सत्यम कुमार
विशेषज्ञों का कहना है कि अगर बिहार ने जल्दी एएमआर नीति नहीं बनाई, तो यह सिर्फ राज्य के लिए ही नहीं, पूरे देश के लिए खतरा बन सकता है। पटना की तनुषी दुबे को कर्नाटक में ई. कोलाई संक्रमण के लिए 200 मिलीग्राम एंटीबायोटिक दी गई, लेकिन पटना में बिना टेस्ट के 500 मिलीग्राम लिख दी गई। प्राइवेट अस्पतालों की फार्मेसी में महंगी और अनावश्यक गैस की दवाएं भी दी जाती हैं, जिससे उन्हें परेशानी हुई।
तनुषी की तरह न जाने कितने मरीजों को बिहार में बेवजह एंटीबॉयोटिक्स के साथ-साथ अनावश्यक गैस की दवाएं खिलाई जा रही है। एमपीडीआई जर्नल ‘एंटीबायोटिक्स’ में जुलाई 2025 में एक नई स्टडी आई है। इसमें बिहार के पांच सरकारी अस्पतालों नालंदा मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल (एनएमसीएच) पटना, दरभंगा मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल (डीएमसीएच) दरभंगा, श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल (एसकेएमसीएच) मुजफ्फरपुर, जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल (जेएलएनएमसीएच) भागलपुर और होमी भाभा कैंसर अस्पताल एवं अनुसंधान केंद्र (एचबीसीएच) मुजफ्फरपुर से 2022-2024 के बीच 48,000 से ज्यादा सैंपल्स (मूत्र, मवाद और खून) की जांच की गई। नतीजे चौंकाने वाले हैं। कई आम एंटीबायोटिक्स अब 90 प्रतिशत तक बेअसर हो चुके हैं। स्टडी कहती है कि बिहार में इन दवाओं का असर तेजी से कम हो रहा है और बैक्टीरिया अब इन पर काम नहीं करते। जैसे, ई. कोलाई बैक्टीरिया के लिए नाइट्रोफ्यूरेंटॉइन पटना के एनएमसीएच में 86.5 प्रतिशत असरदार थी, लेकिन भागलपुर के जेएलएनएमसीएच में यह घटकर 44.7 प्रतिशत रह गई।
क्लेबसिएला बैक्टीरिया पर सेफालोस्पोरिन दवाओं का असर कई जगहों पर 2 प्रतिशत से भी कम पाया गया। स्टैफिलोकोकस ऑरियस के नतीजे और चिंताजनक हैं। देशभर में लाइनीजोलिड 97.7 प्रतिशत, क्लिंडामाइसिन 77.1 प्रतिशतऔर वैनकोमाइसिन 100 प्रतिशत असरदार हैं, लेकिन बिहार में एनएमसीएच पटना में लाइनीजोलिड 58.3 प्रतिशत और एसकेएमसीएच मुजफ्फरपुर में सिर्फ 42.5 प्रतिशत ही काम करती है। यह दवाओं के ज्यादा इस्तेमाल या लैब टेस्टिंग, डिस्क क्वालिटी और स्टोरेज की समस्याओं से हो सकता है। जेएलएनएमसीएच भागलपुर में क्लिंडामाइसिन 78.9 प्रतिशत असरदार पाई गई, जो देश के औसत (77.1 प्रतिशत) के करीब है। सबसे गंभीर स्थिति एमआरएसए (मेथिसिलिन-रेसिस्टेंट स्टैफिलोकोकस ऑरियस) की है। दो अस्पतालों में इसकी दर 65 प्रतिशत से ज्यादा है, जबकि देश का औसत सिर्फ 47.8 प्रतिशत है। स्टडी में पता चला कि मैनुअल टेस्टिंग, गलत कल्चर मीडिया और क्वालिटी चेक की कमी से परेशानियां हैं। रोजाना ओपीडी मरीजों में से सिर्फ 2 प्रतिशत से कम की जांच हुई, जो जांच की बड़ी कमी दिखाता है।
विशेषज्ञों की राय
शोधकर्ता बिबेकानंद भोई ने बताया कि बिहार के 5 अस्पतालों में एक सर्वे किया गया। इनमें सिर्फ इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान (आईजीआईएमएस), पटना में ही डिजिटल डेटा दर्ज हो रहा था। बाकी अस्पतालों में मैनुअल तरीका था, जिससे सरकार तक सही और पूरा डेटा नहीं पहुंच पा रहा। भोई कहते हैं, “अभी भी कई अस्पतालों में डिजिटल डेटा कलेक्शन नहीं है, जो बड़ी समस्या है। अगर डिजिटल सर्विलांस हो, तो माइक्रोबायोलॉजिस्ट का डेटा सीधे डॉक्टर तक पहुंचेगा। इससे सही दवा मिलेगी और इलाज बेहतर होगा।” विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2017 में ए.डब्ल्यू.ए.आर.ई. वर्गीकरण शुरू किया, जो 2021 और 2023 में अपडेट हुआ। इसका मकसद एंटीबायोटिक्स का सही इस्तेमाल कर एएमआर को रोकना है। भोई बताते हैं, “एज़िथ्रोमाइसिन जैसी ‘वॉच’ ग्रुप दवा बिना प्रिस्क्रिप्शन मिल जाती है, जिससे रेजिस्टेंस तेजी से बढ़ रहा है।” आईसीएमआर-एएमआरएएन (2023) के राष्ट्रीय औसत से तुलना में बिहार की तस्वीर और भी भयावह है। यही कारण है कि भोई बिहार को “देश का एएमआर हॉटस्पॉट” कह रहे हैं।
स्टेट सर्विलांस ऑफिसर, स्टेट हेल्थ सोसाइटी, बिहार, डॉ. रागिनी मिश्रा ने बताया कि बिहार स्वास्थ्य विभाग एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस (एएमआर) से निपटने के लिए वन हेल्थ पॉलिसी ला रहा है। यह पॉलिसी इंसानों के साथ-साथ पशुओं और पर्यावरण पर भी नजर रखेगी। उन्होंने कहा कि इस साल (2025) के अंत तक पॉलिसी फाइनल होकर लागू हो सकती है। भारत सरकार की मंजूरी के बाद इसे बिहार में शुरू करेंगे। पॉलिसी में एक राज्य स्तरीय डिजिटल डैशबोर्ड बनेगा, जिसमें दवाओं की खरीद और इस्तेमाल का डेटा होगा। जिला स्तर पर निगरानी तंत्र भी मजबूत होगा, ताकि एएमआरएएमआर पर काबू पाया जा सके। आईजीआईएमएस पटना की माइक्रोबायोलॉजी विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. नम्रता कुमारी कहती हैं कि बिहार में लोग बिना जरूरत एंटीबायोटिक ले रहे हैं। पशु-चिकित्सा में भी बिना सोचे-समझे दवाएं दी जा रही हैं, जिससे एंटीबायोटिक का दुरुपयोग खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है। उनका मानना है कि हर अस्पताल में एंटीबायोटिक इस्तेमाल की साफ नीति होनी चाहिए। सबसे जरूरी है एएमआरएमआर सर्विलांस सिस्टम, यानी यह जानना कि कौन से बैक्टीरिया किस दवा से बच रहे हैं। कुछ बैक्टीरिया अब “सुपरबग्स” बन गए हैं, जिन पर कोई दवा काम नहीं करती।
डॉक्टर कुमारी बताती हैं कि आईजीआईएमएस पटना, बिहार की एकमात्र ऐसी संस्था है जो एनसीडीसी से जुड़ी है, इसलिए यहाँ की माइक्रोबायोलॉजी लैब बहुत ज़रूरी है। लेकिन चिंता की बात यह है कि एण्टीबायोटिक बनाने पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। वे कहती हैं कि एएमआर को रोकने के लिए सख़्त बचाव और नियंत्रण की योजना बहुत ज़रूरी है। “जो भी योजना बने, उसे केवल कागज़ों पर न रखें, ज़मीन पर लागू करें, यही एकमात्र उपाय है।” नालंदा मेडिकल कॉलेज अस्पताल के माइक्रोबायोलॉजी विभागाध्यक्ष डॉ. संजय कुमार ने कहा कि बिहार में एंटीबायोटिक दवाओं का गलत या बेवजह इस्तेमाल अब बड़ा खतरा बन गया है। डॉ. संजय का कहना है कि हर अस्पताल को अपनी एंटीबायोटिक पॉलिसी बनानी चाहिए। इसके साथ ही, राज्य में कितने झोलाछाप (क्वैक) डॉक्टर काम कर रहे हैं इसकी कोई सही जानकारी नहीं है। इन्हें चिन्हित कर प्रशिक्षण और जागरूकता देना जरूरी है। “बिहार में एक और समस्या है कि लोग बिना डॉक्टर से पूछे खुद ही दवा खरीदकर खा लेते हैं। यह आदत लंबे समय में बहुत खतरनाक हो सकती है,” उन्होंने कहा।
