ललित मौर्या

भारत में जारी किए जाने वाले करीब आधे मेडिकल प्रिस्क्रिप्शन मानक दिशा-निर्देशों पर पूरी तरह खरे नहीं हैं। वहीं 9.8 फीसदी प्रिस्क्रिप्शन तो दिशा निर्देशों से इतने अलग थे कि उन्हें कतई भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह जानकारी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) सहित देश के कई जाने माने स्वास्थ्य संस्थानों से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा किए अध्ययन में सामने आई है।

इस अध्ययन के नतीजे इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईजेएमआर) में प्रकाशित हुए हैं। यह देखने के लिए कि क्या मेडिकल प्रिस्क्रिप्शन लिखते समय उपचार से जुड़े मानक दिशानिर्देशों का पालन किया जा रहा है, शोधकर्ताओं ने अगस्त 2019 से अगस्त 2020 के बीच देश भर के अस्पतालों में डॉक्टरों द्वारा लिखे 4,838 मेडिकल प्रिस्क्रिप्शन का विश्लेषण किया है।

गौरतलब है कि यह अध्ययन देश के प्रमुख शिक्षण अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों में मौजूद भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के 13 तर्कसंगत औषधि उपयोग केन्द्रों (आरयूएमसी) द्वारा किया गया था।

ये केंद्र आईसीएमआर नेशनल वर्चुअल सेंटर फॉर क्लिनिकल फार्माकोलॉजी का हिस्सा हैं। इसमें से हर केंद्र में उनके अस्पताल के फार्माकोलॉजिस्ट और चिकित्सकों की एक टीम थी। साथ ही इस अध्ययन को शुरू करने से पहले प्रत्येक अस्पताल से नैतिक स्वीकृति ली गई थी।

अध्ययन के मुताबिक ऐसे प्रिस्क्रिप्शन जिनमें मानक दिशा-निर्देशों का पालन का नहीं किया गया था या फिर जिनमें दवा के प्रकार, खुराक, समय और इसे कितनी बार लेना है ऐसे विवरण नहीं थे, उन्हें यह माना कि वो दिशा निर्देशों पर खरे नहीं हैं।

वहीं जो प्रिस्क्रिप्शन दवा के रिएक्शन, ठीक से काम न करने, अधिक लागत, रोके जा सकने वाले साइड इफेक्ट या एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोध जैसी समस्याओं का कारण बन सकता हैं उन्हें उन प्रिस्क्रिप्शन के रूप में वर्गीकृत किया गया, जिन्हें कतई भी स्वीकार नहीं किया जा सकता।

इस रिसर्च के जो नतीजे सामने आए हैं उनसे पता चला है लिखे गए 55.1 फीसदी (2667) मेडिकल प्रिस्क्रिप्शनों में उपचार संबंधी दिशानिर्देशों का पालन किया गया था। वहीं करीब 45 फीसदी (2,171) प्रिस्क्रिप्शन ऐसे थे, जो दिशानिर्देशों पर खरे नहीं थे।

वहीं 9.8 फीसदी (475) मेडिकल प्रिस्क्रिप्शन ऐसे थे, जिन्हें कतई भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। इनमें से 54 में पैंटोप्राजोल को सबसे अधिक बार लिखा गया। पैंटोप्राजोल को पेट में बनने वाले एसिड को कम करने के लिए दिया जाता है। यह आमतौर पर पैन 40 जैसे कई नामों से उपलब्ध है।

अध्ययन के मुताबिक, पैरासिटामोल और मरहम समेत अन्य दवाओं के साथ 40 मिलीग्राम पैंटोप्राजोल टैबलेट भी लिखी गई थी। वहीं 35 मामलों में डोमपेरिडोन के साथ रेबेप्राजोल दी गई थी। यह वो दवाएं थी, जिन्हें सबसे ज्यादा बार लिखा गया।

मरीजों के स्वास्थ्य और जेब पर भारी पड़ सकती हैं गलत दवाएं

साथ ही इनमें ट्रिप्सिन – काइमोट्रिप्सिन, सेराटियोपेप्टिडेज, रैनिटिडिन, एजिथ्रोमाइसिन, सेफिक्सिम, एमोक्सिसिलिन और क्लैवुलैनिक एसिड और एसीक्लोफेनाक जैसी दवाएं शामिल थी। गौरतलब है कि इन प्रिस्क्रिप्शन में कुल 1,696 दवाएं लिखी गई, जो औसतन प्रति प्रिस्क्रिप्शन साढ़े तीन थी।

ऐसा लगता है कि यह दवाएं न केवल बीमारी से जुड़े लक्षणों के उपचार बल्कि दी गई दवाओं के संभावित दुष्प्रभावों को रोकने के लिए भी दी गई थी। उदाहरण के लिए जिन मरीजों में दर्द के लक्षण थे उन्हें पैंटोप्राजोल के साथ एनाल्जेसिक दवाएं भी दी गई थी।

इसी तरह शोधकर्ताओं के मुताबिक यदि मरीज को पेप्टिक अल्सर होने का खतरा है तो गैस्ट्रोप्रोटेक्टिव दवाएं दी जानी चाहिए। पैंटोप्राजोल के अनावश्यक प्रिस्क्रिप्शन से पेट में सूजन, एडिमा और दाने जैसे दुष्प्रभाव हो सकते हैं। जिन 475 प्रिस्क्रिप्शन में सबसे ज्यादा समस्या देखी गई, उनमें निदान की गई सबसे प्रमुख समस्याएं ऊपरी श्वसन पथ संक्रमण (यूआरटीआई), उच्च रक्तचाप, ऑस्टियोआर्थराइटिस, मधुमेह, और मलेरिया शामिल थीं।

इनकी वजह से न केवल इलाज का खर्च बढ़ सकता है, साथ ही दवाओं के रिएक्शन की समस्या भी पैदा हो सकती थी। इतना ही नहीं प्रिस्क्रिप्शन में मौजूद खामियों की वजह से एंटीबायोटिक प्रतिरोध की समस्या भी बन सकती थी।

अध्ययन के मुताबिक इन 475 मामलों में गलत प्रिस्क्रिप्शन से 63 फीसदी में इलाज का खर्च बढ़ सकता है, वहीं 53 फीसदी में इसकी वजह से साइड इफेक्ट की आशंका देखी गई। 17 फीसदी में दवा आपस में प्रतिक्रिया कर सकती थी, वहीं 15 फीसदी में एंटीबायोटिक प्रतिरोध की आशंका पैदा हो सकती है। वहीं 16 फीसदी मामलों में इसकी वजह से उपचार के फायदे सामने नहीं आता। वहीं 65 फीसदी से ज्यादा मामलों में एक से ज्यादा समस्याएं देखी गई।

रिसर्च में यह भी सामने आया है कि दवा लिखने वाले सभी डॉक्टर अपने-अपने विषयों में उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, और उन्हें औसतन चार से 18 वर्षों का अनुभव था। मतलब की यह डॉक्टर अच्छा खासा अनुभव रखते थे।

अध्ययन में, प्रिस्क्रिप्शन संबंधी सबसे ज्यादा समस्याएं सामुदायिक चिकित्सा सम्बन्धी ओपीडी में दर्ज की गई। इसके बाद ईएनटी और बाल चिकित्सा विभाग द्वारा जारी प्रिस्क्रिप्शन में सबसे ज्यादा खामियां थी। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि अक्सर इस ओपीडी में युवा डॉक्टर काम करते हैं।

शोधकर्ताओं के मुताबिक जब मरीजों को गलत दवाएं लिखी जाती हैं तो वो एक बड़ी समस्या बन जाती है। इससे न केवल मरीजों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। साथ ही इलाज को खर्च भी बढ़ जाता है। ऐसे में डॉक्टरों को हर मरीज की स्थिति को देखते हुए उपचार करना चाहिए और प्रिस्क्रिप्शन लिखते समय मानक दिशा निर्देशों का पालन करना चाहिए।

अध्ययन के मुताबिक डॉक्टरों द्वारा गैर मुनासिब दवाएं लिखना आज भी एक बड़ी समस्या बनी हुई है। यह समस्या न केवल भारत बल्कि दुनिया भर में मौजूद है। आंकड़ों के मुताबिक दुनिया भर में करीब 50 फीसदी से ज्यादा गलत तरीके से लिखी या दी जाती हैं। वहीं 50 फीसदी मरीज अपनी दवा को लेकर दिए निर्देशों का सही से पालन नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए जब डॉक्टर दिन में तीन खुराक दवा लेने की सलाह देता है तो कई बार मरीज एक बार की खुराक लेना भूल जाते हैं।

रिसर्च के मुताबिक गलत प्रिस्क्रिप्शन से दवाओं के प्रभाव उलटे पड़ जाते हैं। इससे अस्पताल में भर्ती तक करना पड़ सकता है, नतीजन इलाज का खर्च कहीं ज्यादा बढ़ जाता है। इनमें इंजेक्शन या महंगी दवाएं लिखना भी शामिल है। ऐसे में जब सस्ती कारगर दवाएं उपलब्ध होती हैं तो भी कई बार महंगी दवाएं लिखी जातीं हैं जो मरीज की जेब पर भारी पड़ती हैं। इसी तरह कभी-कभी जरूरत से ज्यादा दवाएं दी जाती है। इनमें एंटीबायोटिक्स का अनावश्यक उपयोग शामिल है। निम्न और मध्यम आय वाले देशों एंटीबायोटिक्स दवाओं के बेतहाशा उपयोग से एंटीबायोटिक प्रतिरोध की समस्या भी तेजी से बढ़ रही है, जिससे निपटने की जरूरत है।

भारत में चिकित्सा से जुड़े पेशे को बहुत सम्मान से देखा जाता है। कई मौकों पर तो डॉक्टरों की तुलना भगवान से भी की जाती है। ऐसे में जाने अनजाने में की जाने वाली इस तरह की चूक और खामियां न केवल चिकित्सा जगत बल्कि आम लोगों के लिए भी चिंता का विषय है।

ऐसे में इस तरह की चूक न हो इसपर संजीदगी से विचार करने की जरूरत है। न केवल डॉक्टरों को अपनी जिम्मेवारी समझनी होगी, साथ ही सरकार को भी इस मामले में कड़े कदम उठाने की जरूरत है।

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

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