ललित मौर्या

अध्ययन से पता चला है कि इस दौरान देश के पूर्वोत्तर हिस्से में सबसे ज्यादा 35.8 फीसदी प्रकोप सामने आए हैं। स्टीट्यूट ऑफ एपिडेमियोलॉजी द्वारा किए एक नए विश्लेषण में सामने आई है। इस विश्लेषण के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल द लांसेट रीजनल हेल्थ साउथईस्ट एशिया में प्रकाशित हुए हैं।

गौरतलब है कि अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 2018 से 2023 के बीच इंटीग्रेटेड डिजीज सर्विलांस प्रोग्राम (आईडीएसपी) के तहत रिपोर्ट हुए कुल 6,948 प्रकोपों का विश्लेषण किया है। इनमें से 583 यानी 8.3 फीसदी प्रकोप जूनोटिक थे। मतलब कि इस दौरान हर महीने औसतन सात जूनोटिक प्रकोप सामने आए। शोधकर्ताओं ने पाया है कि हर साल जून से अगस्त के बीच यह प्रकोप अपने चरम पर होते हैं। चिंता की बात यह है कि इन प्रकोपों में साल दर साल वृद्धि दर्ज की गई है।

पूर्वोत्तर भारत रहा सबसे ज्यादा प्रभावित

अध्ययन में यह भी सामने आया है कि इन जूनोटिक बीमारियों में जापानी इंसेफेलाइटिस सबसे आम था, जो कुल जूनोटिक प्रकोपों का 29.5 फीसदी था। इसके बाद लेप्टोस्पायरोसिस (18.7 फीसदी) और स्क्रब टायफस (13.9 फीसदी) का स्थान रहा। वहीं भारत में क्षेत्रीय आधार पर देखें तो देश के पूर्वोत्तर हिस्से में सबसे ज्यादा 35.8 फीसदी प्रकोप सामने आए हैं। वहीं इसके बाद दक्षिण भारत (31.7 फीसदी) और पश्चिम भारत (15.4 फीसदी) में इनका सबसे ज्यादा प्रकोप देखा गया।

रिपोर्टिंग में सुधार, लेकिन देरी अभी भी बनी हुई है समस्या

अध्ययन में यह भी सामने कुल प्रकोपों में से एक-तिहाई मामलों यानी करीब 34.6 फीसदी में रिपोर्टिंग देर से हुई थी। हालांकि, धीरे-धीरे रिपोर्ट में सुधार आया है। आंकड़ों पर नजर डालें तो 2019 में जहां 52.6 फीसदी मामले देर से रिपोर्ट हुए थे, जबकि 2023 में यह आंकड़ा घटकर 5.2 फीसदी रह गया। हालांकि चिंता की बात यह रही कि जूनोटिक प्रकोपों के 97.2 फीसदी मामलों में कोई फॉलो-अप रिपोर्ट उपलब्ध नहीं थी, यानी यह पता ही नहीं चला कि बाद में क्या कदम उठाए गए या रोग को कैसे नियंत्रित किया गया।

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने कहा है कि देश में खसरा, चिकनपॉक्स और डेंगू जैसी बीमारियों पर अलग-अलग विश्लेषण हुए हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर जूनोटिक प्रकोपों पर अब तक कोई समग्र अध्ययन नहीं हुआ है। यही वजह है कि उन्होंने राष्ट्रीय निगरानी प्रणाली के तहत उन क्षेत्रों को चिन्हित किया जहां जानवरों से इंसानों में फैलने वाले रोगों के प्रकोप ज्यादा सामने आए हैं। हालांकि साप्ताहिक रिपोर्टों में कई गंभीर खामियां पाई गई, खासकर फॉलो-अप जानकारी की कमी सबसे ज्यादा चिंताजनक थी। ऐसे में शोधकर्ताओं ने इन खामियों को दूर करने के लिए उन क्षेत्रों में जहां जूनोटिक रोगों का प्रकोप सबसे ज्यादा है, वहां बीमारी को ध्यान में रखते हुए विशेष निगरानी तंत्र को मजबूत करने की आवश्यकता है।

अध्ययन से पता चला है कि दुनियाभर में महामारी और प्रकोपों का बड़ा कारण नई या दोबारा से उभरती बीमारियां हैं, जिनमें से करीब दो-तिहाई रोग जानवरों से इंसानों में फैलते हैं। देखा जाए तो इसके लिए कहीं न कहीं हम इंसान ही जिम्मेवार हैं। मानव गतिविधियां और पर्यावरण में हो रहे बदलाव, जैसे कि जंगलों की कटाई और वन्यजीवों के रहने की जगह में बढ़ता दखल, इंसानों और जानवरों के बीच संपर्क को बढ़ा रहा है। इससे जूनोटिक रोगों के फैलने का खतरा भी बढ़ रहा है।

