कुशाग्र राजेन्द्र
छठ महापर्व बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश से निकलकर आज वैश्विक लोकआस्था का पर्व बन चुका है; छठ करती स्त्री दिल्ली, मुंबई से लेकर जयपुर, भोपाल या सुदूर पूर्वोत्तर के किसी शहर यहाँ तक बेगूसराय से बोस्टन तक में भी दिखाई दे रही है। यह पर्व जहाँ एक ओर प्रकृति, जल, सूर्य और श्रम के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर यह हमारे समय के सामाजिक व सांस्कृतिक बदलावों का दर्पण भी है। बिहार से बड़े पैमाने पर प्रवास के साथ छठी मैया का ठेठ देसज पूजन गँवई पहचान से निकल पहले राष्ट्रीय और धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय फलक पर पहुँचने लगा। इस पहचान को बड़े फलक तक पहुँचाने में सोशल मीडिया और युवा वर्ग ने महती भूमिका निभाई, तो पर्यावरण की बिगड़ती व्यवस्था ने सभी का ध्यान प्रकृति के इस आदिम उत्सव की तरफ ध्यान खींचा। यह विस्तार केवल लोगों के फैलाव का नहीं, बल्कि इस पर्व की जीवंत सामाजिक शक्ति और लोक संस्कृति की अटूट निरंतरता का प्रमाण भी है।

प्रकृति का उत्सव
भारतीय त्योहारों की जड़ें प्रायः प्रकृति, कृषि, श्रम और गँवई संस्कार में निहित हैं। छठ व्रत इसका सशक्त उदाहरण है, यह सूर्य, ऊर्जा के सर्वोच्च स्रोत, की आराधना के साथ-साथ जल, मिट्टी और जैव विविधता के संरक्षण का लोक प्रयास भी है। पोखर, तालाब या नदी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देना कोई साधारण कर्मकांड नहीं, बल्कि मनुष्य और प्रकृति के बीच सह-अस्तित्व की अनादि स्मृति है। सूर्य, जल, मिट्टी और पौधों के प्रति श्रद्धा और निश्छल सामाजिकता इस पर्व का मूल भाव है, जो प्रकृति के धन्यवाद और आराधना में निहित है। आज जब पूरी दुनिया जलवायु संकट, जल प्रदूषण और पारिस्थितिक असंतुलन से जूझ रही है, तब छठ की यह परंपरा वैश्विक पर्यावरणीय चेतना के लिए समसामयिक हो जाता है।

“वसुधैव कुटुंबकम” का सूक्ष्म स्वरुप
कभी यह पर्व संयुक्त परिवार की एकता का मूर्त रूप में आधार हुआ करता था, जहाँ ‘परिवार’ के दायरे में पूरा कुनबा पूरा गाँव समाहित हो जाया करता था। जहाँ संयुक्त परिवार में एक महिला व्रत रखती थी, जो प्रायः घर की दादी या बड़की माई या बड़की भौजाई के रूप में पूरे कुनबे का नेतृत्व करती थी और पूरा परिवार सहयोग करता था। छठ पूजा करते समय हाथ जोड़े पानी में खड़ी मातृ स्वरूपा उस स्त्री के लिए अपने पूरे परिवार (सहोदर, से लेकर चचेरे तक) और आसपास के सभी लोगों के कल्याण की भावना होती थी। व्रत के दौरान अपना, सहोदर चचेरे / चचेरा सबका भेद मिट जाता था। सब लोग अपने अपने निर्धारित जिम्मेदारियों के निर्वहन में लग जाते थे मानो पूरा कुनबा व्यावहारिक रूप में उसी आदिम विशाल परिवार का रूप ले लेता था जब मानव सभ्यता आकार ले रही होगी। मातृ स्वरूपा एक स्त्री के इर्द गिर्द पूरे कुनबे के इकट्ठा होने का यह दृश्य कहीं-न-कहीं “वसुधैव कुटुंबकम” की वैश्विक अवधारणा का छोटा देसज और व्यावहारिक स्वरुप ही था, जिसके आधार पर इस विराट भारतीय विश्व दृष्टि की अवधारणा रखी गयी होगी।

धीरे धीरे तथाकथित आधुनिकता ने पैर पसारे और परिवार के अन्दर परिवार आकार लेने लगे, अब एक ही परिवार में अनेको महिलाएं व्रत करने लगी। मातृ स्वरूपा एक स्त्री के इर्द गिर्द पूरे कुनबे के इकठ्ठा होने वाला परिदृश्य अब बिखरने लगा, सहोदर अपना चेचेरा का भेद आगे आने लगा, जो आगे चलकर ‘एकल परिवार’ वाली मानसिकता में बदल गया। परिवारों के बिखराव में बिहार की आर्थिक सामाजिक स्थिति, पलायन और शहरीकरण ने भी महती भूमिका निभाई। यह परिवर्तन बहुत धीरे धीरे हुआ जिसने बिहार की ठेठ ‘पारिवारिक समझ’ के ताने-बाने को व्यापक स्तर पर प्रभावित किया। फिर भी, छठ व्रत की कठिनता, अटूट आस्था और व्रत के मूल में बसी सामूहिकता ने परिवार के बिखरते नेह की डोर को अब भी थामे रखा है।

पानी से जोड़ता उत्सव
छठ पर्व का सबसे बड़ा सौंदर्य इसकी सामूहिकता और श्रम-संस्कृति में है, और ये हर एक को पास के नदी पोखर तालाब तक किसी ना किसी बहाने ले ही जाती हैं! छठ पर्व से जुड़े सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है पोखर, तालाब और नदियों की सामूहिक सफाई। यह परंपरा सदियों पुरानी है और इसका स्पष्ट संबंध स्थानीय जलस्रोतों के संरक्षण से है। सफाई की यह प्रक्रिया केवल धार्मिक व्यवस्था सुनिश्चित करने तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह एक सामाजिक गतिविधि होती है जिसमें विभिन्न आयु और वर्ग के लोग मिलकर हिस्सा लेते हैं। समाज का पुरुष-स्त्री तबका श्रमदान की मनसा से सामुदायिक स्तर पर जलस्रोतों की सफाई के उद्देश्य से छठ घाट तक पहुंचता था तो महिलाएं और बच्चे अर्घ्य देने। यानी समाज का हर एक व्यक्ति व्रत के दौरान प्राकृतिक जल के पास पहुँचता ही था। छठ के दौरान उपयोग किए जाने वाले ये जलस्रोत आमतौर पर सार्वजनिक संपत्ति होते हैं, इसलिए उनकी सफाई और संरक्षण में सामूहिक भागीदारी स्वाभाविक रूप से तो विकसित हुई ही साथ ही साथ हर एक को प्राकृतिक जल को देखने, निहारने, समय बिताने का मौका मिला। छठ पूजा के ताने-बाने में सामूहिकता के साथ-साथ सभी को नदी, तालाब, पोखर, ताल से जुड़ने की प्रवृति भी विकसित हुई।

पर हाल के कुछ सालों में समय बदला, मन मिजाज बदला और व्रत के लिए आस्था तो वही रही पर सामूहिकता और जल से जुडाव के मर्म को भूलते चले गए। इसी बीच उदारवाद और वैश्वीकरण के साथ एक आरामतलब और खाया पिया अघाया तबका पनपा जो अपने घर के आहाते में, या छत पर, अपने स्विमिंग पूल में, यहाँ तक प्लास्टिक के टब में ही छठ करने का चलन लेकर आया। शायद छठ घाट की भीड़, तालाब और नदियाँ का प्रदूषण और अतिक्रमण ने व्यक्ति को समाज से जोड़ने वाले एकाकी से सामूहिकता तक के फैलाव के इस महापर्व को घर की चारदीवारी तक सीमित करने की इस उलटी प्रवृत्ति में महती भूमिका निभाई। दिलचस्प बात यह है कि छठ पूजा स्थानीय और आंचलिक दायरे से निकल कर राष्ट्रीय और वैश्विक स्वरुप तो ले रहा है पर आस्था के इस आदिम पर्व की हमारी जल-संस्कृति अपना महत्त्व खो रही हैं जहाँ पानी केवल उपयोग की वस्तु नहीं, बल्कि सार्वजनिक जीवन का केंद्र माना जाता रहा है।

