता है। लोगों के इससे संबंधित सवालों के जबाव भी दिए जाते हैं। साथ ही लोगों को यह बताया जाता है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास को संविधान ने सभी नागरिकों का मौलिक कर्तव्य निरूपित किया है। इसलिए मिल जुलकर तर्कशील अभियान को आगे बढ़ाया जाना चाहिए।
जसवंत सिंह मोहाली, पंजाब
परिचर्चा के दूसरे वक्ता थे तर्कशील सोसायटी पंजाब के जसवंत सिंह मोहाली। काफी लम्बे समय से तर्कशील आंदोलन से जुड़े एवं इस मुहिम में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे श्री मोहाली ने कहा कि तर्क सहज ही मानवीय प्रवृत्ति है। बच्चे बेहद जिज्ञासु होते हैं पर उनके तर्कों सवालों का विरोध परिवार से ही शुरू हो जाता है। समाज में मौजूद अंधविश्वास की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि आज अंधविश्वास, ‘बाबावाद’ का काफी बड़ा बाजार है। लोग अपनी आर्थिक मांगों, सुविधाओं के लिए तो इकट्ठे हो जाते हैं पर अंधविश्वास के विरुद्ध नहीं। उन्होंने कहा कि खेतों में घांस-फूस तो स्वयं उग आते हैं पर फसल उगानी पड़ती है। इसी तरह लोगों में तर्कशील, वैज्ञानिक चेतना के विकास एवं विस्तार के लिए मिल जुलकर सतत प्रयास करना होगा। उन्होंने बताया कि पंजाब में 1984 में तर्कशील सोसायटी ने आकार लिया। पत्र पत्रिकाओं, किताबों के प्रकाशन प्रसारण का सिलसिला शुरू हुआ। तर्कशील चेतना के विकास से बॉडी डोनेशन जैसे कार्यक्रम को बढ़ावा मिला। स्कूलों में बच्चों के बीच वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं तर्कशील चेतना के विकास के लिए तत्संबंधी पुस्तकों का वितरण एवं विद्यार्थी चेतना परीक्षा के आयोजन का सिलसिला शुरू हुआ। अब पंजाब में इसमें काफी बड़ी संख्या में स्कूलों, बच्चों की भागीदारी होती है। इसके साथ ही बच्चों के समर कैंप का आयोजन भी किया जाता है। उन्होंने बताया कि पंजाब में तर्कशील संदेश को व्यापक बनाने के लिए तर्कशील टीवी की शुरुआत की गई। उन्होंने तर्कशील सोसायटी पंजाब की मुहिम को व्यापक बनाने पर बल देते हुए इससे अधिकाधिक संख्या में युवा पीढ़ी को जोड़ने पर बल दिया।
सुनील सिंह, पटना बिहार
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए पटना बिहार के वरिष्ठ विज्ञान संचारक एवं शिक्षा क्षेत्र से जुड़े इंजिनियर सुनील सिंह ने परिचर्चा के विषय को बेहद महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि आजादी के करीब 76 वर्षों बाद भी हिन्दी भाषी राज्यों में अंधविश्वास एवं जातिवाद का बोलबाला चिंता का विषय है। उन्होंने कहा कि कभी वैदिक संस्कृति की विसंगतियों के खिलाफ बुद्ध ने आवाज उठाई थी। तर्कशील आंदोलन के रूप में हिंदी भाषी राज्यों में भक्ति आंदोलन की भी काफी लम्बी परम्परा रही है। उन्होंने कहा कि कभी यूरोप में प्लेग के घातक प्रभाव ने वहां बौद्धिक जागरूकता को आगे बढ़ाया। जिससे वह विज्ञान की ओर आगे बढ़ा। जबकि कोरोना महामारी के दौरान भारत में अंधविश्वास फैलाने का हर संभव प्रयास किया गया। उन्होंने कहा कि आदमी तर्कशील प्राणी है, जानवर ऐसा नहीं कर सकता। लेकिन महज विज्ञान पढ़ लिख लेने से व्यक्ति में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास नहीं हो जाता। उन्होंने कहा कि यहां के अंध राष्ट्रवादी ताकतों के खिलाफ हमलोग प्रभावशाली आंदोलन नहीं कर पाए तथा जातिवाद के जहर ने यहां के समाज को काफी नुकसान पहुंचाया है। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि व्यक्ति में, कथनी एवं करनी में एकरूपता तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण का होना बेहद जरूरी है तथा हमें समसामयिक, ज्वलंत, जन मुद्दों पर खामोश रहने के बजाए सामाजिक विसंगतियों से टकराना पड़ेगा ताकि अवैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने वाली प्रतिगामी ताकतों को परास्त किया जा सके।
डॉ महेंद्र प्रताप सिंह, उत्तरप्रदेश
अगले वक्ता थे जनवादी लेखक संघ वाराणसी उत्तरप्रदेश से जुड़े डॉ महेंद्र प्रताप सिंह। उन्होंने कहा कि विज्ञान पढ़ना-पढ़ाना एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण होना दोनों अलग-अलग बात है। तार्किक दृष्टिकोण मानता है कि लौकिक घटनाओं के कारण भी लौकिक होते हैं, पारलौकिक नहीं। गरीबी-अमीरी, सभी प्रकार की गैर-बराबरी, भेदभाव शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, लूट, शोषण, उत्पीड़न, पर्यावरण प्रदूषण, कुपोषण जैसी समस्याएं पूरी तरह लौकिक हैं। जाहिर है इसका समाधान भी यहीं होगा। समाज में कथनी और करनी का फर्क तब सामने आता है जब भूगोल का एक शिक्षक सूर्य या चंद्र ग्रहण का कारण तर्कसंगत बताता है पर खुद शुभ अशुभ के चक्कर में अतार्किक व्यवहार करता है। विज्ञान के क्षेत्र में भी ऐसा दोहरा रवैया देखने को मिलता है। उन्होंने देश के तर्कशील आंदोलन के पुरोधाओं राजाराम मोहन राय समेत अन्य प्रमुख हस्तियों को याद करते हुए कहा कि उनकी तर्कशीलता एवं संघर्ष की विरासत को हर हाल में आगे बढ़ाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि अवैज्ञानिक सोच धर्मांधता, संकीर्णता, नफरत, असहिष्णुता, कट्टरता, कुरीति पाखंड, अंधविश्वास को लेकर देश में स्थिति चाहे जितनी भयावह हो, निराश होने की जरूरत नहीं है तथा उनके खिलाफ सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों स्तर पर प्रतिरोध को मिल जुलकर आगे बढ़ाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि समाज में जहां कुछ लोग भ्रमित हैं वहीं कुछ लोग जान बूझकर भ्रम फैला रहे हैं जिनसे सावधान रहने एवं बचने की जरूरत है।
परिचर्चा में हरियाणा की शिक्षिका अनुपमा शर्मा ने भी अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने संविधान पर ही सवाल उठाते हुए कहा कि यदि सचमुच संविधान बेहतर होता तो देश की हालत ऐसी नहीं होती। नई शिक्षा नीति पर सवाल खड़े करते हुए उन्होंने कहा कि लोगों में जागरूकता की बेहद कमी है। विद्यालय का मौजूदा पाठ्यक्रम एवं परिवेश दोनों बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास एवं विस्तार में बाधक हैं तथा विद्यालय में तर्कशील शिक्षक शिक्षिकाओं की स्थिति अच्छी नहीं है। उन्होंने कहा कि मौजूदा हालात को बदलने के लिए सिर्फ बैठक नहीं बल्कि सड़क पर उतर कर संघर्ष करने की जरूरत है
अपने अध्यक्षीय भाषण में डॉ अली इमाम खां ने चारों वक्ताओं के वक्तव्य का सार संक्षेप पेश करते हुए कहा कि अंधविश्वास को जिस प्रकार सत्ता पक्ष का खुला समर्थन हासिल है यह चिंताजनक है। इसके लिए जन विमर्श को व्यापक बनाने एवं मौजूदा व्यवस्था को चुनौती देने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि देश में जन विज्ञान आंदोलन को विस्तार देने के लिए जरूरी है कि उसे लोगों की रोजी-रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आजीविका आदि के सवालों के साथ जोड़ते हुए आंदोलन को तेज किया जाए। उन्होंने कहा कि अंधविश्वास के पीछे बाजार की ताकतें हैं तथा नई शिक्षा नीति से भी अवैज्ञानिक सोच को ही बढ़ावा मिलता है। उन्होंने कहा कि संविधान की रक्षा सरकार नहीं बल्कि जनता करेगी तथा इसके लिए जन विमर्श को आगे बढ़ाने, व्यापक बनाने एवं विभिन्न जन संगठनों, सामाजिक संगठनों, संस्थानों के बीच नेटवर्किंग की जरूरत है। इस मामले में कला साहित्य, संस्कृति, नाटक फिल्म आदि.
सशक्त माध्यम के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि देश के जनवादी आंदोलन के साथ लोगों की आजीविका के सवाल को भी जोड़ना होगा तथा इसके साथ ही देश की साझी विरासत की रक्षा व साझा संघर्ष को व्यापक बनाने की जरूरत है जो एक संविधान सम्मत, तर्कशील, वैज्ञानिक दृष्टिकोण संपन्न, समतामूलक, विविधतापूर्ण, न्यायपूर्ण एवं आत्मनिर्भर भारत के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करेगा।