ललित मौर्या

नदियां, धाराएं, झीलें, और जलाशय सिर्फ हमारे परिदृश्य का सुन्दर हिस्सा ही नहीं, वे पृथ्वी पर जीवन के महत्वपूर्ण इंजन भी हैं। ठीक इंसानों और दूसरे जीवों की तरह ही ये जल स्रोत भी ‘सांसों’ के रूप में ऑक्सीजन लेते हैं।

लेकिन यूट्रेक्ट यूनिवर्सिटी से जुड़े वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में चेताया है कि हमारी नदियों, झीलों से जीवनदायनी ऑक्सीजन गायब हो रही है और ऐसा पिछले 100 वर्षों में हुआ है, जिसे हम एंथ्रोपोसीन यानी मानव युग के नाम से भी जानते हैं। इस अध्ययन के मुताबिक दुनिया के कई मीठे पानी के स्रोत तेजी से ऑक्सीजन की कमी यानी ‘हाइपोक्सिया’ का शिकार बन रहे हैं।

अंतराष्ट्रीय जर्नल साइंस एडवांसेज में प्रकाशित इस अध्ययन के नतीजे दर्शाते हैं कि 1900 के बाद से नदियों, झीलों जैसे इन जल स्रोतों में ऑक्सीजन के उत्पादन और उपयोग के तरीके में नाटकीय रूप से बदलाव आया है। इसके साथ ही वैज्ञानिकों ने एक बार फिर उस कड़वी सच्चाई को उजागर किया है कि इसके लिए हम इंसान ही जिम्मेवार हैं। मतलब की हम इंसान अलग-अलग तरीकों से खुद अपने विनाश की पटकथा लिख रहे हैं।

गौरतलब है कि ऑक्सीजन पृथ्वी पर जीवन का आधार है। यह कार्बन और नाइट्रोजन जैसे अन्य पोषक चक्रों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अध्ययन के मुताबिक जिस तरह से पानी में ऑक्सीजन की कमी हो रही है, उसके साथ ही कई समस्याएं पैदा हो रही हैं।

इसके प्रभाव पहले से सामने आने लगे हैं, मछलियां मर रही हैं, पानी की गुणवत्ता खराब हो रही है और पूरी खाद्य श्रृंखला गड़बड़ाने लगी है। नतीजन जीवन का संतुलन बिगड़ रहा है। अध्ययन दर्शाता है कि यह सिर्फ किसी एक नदी या झील की समस्या नहीं है, बल्कि पूरी धरती के लिए खतरे की घंटी है। इन बदलावों का असर दुनिया भर में मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ रहा है।

बिगड़ रहा है संतुलन

अपने अध्ययन के दौरान यूट्रेक्ट यूनिवर्सिटी से जुड़े वैज्ञानिक जुन्जी वांग और जैक मिडलबर्ग के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने पहली बार दुनिया की झीलों, तालाबों में ऑक्सीजन के प्रवाह को समझने के लिए एक वैश्विक मॉडल भी विकसित किया है। यह मॉडल नदियों, झीलों, जलाशयों के पूरे ऑक्सीजन चक्र का वर्णन करता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक इस मॉडल की मदद से हम बड़ी तस्वीर देख सकते हैं — कहां और क्यों ऑक्सीजन की कमी हो रही है, और समय रहते क्या कदम उठाए जा सकते हैं।

शोध से पता चला है कि नदियों, झीलों और तालाबों में ऑक्सीजन का आना-जाना पहले से कहीं ज्यादा तेज हो गया है। मतलब कि इन जल स्रोतों में अब पहले से ज्यादा ऑक्सीजन बन भी रही है और खत्म भी हो रही है। लेकिन सबसे बड़ी चिंता की बात ये है कि ये जल स्रोत अब ऑक्सीजन बनाने से ज्यादा उसे खपा रहे हैं। मतलब, ये जगहें धीरे-धीरे वातावरण की ऑक्सीजन को भी निगलने लगी हैं।

शोध के मुताबिक आज नदियों, झीलों और तालाबों का ऑक्सीजन चक्र पहले जैसा नहीं रहा। 1900 के मुकाबले इसमें काफी बदलाव आ गया है। वैज्ञानिकों ने पुष्टि की है कि दुनिया की नदियां, झीलें, धाराएं और अन्य जलस्रोत हर साल वातावरण से करीब 100 करोड़ टन ऑक्सीजन खींच रहे हैं। यह महासागर द्वारा उत्सर्जित ऑक्सीजन का करीब आधा है।

ऐसा क्यों हो रहा है, इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए वैज्ञानिक जुझी वांग ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा है, अधिक खेती, अधिक अपशिष्ट जल, अधिक बांध और बढ़ता तापमान ये सभी मिलकर साफ जल के पारिस्थितिकी तंत्र के काम करने के तरीकों में बदलाव का रहे हैं। नदियों और झीलों में ज्यादा पोषक तत्व जाने से पानी में शैवाल (काई) तेजी से बढ़ते हैं। लेकिन जब ये मरते और सड़ते हैं तो बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन की खपत करते हैं।

बढ़ते तापमान के साथ हम इंसान भी हैं दोषी

वैज्ञानिकों के मुताबिक इस समस्या की सबसे बड़ी वजह इंसानी गतिविधियां हैं। खेतों में खाद के बढ़ते उपयोग से नदियों, झीलों में पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ रही है। इसी तरह बांधों और जलाशयों के निर्माण से पाने के समुद्र तक पहुंचने का समय बढ़ जाता है। इससे ऑक्सीजन की कमी और बढ़ जाती है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक इंसानी गतिविधियों का एक और दुष्प्रभाव है बढ़ता तापमान। तापमान बढ़ने से पानी में ऑक्सीजन का घुलना कम हो जाता है। साथ ही, इसकी वजह से पानी के अंदर ऊपर-नीचे ऑक्सीजन का आना-जाना धीमा पड़ जाता है। वैज्ञानिक जुझी वांग के मुताबिक पहले माना जाता था कि ऑक्सीजन की कमी की सबसे बड़ी वजह सिर्फ ग्लोबल वॉर्मिंग है। लेकिन नए मॉडल से पता चला है कि तापमान बढ़ने का असर इस समस्या में महज 10 से 20 फीसदी योगदान दे रहा है। मतलब की इसका असली कारण इंसानी गतिविधियां हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि अब दुनिया के जलवायु और ऑक्सीजन संतुलन की बात करते समय नदियों, झीलों और तालाबों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पानी के यह स्रोत पहले से कहीं तेजी से बदल रहे हैं। ऐसे में अगर हम अभी नहीं संभले तो भविष्य में नदियों, झीलों का डीएम दम घुट जाएगा। इसका असर सिर्फ जलीय जीवन पर नहीं, बल्कि पूरी पृथ्वी की सांसों पर पड़ेगा।

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

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