ललित मौर्या
एक नए अध्ययन के मुताबिक भारत में राष्ट्रीय तपेदिक उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) के तहत टीबी की जांच और उपचार मुफ्त है। इसके बावजूद करीब आधे मरीजों पर भारी आर्थिक बोझ पड़ रहा है। अध्ययन के मुताबिक इसके पीछे की वजह बीमारी के दौरान काम न कर पाने की वजह से आय में गिरावट और अस्पताल में भर्ती होने की वजह से होने वाला खर्च है। शोधकर्ताओं के मुताबिक विशेष कमजोर वर्ग पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ता है।
यह अध्ययन टीबी सपोर्ट नेटवर्क, डब्ल्यूएचओ कंट्री ऑफिस फॉर इंडिया और इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च-नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एपिडेमियोलॉजी के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है। इसके नतीजे जर्नल ग्लोबल हेल्थ रिसर्च एंड पॉलिसी में प्रकाशित हुए हैं।
गौरतलब है कि टीबी सबसे घातक संक्रामक रोगों में से एक है, जिसे यक्ष्मा, तपेदिक, क्षयरोग, एमटीबी या ट्यूबरक्लोसिस जैसे कई नामों से जाना जाता है। यह बीमारी हवा के जरिए बैक्टीरिया माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस के कारण फैलती है।
आमतौर पर यह बीमारी फेफड़ों को प्रभावित करती है, लेकिन शरीर के कई अन्य अंग भी इससे प्रभावित हो सकते हैं। वैश्विक आंकड़ों पर नजर डालें तो यह बीमारी हर साल दस लाख से ज्यादा जिंदगियां निगल रही है। इसके साथ ही यह गंभीर सामाजिक, आर्थिक समस्याओं की भी वजह बन रही है।
इस अध्ययन के मुताबिक टीबी के इलाज और देखभाल पर प्रति व्यक्ति आमतौर पर करीब 386.1 डॉलर का खर्च आता है। बता दें कि अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 1,400 से अधिक लोगों का साक्षात्कार लिया है। इन लोगों के उपचार के नतीजे मई 2022 और फरवरी 2023 के बीच घोषित किए गए थे।
अध्ययन में यह भी सामने आया है कि इनमें से प्रत्यक्ष रूप से कुल 34 फीसदी यानी 78.4 डॉलर का खर्च आया था, जिसमें निदान से पहले या अस्पताल में रहने के दौरान हुआ खर्च शामिल है। वहीं यदि अप्रत्यक्ष लागत के रूप में औसतन करीब 279.8 डॉलर का बोझ पड़ा। इसमें बीमारी के दौरान खोई मजदूरी प्रमुख है।
देखा जाए तो मजदूरी या उत्पादकता को हुए नुकसान के चलते अप्रत्यक्ष लागत, प्रत्यक्ष खर्चों की तुलना में कहीं अधिक बोझ डालती है। इतना ही नहीं 60 से कम आयु के संक्रमित, जिनके पास स्वास्थ्य से जुड़ा बीमा नहीं है और जिन्हें इस बीमारी की वजह से अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है, उनपर कहीं ज्यादा बोझ पड़ता है।
अध्ययन के अनुसार अस्पताल में भर्ती होना प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह के खर्चों का सबसे बड़ा कारण था। शोधकर्ताओं ने इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि प्राइवेट अस्पतालों से इलाज कराने और भर्ती होने से खर्च बहुत ज्यादा बढ़ जाता है। ऐसे में शोधकर्ताओं ने अध्ययन में टीबी के मरीजों को कवर करने के लिए स्वास्थ्य बीमा का विस्तार करने और बीमारी का जल्द से जल्द पता लगाने पर जोर देने का सुझाव दिया है। इसके साथ ही उन्होंने टीबी में योगदान देने वाले सामाजिक कारकों को संबोधित करने की भी सिफारिश की है, जिससे मरीजों पर पड़ने वाले भारी बोझ को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
भारत में सामने आए थे दुनिया के एक चौथाई टीबी मरीज
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि राष्ट्रीय टीबी उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) का लक्ष्य 2025 तक भारत को टीबी मुक्त बनाना है। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की ‘टीबी उन्मूलन रणनीति’ का लक्ष्य 2035 तक इस महामारी को दुनिया भर से खत्म करना है।
हालांकि यदि इन लक्ष्यों को हासिल करना है तो इसके लिए अथक प्रयास करने होंगे।
‘ग्लोबल ट्यूबरक्लोसिस रिपोर्ट 2024’ के मुताबिक दुनिया में टीबी के जितने भी मामले सामने आते हैं, उनमें से आधे से अधिक (56 फीसदी) मामले भारत, इंडोनेशिया, चीन, फिलीपींस और पाकिस्तान में दर्ज किए गए हैं। यदि भारत की बात करें तो 2023 में दुनिया के एक चौथाई से अधिक मामले (26 फीसदी) भारत में सामने आए थे।
टीबी एक ऐसी बीमारी है जिसका उपचार संभव है। हालांकि इसके बावजूद यह बीमारी हर साल लाखों लोगों की जान ले रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक 2023 में इसकी वजह से 12.5 लाख लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था। 2023 में, वैश्विक स्तर पर करीब 1.08 करोड़ लोग इस बीमारी की चपेट में आए थे। इनमें से करीब 60 लाख पुरुष, जबकि 36 लाख महिलाएं शामिल थी। इतना ही नहीं इस बीमारी ने 13 लाख बच्चों को भी अपना निशाना बनाया था।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )