दयानिधि

डिप्रेशन और चिंता की वजह से हर साल दुनिया की अर्थव्यवस्था को लगभग एक ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान केवल कामकाजी क्षमता घटने से होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की नई रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में एक अरब से अधिक लोग मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं। इनमें सबसे आम हैं – चिंता और अवसाद। इन बीमारियों का असर न केवल इंसान के जीवन और सेहत पर पड़ता है, बल्कि यह अर्थव्यवस्था पर भी भारी बोझ डालता है।

डब्ल्यूएचओ की दो ताजा रिपोर्टें – वर्ल्ड मेंटल हेल्थ टुडे और मेंटल हेल्थ एटलस 2024 बताती हैं कि हालांकि कई देशों ने मानसिक स्वास्थ्य के लिए नीतियां और कार्यक्रम बनाए हैं, लेकिन अभी भी सेवाओं और निवेश की कमी है।

मानसिक स्वास्थ्य: बढ़ती वैश्विक चुनौती

मानसिक बीमारियां अब लंबे समय तक विकलांगता का दूसरा सबसे बड़ा कारण बन गई हैं। केवल साल 2021 में 7.27 लाख लोगों ने आत्महत्या की और यह युवाओं में मौत का एक बड़ा कारण है। डिप्रेशन और चिंता की वजह से हर साल दुनिया की अर्थव्यवस्था को लगभग एक ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान केवल कामकाजी क्षमता घटने से होता है। डब्ल्यूएचओ ने चेतावनी दी है कि मौजूदा हालात में दुनिया संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) आत्महत्या की दर को 2030 तक एक-तिहाई घटाने को हासिल नहीं कर पाएगी। वर्तमान गति से केवल 12 फीसदी की कमी ही संभव है।

क्या कहती है रिपोर्ट?

रिपोर्ट बताती है कि मानसिक बीमारियों का बोझ महिलाओं पर पुरुषों की तुलना में अधिक है। सरकारें स्वास्थ्य बजट का औसतन केवल दो फीसदी हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करती हैं, जो 2017 से अब तक नहीं बदला। अमीर देश प्रति व्यक्ति मानसिक स्वास्थ्य पर 65 डॉलर तक खर्च करते हैं, जबकि गरीब देश सिर्फ 0.04 डॉलर खर्च कर पाते हैं। औसतन दुनिया में हर एक लाख लोगों पर केवल 13 मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं और यह संख्या गरीब देशों में और भी कम है। अब तक केवल 10 फीसदी से भी कम देशों ने पूरी तरह से सामुदायिक-आधारित देखभाल शुरू की है। अधिकतर देश अब भी मानसिक अस्पतालों पर निर्भर हैं, जहां आधे से अधिक रोगियों को जबरदस्ती भर्ती किया जाता है।

सकारात्मक बदलाव

कई देशों ने अधिकार-आधारित नीतियां बनाई हैं और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं में शामिल करना शुरू कर दिया है। अभी 71 फीसदी देश डब्ल्यूएचओ के मानकों पर खरे उतरते हैं। स्कूलों, आत्महत्या रोकथाम कार्यक्रमों और बच्चों के शुरुआती विकास पर आधारित मानसिक स्वास्थ्य पहल बढ़ रही हैं। आपातकालीन हालात में मानसिक सहायता देने की क्षमता भी तेजी से बढ़ी है। 2020 में जहां केवल 39 फीसदी देशों में यह सुविधा थी, अब 80 फीसदी से अधिक देशों में यह उपलब्ध है। ऑनलाइन टेलीहेल्थ सेवाएं और बाहरी रोगी सुविधाएं भी बढ़ रही हैं, हालांकि इनकी पहुंच अभी समान नहीं है।

डब्ल्यूएचओ की चेतावनी और अपील

रिपोर्ट में डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक डॉ.टेड्रोस अधनोम घेब्रेयेससके हवाले से कहा गया है कि मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को बदलना आज की सबसे बड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती है। मानसिक स्वास्थ्य में निवेश करना मतलब लोगों, समुदायों और अर्थव्यवस्था में निवेश करना है। हर देश और हर नेता की जिम्मेदारी है कि मानसिक स्वास्थ्य को एक बुनियादी अधिकार मानकर तुरंत कदम उठाएं।

आगे की दिशा

इन रिपोर्टों के निष्कर्ष आने वाले दिनों में होने वाली संयुक्त राष्ट्र की उच्च स्तरीय बैठक के लिए बेहद अहम हैं। यह बैठक 25 सितम्बर 2025 को न्यूयॉर्क में होगी और इसमें गैर-संचारी रोगों तथा मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण पर चर्चा होगी। स्पष्ट है कि मानसिक स्वास्थ्य अब केवल एक व्यक्तिगत या पारिवारिक समस्या नहीं रह गई है, बल्कि यह वैश्विक स्वास्थ्य और विकास की बड़ी चुनौती बन चुकी है। आंकड़े बताते हैं कि अरबों लोग इसके बोझ तले दबे हैं और हर साल लाखों लोग जान गंवा रहे हैं।

अगर दुनिया को आत्महत्या की दर घटानी है, लोगों की उत्पादकता और जीवन की गुणवत्ता बढ़ानी है, तो सरकारों को निवेश बढ़ाना होगा, मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की संख्या बढ़ानी होगी और समुदाय-आधारित देखभाल को प्राथमिकता देनी होगी। मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं कोई विलासिता नहीं बल्कि हर व्यक्ति का अधिकार हैं। डब्ल्यूएचओ का यह संदेश हम सबके लिए चेतावनी भी है और अवसर भी, ताकि समय रहते मानसिक स्वास्थ्य को उतनी ही गंभीरता से लिया जाए जितनी शारीरिक स्वास्थ्य को दी जाती है।

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

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