राजू सजवान
एक ओर जहां भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के ताजा सर्वेक्षण में शहरी व ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में गरीबी पांच प्रतिशत से कम पहुंचने के दावे को सत्ताधारी राजनेता भुनाने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं अर्थशास्त्री व विशेषज्ञ इस सर्वे पर सवाल उठा रहे हैं। इस बहस के बीच आए एक शोध पत्र में कहा गया है कि भारत में हर चौथा व्यक्ति गरीब है।
द जर्नल ऑफ द फाउंडेशन फॉर एग्रेरियन स्टडीज (एफएएस) में प्रकाशित इस लेख में कहा गया है कि भारत में लगभग 26.4 प्रतिशत लोग गरीब हैं। लेख का शीर्षक “भारत में गरीबी: रंगराजन पद्धति और 2022–23 का घरेलू खपत एवं व्यय सर्वेक्षण” है।
शोध पत्र के लेखकों ने रंगराजन कमेटी द्वारा सुझाई गई पद्धति का उपयोग घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2022-23 के आधार पर करते हुए गरीबी रेखा का अनुमान लगाया। उन्होंने ग्रामीण इलाकों में 2,515 रुपए और शहरी इलाकों में 3,639 रुपए गरीबी रेखा का अनुमान लगाया। इसी अनुमान के आधार पर देश में गरीबों की संख्या 26.4 प्रतिशत आंकी गई है।
दरअसल, दशक से ज्यादा समय से गरीबी रेखा पर बात नहीं हो रही थी, लेकिन लगभग 12 साल बाद राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसओ) ने घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2022-23 फरवरी 2024 में जारी किया। इससे पहले 2011-12 में गरीबी रेखा का निर्धारण किया गया था। चूंकि इसी सर्वेक्षण के आधार पर राष्ट्रीय आय गरीबी का स्तर मापा जाता है तो देश में गरीबी रेखा की चर्चा ने जोर पकड़ लिया है। हालांकि सरकार ने अपने इस सर्वेक्षण के आधार पर 11 माह बीतने के बाद भी गरीबी का कोई अनुमान जारी नहीं किया है। लेकिन इस सर्वेक्षण का इस्तेमाल करते हुए अब तक दो अलग-अलग अनुमान जारी किए गए हैं।
नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) ने अपने इंडिया ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे के अनुमान में कहा था कि साल 2023 में भारत में गरीबों की संख्या 10 फीसदी से नीचे पहुंच गई है, जो 2011-12 में इनका प्रतिशत 21 था। वहीं, एसबीआई ने कहा कि गरीबों की संख्या 5 फीसदी से नीचे पहुंच गई है।
इस लेख के बाद पिछले दिनों फाउंडेशन फॉर एग्रेरियन स्टडीज (एफएएस), बेंगलुरु की ओर से गरीबी की मापन पद्धति पर एक ऑनलाइन पैनल चर्चा हुई। जहां लेख के लेखकों में से एक लेखक सी. ए. सेतू ने स्पष्ट किया कि गरीबी रेखा को कम और ऊपरी सीमा को अधिक आंकने के बावजूद हमने पाया कि हर चौथा भारतीय गरीब है।
सी.ए. सेतु के अलावा इस लेख के लेखकों में एल.टी. अभिनव सूर्या, और सी.ए. रूथु शामिल थे। सेतु फाउंडेशन फॉर एग्रेरियन स्टडीज के वरिष्ठ अनुसंधान सहायक है, जबकि अभिनव सूर्या सेंटर फॉर डवलपमेंट स्टडीज के पीएचडी स्कॉलर और रूथु केरल राज्य योजना बोर्ड के उपाध्यक्ष का कार्यालय से संबद्ध हैं।
लेख में कहा गया है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का उपयोग करके पूर्व में गरीबी रेखा को समायोजित करने की विधि कम से कम दो प्रमुख कारणों से गलत है। पहला- उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की गणना उपभोग टोकरी (कंजप्शन बास्केट) में वस्तुओं के लिए पुराने आधार भार का उपयोग करके की जाती है। जबकि नए उपभोग व्यय डेटा न होने के कारण इन भारों को एक दशक से अधिक समय से अपडेट नहीं किया गया है, जिसके बदलने की पूरी संभावना है।
दूसरा और अधिक महत्वपूर्ण कारण यह है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक, जैसा कि यहां स्पष्ट है, गरीबी को ट्रैक करने का साधन नहीं है। गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों के उपभोग पैटर्न और कीमतें गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों के उपभोग पैटर्न और कीमतों से अलग होते हैं।
लेख में लेखकों ने कहा है कि यही वजह है कि हमारा अनुमान इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक लेख में अनुमानित गरीबों की संख्या 10.8 प्रतिशत से अधिक है। लेख में कहा गया है कि हमारे परिणामों को ग्रामीण मजदूरी, कृषि परिवारों की आय और अनौपचारिक क्षेत्र पर शोध से प्राप्त साक्ष्य के संदर्भ में भी पढ़ा जाना चाहिए, जो बताते हैं कि ग्रामीण गरीबों की आय में पर्याप्त वृद्धि नहीं हुई है।
2012-13 और 2018-19 के कृषि परिवारों के स्थिति आकलन सर्वेक्षणों के डेटा से पता चलता है कि इन वर्षों के बीच कृषि परिवारों की औसत मासिक आय 2.44 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ी है, जो स्थिर कीमतों पर 8,843 रुपये से बढ़कर 10,218 रुपये हो गई है।
लेखकों ने यह भी कहा है कि हम देखते हैं कि हम जिस (रंगराजन) पद्धति का उपयोग करते हैं, वह गरीबी को कम आंकने की संभावना है, न कि इसे अधिक आंकने की। भारत में उपभोग गरीबी एक जरूरी और महत्वपूर्ण समस्या बनी हुई है। लेख में 2011–12 के उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण (सीईएस) और 2022–23 के घरेलू उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण (एचसीईएस) के बीच तुलना पर भी सवाल उठाया गया है, जबकि इनमें काफी अंतर है। जैसे कि नए एचसीईएस 2022–23 में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से आपूर्ति किए जाने वाले मुफ्त चावल और मुफ्त चीनी जैसी वस्तुओं की भी जानकारी एकत्र की गई, ऐसा सीईएस 2011–12 में नहीं किया गया था।
एसबीआई ने इस्तेमाल की तेंदुलकर कमेटी की पद्धति
यहां यह बताना जरूरी है कि एनसीएईआर और एफएएस के शोधार्थियों ने गरीबी के अनुमान के लिए रंगराजन कमेटी की पद्धति का इस्तेमाल किया, जबकि एसबीआई के शोधार्थियों ने तेंदुलकर कमेटी की पद्धति का इस्तेमाल किया है।
एसबीआई ने वित्त वर्ष 24 में अनुमानित गरीबी रेखा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 1,632 रुपए और शहरी क्षेत्रों के लिए 1,944 रुपए का अनुमान लगाया। 2012 में जब भारत में गरीबी का जनसंख्या अनुपात 21.9 प्रतिशत होने का अनुमान लगाया गया था, तो वह डॉ. सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता में गठित कमेटी की पद्धति की समीक्षा करने के लिए बनाए विशेषज्ञ समूह के आंकड़ों पर लागू करके किया गया था। लेकिन जब गरीबी रेखा की इस गणना की आलोचना की गई तो भारत सरकार के योजना आयोग ने गरीबी मापने के लिए पद्धति की “फिर से समीक्षा” करने के लिए डॉ. सी. रंगराजन की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समूह नियुक्त किया।
इस विशेषज्ञ समूह ने जून 2014 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में गरीबी रेखा की गणना करने का एक वैकल्पिक तरीका प्रस्तावित किया और अनुमान लगाया कि इस पद्धति का उपयोग करते हुए 2011-12 में भारत में गरीबी का अनुपात भारत की आबादी का 29.5 प्रतिशत था। हालांकि भारत सरकार ने इस अनुमान की अपनी आधिकारिक स्वीकृति नहीं दी।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )