ललित मौर्या
क्या आप जानते हैं कि आपकी सांसों के साथ शरीर में जाता जहर धीमे-धीमे आपके दिमाग को खोखला कर रहा है? एक नए वैश्विक अध्ययन से पता चला है कि लम्बे समय तक प्रदूषित हवा में सांस लेने से डिमेंशिया यानी मनोभ्रंश जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।
कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से जुड़े वैज्ञानिकों के नेतृत्व में किए इस अध्ययन के मुताबिक वायु प्रदूषण, विशेषकर वाहनों में धुएं के साथ निकलने वाले महीन कण, अब सिर्फ फेफड़ों तक सीमित नहीं हैं, वे मस्तिष्क तक पहुंचकर डिमेंशिया जैसी गंभीर बीमारियों के खतरे को बढ़ा सकते हैं। यह अध्ययन तीन करोड़ लोगों के आंकड़ों पर आधारित है। अध्ययन में पाया गया है कि तीन प्रमुख प्रदूषकों पीएम2.5, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड और कालिख का डिमेंशिया के बढ़ते खतरे से सीधा संबंध है। अध्ययन के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल लैंसेट प्लेनेटरी हेल्थ में प्रकाशित हुए हैं।
निष्कर्ष दर्शाते हैं कि प्रदूषण के महीन कणों (पीएम2.5) में हर 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि के साथ डिमेंशिया का खतरा 17 फीसदी तक बढ़ जाता है। वहीं नाइट्रोजन डाइऑक्साइड में हर 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि से यह खतरा तीन फीसदी तक बढ़ सकता है। ऐसा ही कुछ कालिख (सूट) के मामले में भी देखने को मिला है जिसके हर माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि के साथ डिमेंशिया के खतरे में 13 फीसदी का इजाफा दर्ज किया गया। बता दें कि यह कण वाहनों, फैक्ट्रियों, कोयला और लकड़ी जैसे जीवाश्म ईंधन को जलाने से निकलते हैं जो लंबे समय तक हवा में बने रह सकते हैं।
गौरतलब है कि डिमेंशिया या मनोभ्रंश आमतौर पर उम्र के बढ़ने के साथ होने वाली एक समस्या है। लेकिन बढ़ता प्रदूषण और खराब जीवनशैली भी इसके लिए जिम्मेवार हैं। यह ऐसा विकार है, जिसमें मरीज मानसिक रूप से इतना कमजोर हो जाता है कि उसे अपने रोजमर्रा के कामों को पूरा करने के लिए भी दूसरों की मदद लेनी पड़ती है। विशेषज्ञों की मानें तो डिमेंशिया एक ऐसा विकार है, जिसमें दिमाग के अंदर विभिन्न प्रकार के प्रोटीन का निर्माण होने लगता है, जो मस्तिष्क के उत्तकों को नुकसान पहुंचाने लगते हैं। इसके कारण इंसान की याददाश्त, सोचने-समझने, देखने और बोलने की क्षमता में धीरे-धीरे गिरावट आने लगती है। इसके लक्षणों में याददाश्त खोना, ध्यान केंद्रित करने में परेशानी होना और मिजाज में बदलाव शामिल हैं।

भारत में भी मनोभ्रंश से पीड़ित हैं आठ फीसदी से अधिक बुजुर्ग
दुनिया में यह विकास किस तेजी से फैल रहा है, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि 2019 में वैश्विक स्तर पर डिमेंशिया के 5.7 करोड़ मामले आए थे, वहीं अनुमान है कि 2050 तक यह आंकड़ा 166 फीसदी की वृद्धि के साथ बढ़कर 15.3 करोड़ पर पहुंच जाएगा। रुझानों के मुताबिक हर साल इस बीमारी के एक करोड़ नए मामले सामने आ रहे हैं। यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो 2019 से 2050 के बीच डिमेंशिया के मरीजों की संख्या तीन गुणा बढ़ जाएगी। इसका न केवल मरीजों, उनके परिवारों बल्कि पूरे समाज पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा।
यदि भारत से जुड़े आंकड़ों पर गौर करें तो देश में आठ फीसदी से अधिक बुजुर्ग मनोभ्रंश से पीड़ित हैं। मतलब की एक करोड़ से ज्यादा बुजुर्ग इसका शिकार बन चुके हैं। एक अन्य रिसर्च से पता चला है कि भारत में 2050 तक डिमेंशिया के मरीज 197 फीसदी तक बढ़ सकते हैं।
कैसे डिमेंशिया का कारण बनता है प्रदूषण?
शोधकर्ताओं का मानना है कि वायु प्रदूषण से मस्तिष्क में सूजन और ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस उत्पन्न होता है, जिससे मस्तिष्क की कोशिकाओं, प्रोटीन और डीएनए को नुकसान पहुंचता है। यह डिमेंशिया की शुरुआत और विकास में भूमिका निभाता है। प्रदूषण के ये महीन कण सीधे मस्तिष्क में प्रवेश कर सकते हैं या रक्त के जरिए शरीर के अन्य अंगों में जाकर सूजन पैदा कर सकते हैं। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि इस विषय पर अब तक किए ज्यादातर शोध अमीर उच्च-आय वाले देशों पर किए गए हैं, जबकि वायु प्रदूषण का सबसे ज्यादा असर वंचित समुदायों पर पड़ता है। ऐसे में भविष्य में किए जाने वाले अध्ययन में उन्हें भी शामिल किए जाने की आवश्यकता है।
शोधकर्ताओं का यह भी मानना है कि डिमेंशिया को रोकने के लिए केवल स्वास्थ्य व्यवस्था ही नहीं, बल्कि शहरी नियोजन, परिवहन नीति और पर्यावरण संबंधी नियमों की भी अहम भूमिका है। इससे न केवल लोगों के स्वास्थ्य में सुधार होगा, बल्कि स्वास्थ्य सेवाओं पर पड़ने वाला बोझ भी कम होगा। यह अध्ययन स्पष्ट संकेत देता है कि साफ हवा केवल पर्यावरण की ही नहीं, बल्कि मस्तिष्क की भी जरूरत है। ऐसे में यदि हम वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने में सफल रहते हैं, तो डिमेंशिया जैसे गंभीर रोगों के खतरे को भी काफी हद तक कम किया जा सकता है।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )