ललित मौर्या

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर के शोधकर्ताओं ने एंटीबॉडी-आधारित एक अनोखा बायोसेंसर विकसित किया है, जो शरीर की कोशिकाओं में दवाओं के असर को रियल-टाइम में समझने में मदद करेगा।

गौरतलब है कि यह सेंसर जीवित कोशिकाओं में जी-प्रोटीन कपल्ड रिसेप्टर्स (जीपीसीआर) से जुड़ी गतिविधियों को पकड़ सकता है। बता दें कि ये वही रिसेप्टर्स हैं जो हमारी कोशिकाओं में दवाइयों के असर को नियंत्रित करते हैं। ये रिसेप्टर्स शरीर के सबसे बड़े प्रोटीन परिवार का हिस्सा हैं। दिलचस्प बात यह है कि डॉक्टर आज जितनी भी दवाइयां लिखते हैं, उनमें से करीब एक-तिहाई इन्हीं रिसेप्टर्स पर काम करती हैं।

इस अध्ययन का नेतृत्व आईआईटी कानपुर में प्रोफेसर अरुण के शुक्ला द्वारा किया गया है। वे पिछले दस साल से इन रिसेप्टर्स (जीपीसीआर) की दुनिया को समझने पर काम कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह सेंसर किसी भी जीपीसीआर में बदलाव किए बिना ही उसकी गतिविधि को माप सकता है। इसका मतलब है कि अब वैज्ञानिक इन रिसेप्टर्स को बीमारियों के दौरान भी आसानी से देख सकेंगे।

वैज्ञानिकों का मानना है कि ये रिसेप्टर्स नई दवाओं और थेरेपी के विकास के लिए बेहद अहम ‘गेटवे’ हैं। अब तक इनकी सक्रियता को जीवित कोशिकाओं में रियल-टाइम में देख पाना मुश्किल था, लेकिन आईआईटी कानपुर का यह नया बायोसेंसर इस चुनौती को आसान बनाता है।

कैसे काम करता है यह सेंसर

यह सेंसर एक खास तरह की नैनोबॉडी तकनीक पर आधारित है, जो केवल तभी सक्रिय होती है जब जीपीसीआर रिसेप्टर सक्रिय हो और ‘अरेस्टिन’ नामक प्रोटीन से जुड़ जाए। इस प्रक्रिया में एक रासायनिक एंजाइमेटिक प्रतिक्रिया होती है, जिससे चमक (ल्यूमिनेसेंस) पैदा होती है और वैज्ञानिक उसे माप सकते हैं। प्रोफेसर शुक्ला ने इस बारे में प्रेस विज्ञप्ति में बताया कि, “इस बायोसेंसर की खूबी यह है कि इसे रिसेप्टर्स में किसी बदलाव की जरूरत नहीं होती, फिर भी यह उनकी सक्रियता की सही रिपोर्ट देता है। इससे बीमारियों के संदर्भ में रिसेप्टर्स की इमेजिंग करना संभव हो जाता है।“

वहीं आईआईटी कानपुर की पीएचडी शोधार्थी अनु दलाल के मुताबिक “इस सेंसर की खूबसूरती यह है कि यह न सिर्फ रिसेप्टर्स की गतिविधि बताता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि वे कोशिका के किस हिस्से में हैं और आगे कौन-सी प्रक्रियाएं शुरू कर रहे हैं। इससे नई दवाओं के विकास की दिशा में बड़े अवसर खुलेंगे।” यह शोध चेक गणराज्य के इंस्टिट्यूट ऑफ ऑर्गेनिक केमिस्ट्री एंड बायोकैमिस्ट्री (प्राग) से जुड़े प्रोफेसर जोसेफ लाजर की टीम के साथ मिलकर किया गया है, जिसमें भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने भी सहयोग दिया है।

इस अध्ययन के नतीजे अमेरिका के प्रतिष्ठित जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (पनास) में प्रकाशित हुए हैं। इस अध्ययन में आईआईटी कानपुर से जुड़े शोधकर्ताओं की टीम में पारीश्मिता शर्मा, मनीष यादव, सुधा मिश्रा, नश्रह जैदी, दिव्यांशु तिवारी, गार्गी महाजन और नबरून रॉय भी शामिल थे। देखा जाए तो आईआईटी कानपुर की यह खोज साबित करती है कि आज भारतीय वैज्ञानिक न केवल नई तकनीक गढ़ रहे हैं, बल्कि साथ ही दवा और चिकित्सा की दुनिया में भविष्य के लिए उम्मीदों की नई रोशनी भी जगा रहे हैं।

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

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