राज कुमार शाही

यह आजादी का 75 वां वर्ष है। विगत करीब सात दशक में शिक्षा की स्थिति कैसी रही, यह हम सबके सामने है। दरअसल अब भी देश की काफी बड़ी आबादी निरक्षर है। शिक्षा के निजीकरण ने हालात को और बद से बद्तर ही किया है। सत्ता व्यवस्था पर काबिज प्रतिगामी ताकतें, अपने फायदे के लिए, समाज में अवैज्ञानिक सोच को बढ़ाव दे रही हैं। संविधान ने वैज्ञानिक मानसिकता के विकास को नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों में शामिल किया है। भारतीय संविधान की धारा 51- के में कहा गया है – ” हर भारतीय नागरिक का यह मौलिक कर्तव्य है कि वह वैज्ञानिक मानसिकता, मानवतावाद, सुधार एवं खोज भावना विकसित करे ” लेकिन आजादी के 74 वर्षों बाद भी हम इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं कर पाए। अवैज्ञानिक सोच को निहित स्वार्थ वश दिया जा रहा बढ़ावा इसकी एक वजह है। मौजूदा सरकार की शिक्षा नीति, शिक्षा का केंद्रीकरण, निजीकरण हालात को और बदतर ही बनाएगा। जनोन्मुखी, विज्ञान परक शिक्षा ही इस समस्या का बेहतर समाधान हो सकता है। प्रस्तुत है इसी मुद्दे को रेखांकित करता राजकुमार शाही का एक विशेष आलेख – 


सीवी रमन भारत के पहले भौतिक वैज्ञानिक हुए, जिन्हें नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया था। इन्होंने रमन प्रभाव की खोज की, जो प्रकाश से संबंधित एक प्रभाव है इसी खोज पर इन्हें नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया था । इन्होंने भारत में आम लोगों के अंदर वैज्ञानिक चेतना का विकास कैसे हो, इस दिशा में समाज को सोचने पर बल दिया था पर दुर्भाग्य है कि आज भी कक्षाओं में पढ़ाए जाने वाला विज्ञान और समाज में जड़ जमाए अंधविश्वास दोनों अपने अपने जगह पर उसी तरह कायम हैं, जिस तरह आजादी के पहले थे । इधर हाल के दिनों में अंधविश्वास एवं धर्म पर आधारित आस्था का सवाल और ज्यादा अधिक मजबूत हुआ है। और मजबूत हो भी क्यों नहीं, जब राजसत्ता और उसके चलाने वाले लोग ही उसके वाहक बन जाएं और उसे स्थापित करने में अपनी पूरी मशीनरी लगा दें। ऐसे में लाजिम है कि डॉ नरेन्द्र दाभोलकर, प्रोफेसर एम एस कलबुर्गी एवं गोविंद पंसारे जैसे लोगों की हत्या ही होगी, जो समाज के अंदर व्याप्त अंधविश्वास एवं कुरीतियों को दूर करना चाहते थे। मौजूदा पूंजीवादी राजसत्ता अपने को बनाए रखने के लिए समाज के अंदर वैज्ञानिक चेतना के विकास में सबसे बड़ी अवरोधक बनी हुई है। समाज के अंदर व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ समाज में जनचेतना का विकास करना काफी मुश्किल सा हो गया है। बल्कि विभिन्न चैनलों तथा धारावाहिकों के माध्यम से समाज में अंधविश्वास एवं कुव्यवस्था को और अधिक स्थापित करने की कोशिशें की जा रही हैं।

विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में शिक्षा के नाम पर लोगों को महज साक्षर बनाया जा रहा है। आज स्कूल कालेजों में शिक्षा के नाम पर हां में हां मिलाने वाला एक नौकर वर्ग पैदा करने की कोशिश की जा रही है। शिक्षा के अंदर आलोचनात्मक चेतना का विकास ना हो, इसकी पूरी तैयारी पूंजीवादी व्यवस्था की ओर से की गई है। आज इस राज व्यवस्था को सबसे बड़ा खतरा अगर है तो वह आलोचनात्मक चेतना से ही है। समाज में आलोचनात्मक एवं वैज्ञानिक चेतना का विकास ही ना हो, इसके लिए चेतना के वाहक सभी स्रोतों पर वैचारिक तौर वह कब्जा कर , लोगों के मन मस्तिष्क को प्रदूषित कर दिया गया है तथा यह प्रक्रिया सतत जारी है ‌ इसके कारण समाज में वैज्ञानिक चेतना का विकास आज लगभग बंद हो चुका है। इसी कारण आजादी के बाद और आज के वर्तमान दौर में, विज्ञान के क्षेत्र में, देश ने कोई बड़ी तरक्की नहीं की।

आज अगर समाज की पृष्ठभूमि को देखा जाए तो भारतीय समाज आज भी अंधविश्वास, कुरीतियों में जकड़ा हुआ है। इससे समाज के अंदर और खास करके छात्रों के अंदर भी वैज्ञानिक चेतना का विकास नहीं हो पाता है। भाषा का सवाल दिन प्रतिदिन गहराता चला जा रहा है। एक ही देश में दो तरह के लोगों को तैयार किया जा रहा है। शोषित समाज के ऊपर अंग्रेजी भाषा अपने वर्चस्व को लगातार मजबूत करती चली जा रही है। विभिन्न भाषाओं वाले इस देश में अंग्रेजी भाषा को लेकर, शासन प्रशासन में बैठे लोग, इसके माध्यम से अपने वर्गीय हितों को आसानी से साधने का काम कर रहे हैं। दरअसल अंग्रेजी इस देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। सुदूर गांव में दबी प्रतिभाओं, जिनमें ज्यादातर दलित और आदिवासी हैं, को मुख्यधारा में शामिल होने से रोकने में अंग्रेजी भाषा सबसे बड़ा अवरोधक बन कर खड़ी है।

हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक”द इंग्लिश मीडियम मिथ” में संक्रांत सानु ने प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद के आधार पर दुनिया के सबसे अमीर और सबसे गरीब बीस -बीस देशों की सूची दी है। बीस सबसे अमीर देशों के नाम हैं क्रमशः स्वीटजरलैंड, डेनमार्क, जापान, अमेरिका, स्वीडन, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, नीदरलैंड ,फिनलैंड, बेल्जियम, फ्रांस ,ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, इटली, कनाडा, इजराइल, स्पेन, ग्रीस, पुर्तगाल और साउथ कोरिया। इन सभी देशों में उन देशों की जन भाषा ही सरकारी कामकाज की भी भाषा है और शिक्षा का माध्यम की भी भाषा वही है। दूसरी तरफ दुनिया के सबसे गरीब देशों की सूची में शामिल है क्रमशः कांगो ,इथोपिया ,बुरुंडी ,सीरा लियोन, मालावी, निगेर, चाड, मोजांबिक, नेपाल,माली,बुरूकिना फैंसो, रवांडा ,मेडागासकर , कम्बोडिया, तंजानिया, नाइजीरिया, अंगोला,लाओस, टांगों, और युगांडा।

इनमें से सिर्फ एक देश नेपाल है जहां जन भाषा शिक्षा के माध्यम की भाषा और सरकारी कामकाज की भाषा एक ही है नेपाली। बाकी उन्नीस देशों में राजकाज की भाषा और शिक्षा के माध्यम की भाषा भारत की तरह जनता की भाषा से भिन्न कोई न कोई विदेशी भाषा है। इस तरह यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि देश की तरक्की देश में मौजूद विभिन्न भाषाओं के विकास के साथ जुड़ी हुई है। हमारे प्रधानमंत्री ने जापान की तकनीक और कर्ज के बल पर बुलेट ट्रेन की नींव रखी है। उस जापान की कुल आबादी सिर्फ बारह करोड़ है। उसका भौगोलिक बनावट भी अलग किस्म का है। फिर भी उस छोटे से देश में सिर्फ भौतिक विज्ञान में तेरह नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक हैं। ऐसा इसलिए संभव है कि वहां शत-प्रतिशत जनता अपनी ही भाषा जापानी में ही शिक्षा ग्रहण करती है। इस मामले में चीन से भी आप बहुत कुछ सीख सकते हैं, अगर सिखना चाहे तब न।

राज कुमार शाही

( लेखक प्रगतिशील लेखक संघ एवं केदार दास श्रम एवं शोध संस्थान, पटना, बिहार के सदस्य हैं। )

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