ललित मौर्या

आज हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां सोशल मीडिया, मैसेजिंग ऐप्स, वीडियो कॉल्स और वर्चुअल मीटिंग्स ने जुड़ाव के अनगिनत रास्ते खोल दिए हैं। एक क्लिक पर दोस्त मिलते हैं, देश-दुनिया की खबर मिलती है, और स्क्रीन पर हजारों मुस्कराते चेहरे दिखते हैं। लेकिन इसी तकनीकी रोशनी के पीछे एक साया लगातार गहराता जा रहा है और वो है अकेलापन।

विडम्बना यह है कि इतने “कनेक्टेड” युग में, दुनिया का हर छठा व्यक्ति खुद को अलग-थलग और अकेला महसूस कर रहा है। यह अकेलापन सिर्फ मानसिक पीड़ा ही नहीं दे रहा, बल्कि हर साल लाखों जिंदगियों को भी निगल रहा है। एक नई रिपोर्ट से पता चला है कि यह अकेलापन दुनिया भर में हर घंटे 100 से ज्यादा लोगों की जान ले रहा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के कमिशन ऑन सोशल कनेक्शन ने अपनी नई रिपोर्ट में खुलासा किया है कि यह समस्या हर साल 8.7 लाख से ज्यादा लोगों की जान ले रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक मजबूत सामाजिक रिश्ते न सिर्फ मानसिक संतुलन को बनाए रखते हैं, बल्कि जीवन को लंबा और स्वस्थ भी बनाते हैं। सोशल कनेक्शन कमिशन के सह-अध्यक्ष और अमेरिका के पूर्व सर्जन जनरल डॉक्टर विवेक मूर्ति का इस बारे में कहना है, “यह रिपोर्ट आज के समय की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक —अकेलेपन और सामाजिक अलगाव—पर से पर्दा हटाती है। इस रिपोर्ट का मकसद एक ऐसा रोडमैप देना है जिससे दुनिया के लोग फिर से एक-दूसरे से जुड़ सकें।“ उनके मुताबिक यह जुड़ाव स्वास्थ्य, शिक्षा और अर्थव्यवस्था पर गहरा असर डाल सकता है।

अकेलेपन की महामारी

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, सामाजिक जुड़ाव का मतलब है—लोगों का एक-दूसरे से जुड़ना और बातचीत करना। अकेलापन वह दर्दनाक भावना है जो तब महसूस होती है जब किसी व्यक्ति को जितना जुड़ाव चाहिए, उतना मिल नहीं पाता। वहीं, सामाजिक अलगाव उस स्थिति को कहा जाता है जब किसी के पास पर्याप्त सामाजिक रिश्ते ही नहीं होते। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के प्रमुख डॉक्टर टेड्रोस एडनॉम घेब्रेयेसस का कहना है कि “आज के दौर में जहां तकनीकों की मदद से जुड़ाव के अनगिनत साधन हैं, वहीं लोग पहले से ज्यादा अकेले और अलग-थलग महसूस कर रहे हैं। यह अकेलापन सिर्फ व्यक्ति ही नहीं, बल्कि परिवार और समुदायों को भी प्रभावित कर रहा है। अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया, तो यह स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में समाज को अरबों डॉलर का नुकसान पहुंचाता रहेगा।”

कॉल लिस्ट लंबी, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं

रिपोर्ट के मुताबिक अकेलापन सभी उम्र के लोगों को प्रभावित कर रहा है, लेकिन इसके सबसे ज्यादा शिकार युवा और निम्न व मध्यम आय वाले देशों में रहने वाले लोग हैं। आंकड़ों के मुताबिक 13 से 29 साल की उम्र के 17 से 21 फीसदी युवा खुद को अकेला महसूस करते हैं। किशोरों में यह संख्या सबसे अधिक है। कमजोर देशों में करीब 24 फीसदी लोग अपने आप को अकेला महसूस करते हैं, जोकि अमीर देशों से करीब दोगुना है। अमीर देशों में खुद को अकेला महसूस करने वालों का आंकड़ा 11 फीसदी दर्ज किया गया है। हालांकि सामाजिक अलगाव से जुड़े आंकड़े सीमित हैं, लेकिन अनुमान है कि हर तीन में से एक बुजुर्ग और चार में से एक किशोर इस समस्या से पीड़ित है। कुछ समूह—जैसे विकलांग, शरणार्थी या प्रवासी, समलैंगिक, ट्रांसजेंडर, आदिवासी और जातीय अल्पसंख्यक—अक्सर भेदभाव या ऐसी बाधाओं का सामना करते हैं, जिसके चलते उनके लिए दूसरों से जुड़ना और भी मुश्किल हो जाता है।

अकेलेपन और सामाजिक अलगाव के कई कारण हो सकते हैं, जैसे खराब स्वास्थ्य, कम आय और शिक्षा, अकेले रहना, कमजोर सामुदायिक सुविधाएं, कमजोर नीतियां और डिजिटल तकनीकों का असर। रिपोर्ट में खास तौर पर चेताया है कि ज्यादा स्क्रीन टाइम और नकारात्मक ऑनलाइन व्यवहार युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल सकते हैं। गौरतलब है कि जहां सामाजिक जुड़ाव स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है, गंभीर बीमारियों के खतरा को कम करता है। मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है और असमय मृत्यु की आशंका को कम कर देता है। साथ ही, यह सामाजिक एकता को भी मजबूत करता है, जिससे समुदाय ज्यादा सुरक्षित, स्वस्थ और खुशहाल बनते हैं। वहीं दूसरी तरफ अकेलेपन और सामाजिक अलगाव से स्ट्रोक, दिल की बीमारी, डायबिटीज, याद्दाश्त में गिरावट और असमय मृत्यु का खतरा बढ़ जाता है।

क्या घट रहे हैं एहसास

इतना ही नहीं मानसिक रूप से भी इसका असर गहरा होता है। अकेले रहने वाले लोगों के डिप्रेशन का शिकार होने की आशंका दोगुनी होती है। इतना ही नहीं यह चिंता, अवसाद, आत्मघात जैसे विचार या खुद को नुकसान पहुंचाने की भावना को भी बढ़ा सकता है।

इतना ही नहीं अकेलापन पढ़ाई और रोजगार पर भी असर डालता है। जो किशोर अकेला महसूस करते हैं, उनके कम अंक आने की आशंका 22 फीसदी अधिक होती है। वहीं वयस्कों के लिए नौकरी पाना या बनाए रखना मुश्किल हो जाता है, और इससे उनकी कमाई भी घट सकती है। इसका असर समाज पर भी पड़ता है। सामाजिक जुड़ाव की कमी से समुदायों में विश्वास और एकता घटती है, जिससे स्वास्थ्य सेवाओं, उत्पादकता और सुरक्षा पर असर पड़ता है। इसके विपरीत, जिन समुदायों में सामाजिक रिश्ते मजबूत होते हैं, वे न सिर्फ ज्यादा सुरक्षित और स्वस्थ होते हैं, बल्कि आपदाओं से निपटने में भी अधिक सक्षम होते हैं।

उम्मीदों के घरोंदे

रिपोर्ट में इस समस्या से उबरने के लिए एक रोडमैप भी प्रस्तुत किया गया है। इसमें पांच मुख्य क्षेत्रों पर जोर दिया गया है। इसमें बेहतर नीतियां, शोध, जरूरी हस्तक्षेप, बेहतर आंकड़े जुटाना (जैसे ग्लोबल सोशल कनेक्शन इंडेक्स बनाना), और जनता की भागीदारी सुनिश्चित करना शामिल है, ताकि सामाजिक सोच बदली जा सके और जुड़ाव को बढ़ावा दिया जा सके। रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि अकेलेपन और सामाजिक अलगाव को कम करने के समाधान राष्ट्रीय, सामुदायिक और व्यक्तिगत सभी स्तरों पर मौजूद हैं। इनमें जागरूकता बढ़ाना, सरकारी नीतियों में बदलाव लाना, सामाजिक ढांचे को मजबूत करना (जैसे पार्क, पुस्तकालय, कैफे आदि), और मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं देना शामिल हैं।

देखा जाए तो ज्यादातर लोग अकेलेपन के दर्द को समझते हैं। ऐसे में हर व्यक्ति अपनी छोटी-छोटी कोशिशों से बड़ा बदलाव ला सकता है। जैसे किसी जरूरतमंद दोस्त से बात करना, बातचीत के समय मोबाइल दूर रखना, पड़ोसी का अभिवादन करना, किसी स्थानीय समूह में शामिल होना, या फिर स्वेच्छा से सेवा देना। वहीं अगर समस्या ज्यादा गंभीर हो, तो उपलब्ध सहायता और सेवाओं के बारे में जानकारी लेना बेहद जरूरी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सभी देशों, समुदायों और लोगों से अपील की है कि वे सामाजिक जुड़ाव को सार्वजनिक स्वास्थ्य की प्राथमिकता बनाएं, क्योंकि सही जुड़ाव ही हमारे स्वास्थ्य, खुशहाली और एकजुटता की असली ताकत है।

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

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