कैसे इंसानों में फैलती हैं जूनोटिक बीमारियां

आमतौर पर यह बीमारियां तब फैलती हैं जब कोई वायरस अपने मेजबान (होस्ट) से अलग एक नया होस्ट खोजने में सक्षम हो जाता है। उदाहरण के लिए यदि कोई जानवर किसी खास वायरस से ग्रस्त है और वो किसी प्रकार इंसानों या दूसरे जानवरों के संपर्क में आता है तो वो उन्हें भी संक्रमित कर देता है। इस तरह यह बीमारियां एक से दूसरे के जरिए पूरे समाज में फैलना शुरू कर देती हैं।

इस तरह का प्रसार तब ज्यादा होता है जब वायरस इंसान जैसे होस्ट के संपर्क में आता है या फिर उनमें म्यूटेशन होने लगते हैं। देखा जाए तो इंसान और जानवरों के बीच भौतिक नजदीकी इस वायरस को इंसानों में फैलने के लिए आदर्श परिस्थितियां बनाती है। पिछले 100 वर्षों से जुड़े आंकड़ों को देखें तो औसतन हर साल दो वायरस अपने प्राकृतिक वातावरण से निकलकर इंसानों में फैल रहे हैं, लेकिन प्रकृति के विनाश की बढ़ती दर इनके फैलने के खतरे को और बढ़ा रही है।

ये बीमारियां पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय हैं, लेकिन कमजोर और निम्न-मध्यम आय वाले देशों में यह समस्या कहीं ज्यादा गंभीर है। इन देशों में तेजी से बढ़ती इंसानी गतिविधियों के कारण वन्यजीवों और इंसानों के बीच टकराव बढ़ रहा है, जिससे जानवरों से इंसानों में रोग फैलने की घटनाएं ज्यादा हो रही हैं। संयुक्त राष्ट्र ने भी अपनी रिपोर्ट में चेताया है कि नई उभरती जूनोटिक बीमारियां 2030 तक एक और महामारी को जन्म दे सकती हैं।

इंसान खुद लिख रहा अपने विनाश की पटकथा

रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण में लगातार हो रहे बदलावों ने प्रजातियों के आवास क्षेत्रों को बुरी तरह प्रभावित किया है। इसकी वजह से प्रजातियों के बीच नए संपर्क पैदा हो रहे हैं, जिससे जानवरों से इंसानों में बीमारियों के फैलने यानी ‘जूनोटिक स्पिलओवर’ का खतरा बढ़ गया है। ऐसे में रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि यह जूनोटिक स्पिलओवर एक और महामारी को जन्म दे सकते हैं। रिपोर्ट में कोविड-19, इबोला, एच5एन1, मर्स, निपाह, सार्स और इन्फ्लूएंजा ए/एच1एन1 जैसे पिछले प्रकोपों पर संज्ञान लिया गया है, जिनके कारण बड़े पैमाने पर इंसानी जीवन और आर्थिक नुकसान हुआ है।

सेंटर फॉर सांइस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा 2022 में आयोजित अनिल अग्रवाल डायलॉग में सीएसई के सतत खाद्य प्रणाली के कार्यक्रम निदेशक अमित खुराना ने जानकारी देते हुए बताया था कि जूनोटिक बीमारियों का खतरा जलवायु परिवर्तन के कारण और अधिक बढ़ गया है। उनके मुताबिक मनुष्यों में 60 फीसदी से अधिक संक्रामक रोग जूनोटिक हैं। उन्होंने यह भी जानकारी दी कि जूनोटिक की वजह से 260 करोड़ लोग प्रभावित हो रहे हैं और साथ ही हर साल इनकी वजह से 30 लाख लोगों की जान जा रही है।

जर्नल बीएमजे ग्लोबल हेल्थ में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन के मुताबिक कुछ जूनोटिक बीमारियां 2050 तक 12 गुणा ज्यादा लोगों की जान ले सकती हैं। ऐसे में वैज्ञानिकों के अनुसार इन बीमारियों के लिए तैयार रहने की जरूरत है। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य पर मंडराते इस खतरे को सीमित करने के लिए तत्काल कार्रवाई की दरकार है।

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार ) 

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