जन स्वास्थ्य कार्यकर्ता डॉ. शकील का कहना है कि बिहार में AMR आधुनिक चिकित्सा के लिए एक गंभीर चुनौती बनता जा रहा है। “सबसे बड़ी समस्या यह है कि एंटीबायोटिक लिखने का कोई मानक लागू नहीं है। मानक सिर्फ सरकारी डॉक्टरों पर लागू होता है, जबकि बिहार में दो-तिहाई मरीज प्राइवेट डॉक्टरों के पास जाते हैं, और उनमें से अधिकतर योग्य नहीं होते। गाँवों में डायरिया के वायरल केस में भी ये झोलाछाप डॉक्टर एंटीबायोटिक दे देते हैं। नतीजा यह होता है कि असली बैक्टीरियल डायरिया पर भी वही दवा असर करना बंद कर देती है,” वे कहते हैं।
डॉ. शकील बताते हैं कि दूसरी समस्या “क्रॉस-पैथी प्रिस्क्रिप्शन” है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे प्रतिबंधित किया है, लेकिन बिहार के कई सरकारी अस्पतालों में भी आयुष डॉक्टर एंटीबायोटिक दवाएँ लिखते पाए जाते हैं। सरकार दिखाती है कि मरीजों का इलाज हो रहा है और दवाएँ बंट रही हैं, लेकिन यह नहीं देखती कि कौन दवा लिख रहा है। यही सबसे बड़ी मुसीबत है,” वे जोड़ते हैं। उनके मुताबिक, बिहार में एंटीबायोटिक मार्केट का आकार उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा सबसे बड़ा है, जबकि यूपी की जनसंख्या लगभग दोगुनी है। यही वजह है कि दवाओं का अत्यधिक इस्तेमाल हो रहा है और गरीबों की जेब पर सीधा असर पड़ रहा है। इसे रोकने के लिए ओवर-द-काउंटर दवाओं की बिक्री बंद करनी होगी और सख्त पॉलिसी लानी होगी,” डॉ. शकील कहते हैं।
राष्ट्रीय ढांचा बनाम बिहार की हकीकत
भारत ने 2011 में एएमआर (एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस) को रोकने की राष्ट्रीय नीति बनाई थी। इसके बाद 2017 में नेशनल एक्शन प्लान ऑन एएमआर शुरू हुआ और जुलाई 2018 में सभी राज्यों को अपने-अपने राज्य एक्शन प्लान बनाने को कहा गया। लेकिन अभी तक भारत में सिर्फ कुछ ही राज्यों ने अपने राज्य के एक्शन प्लान बनाए या लागू किए हैं। ये राज्य हैं- केरल, मध्य प्रदेश, दिल्ली, आंध्र प्रदेश, गुजरात, सिक्किम, तेलंगाना और पंजाब। अगर बिहार ने जल्दी एएमआर नीति नहीं बनाई, तो यह सिर्फ राज्य के लिए ही नहीं, पूरे देश के लिए खतरा बन सकता है। क्योंकि संक्रमण किसी सीमा को नहीं मानते। नीति आयोग (2021) की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार का सतत विकास लक्ष्य इंडेक्स में स्कोर सिर्फ 52 रहा, जो देश में सबसे नीचे के दो राज्यों में से एक है। यह गरीबी, अशिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक कम और असमान पहुंच को दिखाता है। बिहार, जो भारत का तीसरा सबसे ज्यादा आबादी वाला राज्य है (13 करोड़ से ज्यादा लोग), पहले से टीबी, कालाजार और लेप्रोसी जैसी बीमारियों से जूझ रहा है। अब एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस की समस्या इसे और गंभीर बना रही है।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )