दयानिधि
भारत में जहां सालभर लगभग सूरज की रोशनी अधिक होती है, विटामिन डी की कमी होना आश्चर्यजनक लगता है। लेकिन मजेदार बात यह है कि हर पांच भारतीयों में से एक विटामिन डी की कमी से जूझ रहा है।
यह आंकड़े भारतीय अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद (आईसीआरआईईआर) और अनभका फाउंडेशन द्वारा ‘भारत में विटामिन डी की कमी को दूर करने के लिए रोडमैप’ नामक रिपोर्ट में जारी कि गए हैं। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि उत्तर भारत में विटामिन डी की कमी 9.4 से लेकर पूर्वी क्षेत्र में यह कमी 38.81 या लगभग 39 फीसदी के बराबर है, जो बहुत ज्यादा है।
देश के मौसम को देखते हुए, इस तरह की कमी को लेकर कोई भी संशय कर सकता है। पराबैंगनी बी (यूवीबी) किरणों का अवशोषण विटामिन डी का पहला स्रोत है। इस लोकप्रिय धारणा के बावजूद कि भारत में पूरे साल पर्याप्त धूप रहती है, वर्तमान अध्ययनों से पता चलता है कि बढ़ती आबादी, शहरीकरण और आधुनिक जीवन-शैली में बदलाव ने लोगों के सूरज की रोशनी के संपर्क को कम कर दिया है।
भारतीय शहरों में वायु प्रदूषण के कारण यूवी विकिरण त्वचा तक नहीं पहुंच पाती हैं। भारी गर्मी या सर्दी जैसे इलाकों में बाहरी गतिविधियों पर भी असर पड़ता है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि किस तरह से भीड़-भाड़ वाले आवासीय क्षेत्रों में सूर्य की रोशनी नहीं आ पाती है।
विटामिन डी की कमी के बारे में जानकारी बहुत सीमित है और इसलिए स्वास्थ्य पर इसके लंबे समय तक पड़ने वाले प्रभावों को अनदेखा कर दिया जाता है। विटामिन डी हड्डियों के लिए बहुत जरूरी है और इसकी कमी से बच्चों में रिकेट्स और वयस्कों में ऑस्टियोमलेशिया जैसे गंभीर हड्डियों से संबंधी विकार होते हैं।
मांसपेशियों में कमजोरी, थकान और अवसाद भी हो सकता है। हड्डियों के अलावा, विटामिन डी की कमी हृदय संबंधी बीमारियों, टाइप-टू मधुमेह और स्तन और प्रोस्टेट कैंसर जैसे कैंसर के बढ़ते खतरों से भी जुड़ी हुई है। रिपोर्ट में अध्ययनकर्ता के हवाले से कहा गया है कि विटामिन डी की कमी एक छुपी महामारी है जो लाखों लोगों पर असर डालती है, फिर भी इसे अक्सर अनदेखा कर किया जाता है। इसके कारण हड्डियों के कमजोर होने के साथ-साथ यह प्रतिरक्षा को कमजोर करता है, पुरानी बीमारियों के खतरों को बढ़ाता है, परिवारों और स्वास्थ्य सेवा प्रणाली पर एक बड़ा आर्थिक बोझ डालता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि इस बढ़ती महामारी से निपटने के लिए सरकार द्वारा पहल की गई है जिसमें दूध और खाद्य तेलों का उपयोग और विटामिन डी को आवश्यक दवाओं की सूची में शामिल करना शामिल है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने भारतीयों के लिए आहार संबंधी दिशा-निर्देश जारी किए हैं, जिसमें पर्याप्त धूप में रहने का सुझाव दिया गया है।
रिपोर्ट में खाने की चीजों के फोर्टिफिकेशन में कमियों की ओर भी इशारा किया गया है, जिसमें फोर्टिफिकेशन की प्रकृति, उत्पाद सुधार के लिए प्रोत्साहन की कमी, फोर्टिफिकेशन के लिए अनुमत उत्पादों की सीमित संख्या (केवल दूध और तेल), मध्याह्न भोजन प्रणाली के तहत बच्चों को दिए जाने वाले भोजन से दूध को बाहर करना, फोर्टिफिकेशन अभियान से अनौपचारिक क्षेत्र को बाहर करना आदि शामिल हैं।
विटामिन डी की कमी की पहचान व सुझाए गए उपाय
रिपोर्ट के मुताबिक, खून में विटामिन डी की स्थिति का मूल्यांकन वर्तमान में बायोमार्कर 25- हाइड्रोक्सी विटामिन डी (25 (ओएच) डी) परीक्षण करके किया जाता है, जो खून में इस विटामिन डी मेटाबोलाइट की मात्रा को मापता है। भारतीय संदर्भ में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों के अनुसार, 12 एनजी/एमएल (या 30 एनएमओएल या लीटर से नीचे) के स्तर को कमी का संकेत माना जाता है।
सूर्य से पराबैंगनी बी (यूवीबी) किरणों का अवशोषण विटामिन डी का पहला स्रोत है। लेकिन रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया है कि भारत में लगभग सालभर पर्याप्त धूप पड़ती है, लेकिन मौजूदा अध्ययनों और परामर्शों से पता चलता है कि बढ़ते प्रदूषण के स्तर, शहरीकरण और आधुनिक जीवन-शैली में बदलाव ने सूर्य के संपर्क को कम कर दिया है।
भारतीय शहरों में वायु प्रदूषण का उच्च स्तर न केवल हवा की गुणवत्ता को खराब करता है, बल्कि यूवीबी विकिरण को वायुमंडल में प्रवेश करने से भी रोकता है, जिससे त्वचा की विटामिन डी को संश्लेषित करने की क्षमता कम हो जाती है। शहरीकरण और तेजी से जनसंख्या वृद्धि के चलते घनी आबादी वाले आवासीय क्षेत्र बन गए हैं, जहां कई लोग ऊंची इमारतों या भीड़-भाड़ वाले घरों में रहते हैं, जहां सूरज की रोशनी सीमित होती है।
रिपोर्ट के मुताबिक, विटामिन डी की कमी महामारी की तरह फैल रही है, जो चुपचाप सबसे कमजोर वर्गों में से कुछ को प्रभावित कर रही है। बच्चे, किशोर, गर्भवती महिलाएं और बुजुर्गों पर सबसे ज्यादा असर पड़ रहा है। इस समस्या से निपटने के लिए तत्काल और समावेशी कार्यों की जरूरत है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से मुख्य खाद्य पदार्थों में विटामिन डी फोर्टिफिकेशन को अनिवार्य करना, विटामिन डी-टू की खुराक तक पहुंच और सामर्थ्य सुनिश्चित करना, बाहरी गतिविधियों को बढ़ावा देना और राष्ट्रव्यापी जागरूकता अभियान चलाना अहम कदम हैं। केवल सामूहिक कार्रवाई के माध्यम से ही भारत इस छिपी हुई स्वास्थ्य चुनौती को दूर कर सकता है।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )