ललित मौर्या
जलवायु परिवर्तन अलग-अलग तरह से हमारे जीवन को प्रभावित कर रहा है, इनमें से एक है बढ़ती बीमारियों का खतरा। एक नई रिसर्च से पता चला है कि जलवायु में आते बदलावों के चलते डायरिया संबंधी बीमारियों के फैलने का खतरा बढ़ सकता है।
सरे विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं के नेतृत्व में किए इस नए अध्ययन से पता चला है कि तापमान, आर्द्रता और दिन की लम्बाई जैसे कारक डायरिया संबंधी बीमारियों के बढ़ते प्रसार से जुड़े हैं। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल प्लोस कम्प्यूटेशनल बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं।
यह अध्ययन डॉक्टर जियोवानी लो इकोनो के नेतृत्व में किया गया है। अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस बात की जांच की है कि कैसे मौसम में आया बदलाव कैम्पिलोबैक्टीरियोसिस के प्रसार से जुड़ा है। गौरतलब है कि कैम्पिलोबैक्टीरियोसिस जीवाणु से होने वाला संक्रमण है, जो दस्त और पेट दर्द का कारण बनता है।
इस बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का भी कहना है कि कैम्पिलोबैक्टर इन्फेक्शन वैश्विक स्तर पर इंसानों में होने वाले बैक्टीरियल गैस्ट्रोएंटेराइटिस का सबसे आम कारक है। इसमें संक्रमण के लक्षण आमतौर पर हल्के होते हैं, लेकिन यह बहुत छोटे बच्चों, बुजुर्गों और कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली वाले लोगों के लिए घातक साबित हो सकते हैं। आंकड़ों की मानें तो वैश्विक स्तर पर कैम्पिलोबैक्टर, डायरिया संबंधी बीमारियों के चार प्रमुख कारणों में से एक है।
यह जांच करने के लिए कि क्या मौसम कैम्पिलोबैक्टीरियोसिस की घटनाओं को प्रभावित करता है, शोधकर्ताओं ने पिछले दो दशकों में इंग्लैंड और वेल्स में सामने आए करीब दस लाख मामलों का विश्लेषण किया है। इसके साथ ही शोधकर्ताओं ने उस समय मौसम की स्थिति से उसकी तुलना करने के लिए एक नया गणितीय मॉडल भी बनाया है।
आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि आठ डिग्री सेल्सियस से नीचे के तापमान पर कैम्पिलोबैक्टीरियोसिस की घटनाओं में कोई खास बदलाव नहीं देखा गया। हालांकि तापमान में हर पांच डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी के साथ संक्रमण में तीव्र वृद्धि देखी गई, जो प्रति दस लाख पर एक थी।
दिलचस्प बात यह है कि शोधकर्ताओं ने दिन की लंबाई (10 घंटे से अधिक) और बीमारी के बढ़ते मामलों के बीच भी मजबूत संबंध देखा। यह जुड़ाव उस समय और गहरा था जब आद्रता 75 से 80 फीसदी के बीच थी। वहीं अध्ययन के दौरान बारिश और हवा की रफ्तार का कैम्पिलोबैक्टीरियोसिस के प्रसार से कोई खास संबंध नहीं देखा गया।
इस बारे में अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता जियोवानी लो इकोनो का कहना है कि यह जानकारी बेहद अहम है क्योंकि कैम्पिलोबैक्टीरियोसिस जैसी बीमारियां न केवल किसी व्यक्ति के लिए परेशानी का सबब बनती हैं, बल्कि इनका समाजिक प्रभाव भी बहुत अधिक होता है। इनकी वजह से दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवाओं पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है।
उनका कहना है कि, “बढ़ता तापमान, आर्द्रता और दिन की अवधि भी कैम्पिलोबैक्टीरियोसिस में होती वृद्धि से जुड़ी है। लेकिन हम पूरी तरह से निश्चित नहीं हैं कि ऐसा क्यों होता है।” उनके मुताबिक ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि गर्म मौसम इस हानिकारक बैक्टीरिया के जीवित रहने और उसके प्रसार में मदद करता है। उन्होंने यह भी आशंका जताई है कि इसका संबंध बीमारी के समय में लोगों के व्यवहार और मेलजोल से हो सकता है।
उनका आगे कहना है कि जलवायु परिवर्तन न केवल पर्यावरण को प्रभावित करता है बल्कि संक्रामक रोगों के प्रसार में योगदान देकर हमारे स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचा सकता है।
पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में कुपोषण की एक प्रमुख वजह है डायरिया
वहीं इस बारे में अध्ययन और सरे विश्वविद्यालय से जुड़े विजिटिंग प्रोफेसर गॉर्डन निकोल्स का कहना है कि पर्यावरण से जुड़े आंकड़े हमारे लिए बीमारियों के प्रसार के जटिल पैटर्न को समझने में मददगार साबित हो सकते हैं।” उनके मुताबिक यह जानकारी बेहद अहम है क्योंकि इससे संभावित प्रकोप के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करने में मदद मिल सकती है। साथ ही इनकी मदद से यह भी सुनिश्चित किया जा सकता है कि इन क्षेत्रों के पास प्रभावित लोगों के इलाज और अन्य क्षेत्रों में बीमारी के प्रसार को रोकने के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हैं।
गौरतलब है कि डायरिया या उससे सम्बंधित बीमारियां हर साल लाखों बच्चों की जिंदगियां लील रहीं हैं। यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी आंकड़ों को देखें 2019 में इन बीमारियों के चलते 3.7 लाख बच्चों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था।
इतना ही नहीं डब्ल्यूएचओ के मुताबिक डायरिया पांच वर्ष या उससे कम आयु के बच्चों में मृत्यु का यह दूसरा सबसे बड़ा कारण है। अनुमान है कि हर साल दुनिया भर के बच्चों में डायरिया संबंधी बीमारियों के 170 करोड़ मामले सामने आते हैं। इतना ही नहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वैश्विक स्तर पर पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में डायरिया, कुपोषण की एक प्रमुख वजह है।
जर्नल नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में सामने आया है कि बढ़ते तापमान के साथ जिस तरह से सूखे की गंभीरता बढ़ रही है उसका असर बच्चों में डायरिया के मामलों पर भी पड़ेगा। इस रिसर्च के मुताबिक छह महीने तक सूखे का सामना करने से डायरिया का खतरा पांच फीसदी तक बढ़ सकता है। वहीं गंभीर सूखे की स्थिति में यह जोखिम 8 फीसदी तक बढ़ जाएगा।
अध्ययन के मुताबिक केवल डायरिया से होने वाली मौतें ही अकेली समस्या नहीं हैं। जो बच्चे इस बीमारी से बचे जाते हैं उनकी वृद्धि और विकास पर भी इस बीमारी का व्यापक असर पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) का भी अनुमान है 2050 तक डायरिया के कारण हर साल 32,954 बच्चों की अतिरिक्त मौतों की वजह जलवायु में आता बदलाव होगा।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )