ललित मौर्या

हम इंसान दुनिया में बड़े पैमाने पर हो रहे कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार हैं, जो जलवायु परिवर्तन की वजह बन रहा है। हर साल वातावरण में कितना कार्बन छोड़ा जा रहा है, इस बारे में तो जानकारी उपलब्ध है, लेकिन समस्या बस इतनी ही नहीं है।

इंसानों द्वारा बनाए उत्पादों में साल दर साल कार्बन की एक बड़ी मात्रा जमा हो रही है, जो किसी टाइम बम्ब से कम नहीं। अब सवाल यह है कि इन उत्पादों में कितना कार्बन जमा हो रहा है? इस बारे में नीदरलैंड के ग्रोनिंगन विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं ने अपने नए अध्ययन में जानकारी दी है कि प्लास्टिक, इमारतों और बुनियादी ढांचे जैसी चीजों में हर साल करीब 40 करोड़ टन जीवाश्म कार्बन जुड़ रहा है।

देखा जाए तो यह उत्पाद किसी कार्बन सिंक की तरह काम कर रहे हैं, लेकिन यह एक बड़े खतरे की ओर भी इशारा है, क्योंकि यदि इन उप्तादों का उचित निपटान न किया गया तो ये पर्यावरण और जलवायु के लिए बेहद खतरनाक हो सकते हैं। ऐसे में इन्हें पर्यावरण के लिए खतरा बनने से रोकने के लिए उचित अपशिष्ट प्रबंधन आवश्यक है।

जर्नल सेल रिपोर्ट्स सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित अध्ययन में वैज्ञानिकों ने जानकारी दी है कि 1995 से 2019 के बीच 25 वर्षों में प्लास्टिक, इमारतों जैसे उत्पादों में करीब 840 करोड़ टन कार्बन जमा हो चुका है। जर्नल सेल रिपोर्ट्स सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित अध्ययन में वैज्ञानिकों ने जानकारी दी है कि 1995 से 2019 के बीच 25 वर्षों में प्लास्टिक, इमारतों जैसे उत्पादों में करीब 840 करोड़ टन कार्बन जमा हो चुका है। इसमें हर साल करीब 40 करोड़ टन की वृद्धि हो रही है।

वैज्ञानिकों ने इस बात की भी पुष्टि की है कि इसमें से अधिकांश कार्बन रबर और प्लास्टिक उत्पादों में जमा हो रहा है। वहीं इस अवधि के दौरान, करीब 370 करोड़ टन कार्बन लैंडफिल, जलाने और अन्य कचरे के माध्यम से वापस पर्यावरण में पहुंच गया है। आशंका है कि यदि इनका उचित निपटान न किया गया तो उससे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कहीं ज्यादा वृद्धि हो सकती है।

फटने को तैयार ‘कार्बन टाइम बम्ब’

अध्ययन से इस बात की भी पुष्टि हुई है 1995 से 2019 के बीच उत्पादों को बनाने के लिए कहीं ज्यादा जीवाश्म ईंधन का उपयोग किया गया। जो जीवाश्म ईंधन उपयोग के पांच फीसदी से बढ़कर सात फीसदी से अधिक हो गया है। यह तब है जब ऊर्जा के लिए जीवाश्म ईंधन का उपयोग लगातार बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों ने इस बात का भी अंदेशा जताया है कि ईंधन और सीमेंट से हो रहा कार्बन प्रदूषण 2024 में नई ऊंचाइयों पर पहुंच जाएगा।

ग्लोबल कार्बन बजट का अनुमान है कि जीवाश्म ईंधन और सीमेंट क्षेत्र से हो रहा कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन 2024 में रिकॉर्ड 3,700 करोड़ मीट्रिक टन तक पहुंच जाएगा। इस बारे में प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी देते हुए अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता क्लॉस हुबासेक ने कहा, “अब हमारे पास प्रकृति की तुलना में मनुष्यों द्वारा बनाई चीजों जैसे प्लास्टिक और इमारतों में कहीं अधिक कार्बन है, लेकिन इसके बावजूद हम इसे अनदेखा कर रहे हैं। नतीजन यह मात्रा लगातार बढ़ रही है।”

ऐसे में उनके मुताबिक इसके प्रवाह के साथ-साथ इनके भण्डार पर भी ध्यान दने की जरूरत है। बता दें कि क्लॉस ग्रोनिंगन विश्वविद्यालय में पारिस्थितिकी अर्थशास्त्री भी हैं। वैज्ञानिकों ने पुष्टि की है कि आज जीवाश्म कार्बन ‘टेक्नोस्फीयर’ में जुड़ गया है। बता दें कि यहां टेक्नोस्फीयर का मतलब मानव निर्मित सभी उत्पादों के योग से है, चाहे वे उपयोग में हो या नहीं। इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने आर्थिक क्षेत्रों से जुड़ी सामग्री के इनपुट और आउटपुट के 2011 में सार्वजनिक रूप से उपलब्ध आंकड़ों का उपयोग किया है।

इसके बाद, उन्होंने उत्पादों में मौजूद औसत कार्बन सामग्री के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों में कार्बन के प्रवाह की गणना की है। उदाहरण के लिए, प्लास्टिक में करीब 74 फीसदी जीवाश्म कार्बन होता है। इस अध्ययन में न केवल प्लास्टिक और बिटुमेन जैसे तैयार उत्पादों पर विचार किया गया, बल्कि विभिन्न उद्योगों में बने अन्य उत्पादों में इस्तेमाल होने वाले जीवाश्म कार्बन पर भी विचार किया गया है।

रिसर्च से पता चला है कि 2011 में जितना भी जीवाश्म कार्बन निकाला गया, उसका करीब नौ फीसदी टेक्नोस्फीयर में लम्बे समय तक बने रहने वाले उत्पादन में स्टोर हो गया। ऐसे में यदि यह कार्बन वातावरण में मुक्त होता है तो वो उस साल में यूरोपियन यूनियन द्वारा किए गए कुल उत्सर्जन के बराबर होता, जो करीब 380 करोड़ टन था।

उत्पादों के जीवनकाल और रीसाइकिलिंग पर ध्यान देना महत्वपूर्ण

इस कार्बन का अधिकांश हिस्सा (करीब 39 फीसदी) इमारतों और बुनियादी ढांचे में जमा हो गया। वहीं यदि उत्पादों के प्रकार के लिहाज से देखें तो सबसे ज्यादा रबर और प्लास्टिक के बने उत्पादन में स्टोर हुआ जो करीब 30 फीसदी था। इसके बाद बिटुमेन में 24 फीसदी स्टोर हुआ। बिटुमेन को सड़कों और छतों में इस्तेमाल किया जाता है। वहीं इस कार्बन का करीब 16 फीसदी मशीनों और उपकरणों में जमा हो गया।

इसके बाद टीम ने आंकड़ों का उपयोग करके अनुमान लगाया है कि 1995 से 2019 के बीच ‘टेक्नोस्फीयर’ में कितना कार्बन प्रवेश कर चुका था। उन्होंने पाया कि उस दौरान 840 करोड़ टन जीवाश्म कार्बन जोड़ा गया, जो 2019 के दौरान दुनिया में हुए कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का करीब 93 फीसदी है।

देखा जाए तो जीवाश्म कार्बन आधारित कई उत्पादों का अंत लैंडफिल या कूड़े के रूप होता है, जिन्हें नष्ट होने में दशकों से लेकर सदियों का समय लगेगा। ऐसे में इमारतों, बुनियादी ढांचे और अन्य उत्पादों के औसत जीवनकाल के आधार पर, वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि 1995 से 2019 के बीच 370 करोड़ टन जीवाश्म कार्बन का निपटान किया गया। इसमें से 120 करोड़ टन लैंडफिल में पहुंच चुका है, जबकि अन्य 120 टन को जला दिया गया। वहीं 110 करोड़ टन को रीसायकल किया गया है। बाकी बचा हुआ कूड़ा बन गया है।

यदि इसी लैंडफिल में दबा दिया जाता है तो इसका मतलब है कि यह कार्बन उसमे स्टोर हो गया। हालांकि इस तरह भी यह पर्यावरण के लिए सुरक्षित नहीं है। वहीं यदि इ से जलाया जाता है तो यह कार्बन वापस उत्सर्जित होकर वातावरण में फैल जाता है। शोधकर्ताओं का सुझाव है कि उत्पादों के जीवन काल को बढ़ाने और अधिक मात्रा में रीसाइकिलिंग करने से अपशिष्ट के रूप में पहुंचने वाले जीवाश्म कार्बन को कम किया जा सकता है। साथ ही शोधकर्ताओं ने लैंडफिल से निकलने वाले कचरे को सीमित करने के लिए नीतियों की आवश्यकता पर भी जोर दिया है।

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

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