व्यक्ति, समाज और विज्ञान तीनों की अपनी- अपनी स्वायत्तता है और होनी भी चाहिए. पर यह स्वायत्तता न तो निरपेक्ष हैं और न ही एक दूसरे से स्वतंत्र. यह तीनों गहराई से प्रकृति के साथ जुड़े हुए है. इसलिए इनके आपसी संबंध एवं द्वंद की विवेचना और विशलेषण सापेक्षता के आधार पर करना ठीक होगा. इस संदर्भ में प्रकृति के नियमों का ध्यान रखना भी ज़रूरी है.
मानव एक चेतन शील एवं संवेदनशील प्राणी है और इसकी प्रकृति संश्लिष्ट और जटिल. सदियों के अनूभव और प्रकृति के रहस्यों को जानने- समझने के इसके प्रयास ने विकास की दिशा एवं गति को तय किया है. यह काम किसी एक अकेले व्यक्ति का नहीं है. यह अपने स्वरूप और चरित्र में सामुहिक दर्जे का है. मानव हमारे अस्तित्व की बुनियादी इकाई है और एक दूसरे से भिन्न पर विरोधी नहीं तथा दुश्मन तो क़तई नहीं. और समाज इन्हीं भिन्न- भिन्न ढ़ेर सारी इकाइयों की समष्टि. व्यक्ति और समाज की स्वायत्तता अपने द्वंद्वात्मक संबंधों में परिभाषित, व्याख्यायित , विश्लेषित और अभिव्यक्त होती है या होनी चाहिए. व्यक्ति और समाज के इन्हीं संबंधों के आधार पर सामाजिक प्रक्रिया के तहत समाज के नियम और नीति निर्देश बनते और बिगड़ते हैं. चुंकि यह प्रक्रिया हमेशा गतिशील होती है, इसलिए समाज के नियम चाहे आर्थिक हों या राजनीतिक या फिर सांस्कृतिक हमेशा बदलते रहते हैं. इनका नैतिक आधार और नैतिकता भी बदलती रहती है. व्यक्तियों की चेतना और संवेदना सामूहिक सामाजिक चेतना एवं संवेदना को निर्धारित करती है. सामाजिक प्रक्रिया ही सामाजिक मुल्यों का आधार होती है. इसलिए ये मुल्य भी परिवर्तनशील होते हैं. समाज में शक्ति संतुलन के बदलने के लिए इनका बदलना ज़रूरी हो जाता है. जैसे- जैसे समाज विकसित होता जाता है, उसकी ज़रूरतें, तक़ाज़े और चुनौतियां बदल जाती हैं और सामाजिक प्रक्रिया अपने एतिहासिक संदर्भों में विकसित होती है. इसे बलपूर्वक रोकने की कोशिश सामाजिक जड़ता और यथास्थिति को जन्म देती है और विकास का प्रवाह अवरूद्ध हो जाता है और अंततः थम जाता है. नये सामाजिक समिकरण इस स्थिति को पलटकर विकास के प्रवाह को इसकी जकड़नों से मुक्त करते हैं.
विज्ञान प्रकृति के रहस्यों को समझने, अपनी बाह्य दुनिया को जानने, तर्क एवं विवेक के आधार पर जाँचने- परखने, विश्लेषित- व्याख्यायित करने और मानक स्थापित करने की प्रक्रिया है. तर्क , विवेक और जाँचे- प्रखे प्रमाणिक साक्ष्य हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक चेतना को वैज्ञानिक चेतना में बदलने का काम करते हैं. वैज्ञानिक चेतना हमें सवाल करने को उकसाती है, चीज़ों और घटनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए प्रेरित करती है, स्थापित मान्यताओं और विश्वासों को कठघड़े में खड़ा करती है तथा संशय के घेरे में ला कर उनका भौतिक आधार तलाशने का काम करती है. उन कारणों और कारकों की तलाश करती है जो इस घटना और परिघटना के पीछे काम कर रहे हैं. एक विषय के रूप में विज्ञान पढ़ना-पढ़ाना, शोध करना एक अलग बात है और वैज्ञानिक सोच से लैस होना अलग. बिना वैज्ञानिक नियम के जाने हम अपने जीवन में हर रोज़, हर दम विज्ञान का इस्तेमाल करते हैं चाहे खेती करना हो, बर्तन बनाना, कपड़े बनाना, कपड़े और अनाज सुखाना या इस तरह के और दूसरे काम. इस तरह व्यक्ति हो या समाज वे अपने जीवन में विज्ञान को अपनाते हैं. विज्ञान उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है और है. पर विज्ञान सत्ता पर भी सवाल खड़ा करता है, प्रशासन के सामने तन कर खड़ा होता है और सवाल-जवाब करता है तथा व्यवस्था किसके हित में काम करती है और किससे क़ीमत वसूलती है?, यह भी पुछने को तैयार करता है. इसलिए शासक वर्ग इसे लोगों से काटने का काम करता रहा है और करता है, इसे खास बनाकर कुछ विशेष लोगों तक सीमित कर. आम लोगों को तो धर्म, भाग्य, आस्था और विशवास का पाठ पढ़ाया जाता है. अभिभावक हों या शिक्षक, धर्म गुरु हों या राजनेता, बुज़ुर्ग हों या प्रकांड पण्डित सभी अनुशासन और आदर का पाठ पढ़ाते हैं, सवाल करने से भरसक रोकते हैं क्योंकि सवाल मे उन्हें अवज्ञा, विरोध और विद्रोह नज़र आता है. इस तरह वे अपना वर्गीय हित साधते हैं. इस प्रकार वैज्ञानिक चेतना, वैज्ञानिक सोच, वैज्ञानिक मिज़ाज और व्यवहार उनके लिए खतरे की घंटी है.और इसे रोकने का हर संभव प्रयास किया जाता है, इतनी चालाकी और महीनी से कि जनता ठगी रह जाती है. शिक्षा भी यही काम करती है- वैज्ञानिक तो बनाती है पर अक्सर वैज्ञानिक चेतना और वैज्ञानिक सोच से दूर. मीडिया हर रोज़ धर्म, संप्रदाय, जाति, भाग्य और अंधविश्वास के प्रचार में लगा हुआ है. बाबा, पीर, फ़क़ीर, साधू, साध्वी सभी बाज़ार का हिस्सा हैं, बाज़ार उनका इस्तेमाल करता है और वे बाज़ार का. ऐसे में चाँदी वित्तीय पूंजी की है और जनता हैरान व परीशान. यही वजह है कि हर दौर में शासक वर्ग ने शिक्षा और मीडिया को नियंत्रित कर समाज को नियंत्रित करने का काम किया है. इन हालात में विज्ञान संप्रेषण का काम निहायत ही कठिन काम बन जाता है और विज्ञान संगठन के सामने भी एक संशय की स्थिति बनी हुई है, विज्ञान संप्रेषण को वर्गीय आधार पर न समझने और समझाने की. इसलिए विज्ञान प्रेरक और जन विज्ञान आंदोलन के सामने बड़ी चुनौती है वैज्ञानिक विमर्श को वर्गीय आधार पर विकसित करने की और उसकी द्वंदात्मकता में उसे अपनाने की. आख़िर मानव चेतना का आधार भौतिक जगत है और इसको एतिहासिक- सामाजिक प्रक्रिया के विभिन्न आयामों में जानने, जाँचने- परखने और समझने का नाम है वैज्ञानिक सोच और समझ.
दरअसल विज्ञान और प्रोधौगिकी पर अधिकार एकाधिकार पूंजी का है न कि जनता का, इसलिए इसका इस्तेमाल सुखी और सुविधापूर्ण समाज के लिए कम और दुनिया के संसाधनों पर क़ब्ज़ा कर मुनाफ़ा कमाने के लिए ज़्यादा किया जा रहा है. यह विज्ञान को समाज से बेदख़ल करने की साज़िश है और इसमें पूंजी, धर्म और शासक वर्ग सभी शामिल हैं. उनकी कोशिश है कि लोग आधूनिक तकनीक, माॅडर्न इलेक्ट्रॉनिक गज़ट्स का इस्तेमाल करें, डिज़िटल आभासी दुनिया से जुड़ जायें पर सोचने का काम आर्टीफ़ीशियल इंटेलिजेंस के भरोसे छोड़ दिया जाए. इस तरह मानव, समाज और विज्ञान की स्वायत्तता को विखंडित कर सामूहिक पहलकदमी को अवरुद्ध करने का काम किया जा सके. यही वह विचार विन्दु है जहाँ जन विज्ञान आँदोलन को सचेत, सजग और सतर्क रहना और व्यापक फ़लक पर अपनी गतिविधियों को बढ़ाना है. और जन विज्ञान नेट वर्क को बढ़ाना एवं मज़बूत करना है.
डाॅ अली इमाम ख़ाँ
अध्यक्ष, साइंस फार सोसायटी झारखंड