भारत सहित पूरी दुनिया में अब गेहूं चावल की जगह मोटे अनाजों पर जोर दिया जा रहा है. भारत ने भी निकट भविष्य में मोटे अनाजों की संभावनाओं को देखते हुए इस दिशा में प्रयास तेज किए हैं. इसके लिए कृषि वैज्ञानिक और खाद्य विशेषज्ञ डॉ खादर वली पिछले 20 सालों से भी ज्यादा समय से प्रयास कर रहे हैं. अब पद्मश्री से सम्मानित और मिलेट मैन के नाम से मशहूर डॉ वली की वजह से यह संभव होता दिख रहा है.

रूस यूक्रेन युद्ध ने दुनिया को काफी कुछ बदला है और आने वाले दिनों में उसकी वजह से काफी कुछ बदलने वाला है. इस युद्ध ने दुनिया के देशों को खाद्य समस्या से निपटने के लिए भी सोचने  पर मजबूर किया है क्योंकि यूक्रेन का बड़ा गेंहू निर्यातक देश होने की वजह से दुनिया में खाद्य संकट गहरा गया है. संयुक्त राष्ट्र ने भी दुनिया की गेहूं और चावल की निर्भरता को कम करने के लिए साल 2023 को अंतरराष्ट्रीय मोटे अनाजों के वर्ष के रूप में मनाने का फैसला किया है. इस दिशा में भारत को मोटे अनाजों में आगे बढ़ने के लिए मिलेट मैन ऑफ इंडिया के नाम से मशहूर डॉ खादर वली के प्रयास बहुत काम आ रहे हैं.

कौन हैं डॉ वली
आंध्रप्रदेश के डॉ खादर वली  इन दिनों मैसूर में रह रहे हैं और कृषि विज्ञान पर शोध के साथ देश के किसानों को मोटे अनाज उगाने के लिए तो प्रेरित कर है रहे हैं, तथा लोगों को गेंहूं चावल की जगह मोटे अनाज का उपयोग करने के लिए भी प्रेरित कर रहे हैं. एक स्वतंत्र वैज्ञानिक के रूप में 66 वर्षीय डॉ वली  ने खाद्य और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बहुत सारी परियोजनाओं पर काम किया है.

मोटे अनाजों की पैरवी
डॉ वली फिलहाल मैसूर में रहते हैं वे 20 सालों से मोटे अनाज की पैरवी कर उसके व्यापक उपयोग की वापसी के लिए प्रयास कर रहे हैं. आंध्र प्रदेश के कडप्पा में एक गरीब परिवार में जन्मे ड़ॉ वली मोटे अनाजों की पैरवी के साथ ही गेहूं और चावल के नुकसान से भी लोगों को अवगत करा रहे हैं उनका मानना है कि लोगों के जीवन में लाइफस्टाइल विकार ऐसे ही भोजन से आ रहे हैं.

35 साल पुराने शोध के नतीजे
मोटे अनाजों के महत्व को डॉ वली ने आज से करीब 35 साल पहले पहचाना था जब वे अमेरिका के ओरोगोन के बीवरटन में पर्यावरण विज्ञान में अपना पोस्टडॉक्टोरल शोधकार्य कर रहे थे. अपने शोध में वे भोजन में डाइऑक्सिन जैसे हानिकारक रासायनिक पदार्थों को निष्क्रिय करने का प्रयास कर रहे थे.

कैसे हुई शुरुआत
यह शोध डॉ वली ने ऐसे समय में किया था जब दुनिया में भोजन के पदार्थों का व्यवसायीकरण हो रहा था और लोगों में गेहूं और चावल का उपयोग बहुत ही तेजी से बढ़ रहा था. लेकिन उन्हें एक बात ने सबसे ज्यादा चौंकाया जब एक लड़की में छह साल की उम्र में ही माहवारी शुरू हो गई जो कि सामान्य रूप से 13-14 साल की उम्र में शुरू होती है. उन्हें इस बात ने हैरान किया कि विकसित देश में कैसे यह समस्या हुई.

असल समस्या की पहचान
पूरे शोध के बाद उन्होंने पाया कि हम जो खाना खा रहे हैं वह पूरा का पूरा ही सेहतमंद नहीं है. दूध अनुवांशकीय तौर पर परिष्कृत है, चावल और गेहूं प्राकृतिक भोजन नहीं हैं, लेकिन हमारे मन में यही भरा गया है कि हमें ऐसा ही भोजन करना चाहिए. इसी सिलसिले में बाद में डॉ वली ने पाया कि कैसे मोटे अनाज उन समस्याओं को पलट सकते हैं जो चावल और गेहूं से होती हैं.

भारत लौट कर एक बड़ा फैसला
1997 में डॉ वली मैसूर में बस गए और इस दौरान उन्होंने देखा कि कैसे लोगों का ब्रेनवॉश किया जा रहा है. भारत लौटने के बाद उन्होंने पूरे देश का दौरा किया और बुजुर्गों से मोटे अनाज के बीज जमा किए और उन्हें कोडो, कंगनी, हरा बाजरा जैसे कुछ प्रमुख मोटे अनाज मिले. जिन्हें चावल, गेहूं और अन्य उत्पादों की जगह पैदा किए जा रहे हैं. इसके अलावा उन्होंने बंजर जमीन खरीद कर हजारों किसानों को ऐसे बीजों की फसल उगाने के लिए प्रेरित किया.

डॉ वली ने अपने चुने पांच मोटे अनाजों के मिश्रण को श्रीधान्य नाम दिया इसके लिए उन्होंने खडू कृषि पद्धति को प्रोत्साहित किया. आज कर्नाटक में बहुत से किसान इसका उपयोग कर रहे हैं और श्रीधान्य की, दुनिया के  बाजार तक में बहुत मांग है. इनके जरिए उन्होंने लोगों का इलाज भी किया. कई बीमारियों को ठीक करने में मददगार इन मोटे अनाजों का उत्पादन आने वाले दिनों में क्रांतिकारी रूप से बढ़ेगा जिसका फायदा भारत उठा सकता है.

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