धर्मभीरुता नहीं स्नेहमय प्रतिरोध
दिल्ली में नाला बन चुकी यमुना नदी में गंदे झाग में छठ पूजा के समय अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देती महिला की तस्वीर पिछले कई सालो से राष्ट्रीय सुर्खिया बनती आ रही है और इसी बहाने इस देश के बौद्धिक तबके को भारत की खास कर बिहार की इस गंवई, देसज परम्परा और जन संस्कृति का माखौल उड़ाने का मौका भी मिल जाता है। पहली नज़र में ये धर्मभीरुता, अंधश्रधा, अंध विश्वास और पिछड़ापन का पर्याय ही दीखता है, जिसे हम आसानी से छठ मनाये जाने वाले प्रदेश की वर्तमान आर्थिक पिछड़ापन और सामाजिक भेदभाव से जोड़ सकते है जो पिछले कई दशक से देश के लिए सस्ते श्रम उपलब्ध कराता आया है। इस तस्वीर को पिछड़ेपन और धर्मभीरुता से जोड़ देना आसान तो है पर ये प्रकृति के इर्द गिर्द बुने गए मानव जीवन के भारतीय ग्रैंड नैरेटिव की अनदेखी भर होगी। यमुना के गंदे पानी में हाथ में अर्घ्य का सूप लिए महिला की तस्वीर उस खाए पीये अघाए समाज के लिए सन्देश है कि नदी की सफाई मशीन से नहीं हो सकती, बल्कि हर एक व्यक्ति को, समाज को नदी तक आये, प्राकृतिक जल स्रोतों से जुड़े बिना, नहीं हो सकती। यमुना के बजबजाते गंदे पानी में आस्था के भाव से सराबोर अर्घ्य देती स्त्री का संकल्प धर्मभीरुता नहीं है बल्कि प्रकृति से दूर होते तकनीक पर निर्भरता और तकनीकी ठसक के खिलाफ एक शांत पर कठोर तपस्या है, प्रकृति को उपभोग की वस्तु समझने और और पैसे से सब कुछ खरीद लेने वाली प्रवृति के खिलाफ एक एलान है, व्यक्तिपरक और स्वार्थी बनते जा रहे समाज का सांस्कृतिक प्रतिरोध है।

आदिम भी नवीन भी
भारतीय परम्परा, उत्सव, त्यौहार, लोकाचार में एक अलग अनूठापन है, ये पुरातन है, आदिम है पर साथ ही साथ इसमें नयापन भी है, आधुनिक सन्दर्भ भी है। छठी मैया की आदिम पूजा आज के समय में और भी प्रसांगिक हो जाती है, जो पुरे विश्व को एक परिवार समझने की सूक्ष्म समझ और सबको पानी तक खींच लाने और प्रकृति से जोड़ने का विधान है। जैसे गुरुदेव ने गुरू नानक की लिखित आरती ‘गगन मे थाल’ को विश्व गान माना वैसे ही अगर विश्व के स्तर पर किसी पर्व या उत्सव की अवधारणा अगर हो सकती है तो वो छठ जैसा ही उत्सव होगा, जो ना सिर्फ सामूहिकता बल्कि प्रकृति से सबको जोड़ने के मूल दर्शन पर आधारित है। हालाकि इन दोनों प्रवृतियों में दशको पहले से दरार आने लगी है! पर हमारे पुरखो ने छठ पूजा का ताना बाना कुछ ऐसे बुना है कि इन दोनों संदर्भो में दरार आई जरुर है पर अभी भी बहुसंख्य लोग अपने अपने नदी पोखर के किनारे आज भी उसी आस्था और भाईचारे के साथ प्रकृति स्वरूपा छठी मैया के स्वागत और बिदाई के लिए उमड़ पड़ते है! आधुनिकता, बाजारवाद, बनावटीपन छठ घाटो पर दिखती जरुर है पर हमारी आस्था के आदिम स्वरुप के सामने गौण हो सामूहिकता के सैलाब में विलुप्त होती प्रतीत होती है, पर ये खतरा समय के साथ बढ़ तो रहा ही है!
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )
