धर्मेन्द्र आज़ाद
दूसरे विश्व युद्ध का समय था, और सोवियत संघ को जर्मन नाज़ी हमलों का सामना करना पड़ रहा था। जर्मनी ने 1941 में सोवियत संघ पर हमला कर दिया था। यह वही सोवियत संघ था जो अभी-अभी गृह युद्ध से उभरा था, और देश की आर्थिक स्थिति भी कमजोर थी। चारों तरफ युद्ध, अभाव, और त्रासदी का माहौल था। लेकिन, उस समय के सोवियत संघ की एक सबसे बड़ी ताकत थी—जनता की सामूहिक शक्ति। सरकार ने सिर्फ बड़े वैज्ञानिकों को ही नहीं, बल्कि साधारण नागरिकों को भी विज्ञान और तकनीकी प्रयोगों में भागीदारी का मौका दिया।
नाज़ियों द्वारा अचानक से किये गये हमले के लिये सोवियत संघ तैयार नहीं था। युद्ध में हज़ारों सैनिक और आम नागरिक मारे जाने लगे। इसी दौरान एक और बड़ी चुनौती सामने आई थी—युद्ध के दौरान घायल हो रहे लाखों सैनिकों का इलाज कैसे किया जाए? पश्चिमी देशों ने पेनीसिलिन जैसी आधुनिक एंटीबायोटिक दवाओं का फार्मूला साझा करने से मना कर दिया था, और सोवियत संघ के पास अपने सैनिकों को बचाने का कोई कारगर तरीका नहीं था।
यहां से शुरू होती है गिना ओलेशेंकोवा की कहानी। गिना कोई महान वैज्ञानिक नहीं थीं, बल्कि एक साधारण तकनीशियन थीं, जिन्हें प्रयोगशाला में काम करने का अनुभव था। उनका कोई उच्च वैज्ञानिक प्रशिक्षण नहीं था, लेकिन वह अपने देश के लिए कुछ बड़ा करना चाहती थीं। युद्ध के दौरान रूस में एक नई लहर उठी थी, जिसमें सामान्य नागरिकों को भी प्रेरित किया जा रहा था कि वे देश की रक्षा के लिए हर संभव प्रयास करें। यह कम्युनिस्ट सरकार का एक प्रमुख योगदान था—उन्होंने लोगों को सिर्फ ‘मजबूरी’ में नहीं, बल्कि प्रेरणा के साथ काम करने के लिए सशक्त बनाया।
जब पश्चिमी देशों ने सोवियत संघ के साथ इस महत्त्वपूर्ण दवा की जानकारी साझा करने से इनकार कर दिया। तो गिना ने सीमित संशाधनों से तैयार की पैनिसिलिन।
पेनीसिलिन, एक चमत्कारी एंटीबायोटिक है, जिसे पश्चिमी देशों द्वारा 1928 में खोज लिया था। यह दवा बैक्टीरियल संक्रमणों के इलाज में बेहद प्रभावी थी।विशेष रूप से युद्ध के दौरान, जब सैनिक घायल होते थे और संक्रमण का शिकार बनते थे, तब यह दवा जीवनरक्षक सिद्ध हुई। पश्चिमी देशों, विशेष रूप से अमेरिका और ब्रिटेन, ने इसे लाखों डालर खर्च कर बनाया था। पेनीसिलिन के विकास और उत्पादन में उनके वैज्ञानिकों ने अत्याधुनिक प्रयोगशालाओं और संसाधनों का उपयोग किया, और इसे बेहद महंगे प्रोजेक्ट के रूप में देखा। यह दवा इतनी प्रभावी थी कि पश्चिमी देशों ने इसे अपने “बौद्धिक संपदा अधिकार” के रूप में मानते हुए किसी भी अन्य देश के साथ साझा नहीं किया।
लेकिन सोवियत संघ ने इस चुनौती को स्वीकार किया। गिना जैसी साधारण तकनीशियनों ने अपने सीमित साधनों में ही इस दवा को तैयार करने का बीड़ा उठाया।
गिना की प्रयोगशाला कोई हाई-टेक जगह नहीं थी। यह एक साधारण, छोटा सा स्थान था, जहां बमुश्किल उपकरण मौजूद थे। पेनीसिलिन का उत्पादन करने के लिए उसके पास न तो कोई उन्नत प्रयोगशाला थी, न ही अत्याधुनिक मशीनरी। तो उसने क्या किया? उसने अपने पुराने बेकिंग ओवन को प्रयोगशाला के रूप में इस्तेमाल किया। गिना और उसकी टीम ने ओवन में पेनीसिलिन के फफूंद (fungus) को उगाने के सैकड़ों प्रयास किए। इनमें से ज्यादातर असफल रहे। लेकिन, हार मानना उनके स्वभाव में नहीं था। एक साधारण तकनीशियन होते हुए भी, गिना की दृढ़ता और विज्ञान के प्रति उसकी समझ ने उसे असाधारण बना दिया।
सोवियत संघ की सरकार ने इस पूरी प्रक्रिया में गिना और उसकी टीम को समर्थन दिया। यह सरकार की नीतियों का ही नतीजा था कि वैज्ञानिक खोजें सिर्फ बड़े वैज्ञानिकों तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि आम जनता के पास भी ऐसे प्रयोग करने के अवसर थे। सोवियत संघ में विज्ञान जनता का विज्ञान बन गया था, और यही उनके सफल होने का कारण बना।
जहां पश्चिमी देशों ने पेनीसिलिन के विकास में लाखों डॉलर खर्च किए, वहीं गिना और उसकी टीम ने बेहद सीमित संसाधनों के साथ यह दवा बनाई। उनका खर्च न्यूनतम था, लेकिन उनका योगदान अमूल्य। यह साबित करता है कि कभी-कभी महान खोजें अत्याधुनिक संसाधनों से नहीं, बल्कि सामूहिक प्रयासों और समर्पण से होती हैं।
पेनीसिलिन का उत्पादन जैसे ही सफल हुआ, सोवियत संघ की जनता को गर्व की अनुभूति हुई। यह सिर्फ गिना का नहीं, बल्कि पूरे देश का कारनामा था। इस दवा ने लाखों सैनिकों की जान बचाई। इसका उत्पादन इतनी तेजी से हुआ कि सोवियत संघ के सभी मोर्चों पर पेनीसिलिन भेजा जाने लगा। यह सिर्फ विज्ञान की जीत नहीं थी, बल्कि सोवियत संघ की सरकार की नीतियों और जनता की सामूहिक शक्ति का प्रतीक था।
गिना ग्रोमिकोवा की यह प्रेरक कहानी हमें यह सिखाती है कि जब सरकारें जनता को विज्ञान में भाग लेने के अवसर देती हैं, और जब वैज्ञानिक खोजें किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं रहतीं, तो असाधारण परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। यह कहानी इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि विज्ञान को समाज के हर व्यक्ति तक पहुंचाना और उसमें सभी की भागीदारी सुनिश्चित करना ही एक सशक्त और प्रगतिशील समाज की निशानी है।