ललित मौर्या
आज दौड़ती-भागती दुनिया में मानसिक समस्याएं बड़ी तेजी से लोगों को अपना शिकार बना रही हैं, किशोरों में यह समस्या कहीं ज्यादा जटिल है। देखा जाए तो पढ़ाई, नौकरी और अन्य क्षेत्रों में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण युवाओं में यह समस्या तेजी से बढ़ रही है। हालांकि इसके बावजूद भारत जैसे विकासशील देशों में अधिकांश किशोर इन समस्याओं से उबरने के लिए विशेषज्ञों का सहारा नहीं लेते।
इस बारे में अंतराष्ट्रीय शोधकर्ताओं द्वारा किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि भारत जैसे विकासशील देशों में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी गंभीर समस्याओं से जूझते 99 फीसदी किशोर मनोवैज्ञानिक या विशेषज्ञों से किसी प्रकार की औपचारिक मदद नहीं लेते हैं। हालांकि इन देशों में 28.3 से 48.5 फीसदी युवाओं को इसकी बेहद आवश्यकता है। गौरतलब है कि मानसिक बीमारियों का बोझ जीवन की गुणवत्ता को कम कर सकता है।
आमतौर पर वो इस तरह की दिक्कतों से उबरने के लिए अपने दोस्त, शिक्षक और परिवार के सदस्यों की मदद लेते हैं। ऐसे में सही सलाह या मदद न मिलने के कारण उनकी समस्या कहीं ज्यादा बढ़ सकती है। यूनिवर्सिटी ऑफ टुर्कु से जुड़े शोधकर्ताओं के नेतृत्व में किए इस अध्ययन के नतीजे जर्नल यूरोपियन चाइल्ड एंड एडोलसेंट साइकाइट्री में प्रकाशित हुए हैं।
कहीं न कहीं युवा अब एक दूसरे से सीधे जुड़ने के बजाय मोबाइल, कंप्यूटर और सोशल मीडिया आदि का सहारा ले रहे हैं। नतीजन वह अपनी बात भी खुलकर साझा नहीं कर पाते। जो कहीं न कहीं उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है।
यह अध्ययन यूरोप और एशिया के आठ देशों के 13,184 युवाओं पर आधारित है। इनकी उम्र 13 से 15 वर्ष के बीच थी। इनमें से करीब 51 फीसदी बच्चियां थी। इस अध्ययन में भारत, चीन, फिनलैंड, ग्रीस, इजराइल, जापान, नॉर्वे और वियतनाम से जुड़े युवाओं के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है। अध्ययन में भारत के कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज के मनोचिकित्सा विभाग से जुड़े शोधकर्ता समीर कुमार प्रहराज ने भी सहयोग दिया है।
रिसर्च में यह भी सामने आया है कि कई देशों, विशेषकर निम्न आय वाले देशों में, किशोरों द्वारा मानसिक समस्याओं से उबरने के लिए अनौपचारिक स्रोतों जैसे अपने दोस्त, रिश्तेदारों या शिक्षकों की मदद लेते हैं।
इस बारे में अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता यूको मोरी ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि यह किशोर अपने दोस्तों, रिश्तेदारों, शिक्षकों या मनोवैज्ञानिकों, शिक्षकों या विशेषज्ञों से मदद ले सकते हैं। हालांकि वे किससे सहायता लेते हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है उनके लिए यह मदद पाना कितना आसान है। वो किस सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से सम्बन्ध रखते हैं और लोग उनकी मानसिक बीमारी के बारे में क्या सोचते हैं यह भी काफी मायने रखता है।
इस रिसर्च के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक मध्यम आय वाले देशों में एक फीसदी से भी कम किशोर विशेषज्ञों की मदद लेते हैं। वहीं समृद्ध देशों में यह दर थोड़ी अधिक दो से सात फीसदी के बीच रही। रिसर्च में यह भी सामने आया है कि लड़कों के मुकाबले, लड़कियों को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं से उबरने के लिए कहीं ज्यादा मदद की आवश्यकता होती है।
भारत में प्रति लाख किशोरों पर हैं महज 0.02 मनोचिकित्सक
भारत जैसे देशों में मनोचिकित्सकों की सीमित संख्या भी एक बड़ी समस्या है। रिसर्च के मुताबिक भारत में प्रति लाख बच्चों और किशोरों पर मनोचिकित्सकों की संख्या महज 0.02 है। वहीं चीन में यह आंकड़ा 0.09 है। दूसरी तरफ नॉर्वे में प्रति 100,000 किशोरों पर मनोचिकित्सकों की संख्या 47.74, जबकि फिनलैंड में 45.4 है। कमजोर देशों की बात करें तो वहां मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सेवाओं की पहुंच बहुत सीमित है। विशेष रूप से दूरदराज के क्षेत्रों में तो स्थिति बेहद गंभीर है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया का हर आठवां इंसान यानी 97 करोड़ लोग मानसिक विकारों से पीड़ित हैं। उनमें चिंता और अवसाद सबसे आम हैं। 2020 में कोरोना महामारी के चलते चिंता और अवसाद पीड़ितों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
प्रारंभिक अनुमान दर्शाते हैं कि केवल एक वर्ष में चिंताग्रस्त लोगों की संख्या में 26 फीसदी का इजाफा हुआ, वहीं अवसाद पीड़ितों की संख्या में भी 28 फीसदी की वृद्धि हुई है। अनुमान है कि 2019 में, 30.1 करोड़ चिंताग्रस्त थे। इनमें 5.8 करोड़ बच्चे और किशोर भी शामिल हैं। इसी तरह 28 करोड़ लोग अवसाद से पीड़ित थे, जिनमें 2.3 करोड़ बच्चे और किशोर शामिल हैं।
दिल्ली में एम्स के सेंटर फॉर कम्युनिटी मेडिसिन और मनोरोग विभाग की ओर से किए एक अन्य अध्ययन में सामने आया है कि दिल्ली में रहने वाले करीब एक तिहाई किशोर (15-19 वर्ष) अपने जीवनकाल में कभी न कभी डिप्रेशन या टेंशन से जूझ रहे थे।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंस द्वारा 2016 में भारत के 12 राज्यों में किए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि देश में करीब 2.7 फीसदी लोग डिप्रेशन जैसे कॉमन मेंटल डिस्ऑर्डर से ग्रस्त है।
वहीं करीब 5.2 फीसदी आबादी जीवन के किसी न किसी मोड़ पर इस समस्या का शिकार हुई है। सर्वेक्षण में यह भी सामने आया है कि देश के 15 करोड़ लोगों को किसी न किसी मानसिक समस्या की वजह से तत्काल डॉक्टरी मदद की जरूरत रूरत है। हालांकि लैंसेट की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में दस जरूरतमंद लोगों में से सिर्फ एक व्यक्ति को डॉक्टरी मदद मिलती है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में मानसिक समस्याओं से ग्रस्त लोगों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में आने वाले दशक में दुनिया भर में मानसिक समस्याओं से पीड़ित एक तिहाई लोग भारतीय हो सकते हैं।
मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूक करने की है जरूरत
भारत, वियतनाम और चीन जैसे देशों में व्यवहार और भावनात्मक समस्याओं से जूझ रहे बहुत कम किशोर ही विशेषज्ञों की मदद लेते हैं। यह आंकड़ा 100 में महज एक से दो के बीच है। वहीं ग्रीस, इजराइल और जापान जैसे देशों में यह आंकड़ा छह से सात फीसदी जबकि नॉर्वे और फिनलैंड में 21 से 25 के बीच है।
अध्ययन के मुताबिक खासकर कमजोर देशों में ज्यादातर किशोर अक्सर मदद के लिए अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और शिक्षकों की मदद लेते हैं। ऐसे में शोधकर्ताओं के मुताबिक दुनिया भर में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर लोगों को जागरूक बनाने की बेहद जरूरत है।
रिसर्च से पता चला है कि सभी एशियाई देशों में मानसिक समस्याओं से उबरने के लिए मदद लेने वाले किशोरों में करीब 90 फीसदी ने अपने दोस्तों, रिश्तेदारों या शिक्षक से मदद मांगी थी। बच्चियों के मामले में भारत में यह आंकड़ा 91.7 फीसदी से लेकर चीन में 96.1 फीसदी दर्ज किया गया।
इसी तरह भारत में जहां मानसिक समस्याओं से जूझ रहे 87.7 फीसदी लड़कों ने अपने परिवार, दोस्तों और शिक्षकों की मदद ली वहीं चीन में यह आंकड़ा 95.8 फीसदी रहा। रिसर्च में यह भी सामने आया है कि भारत में लड़कियों की तुलना में कहीं ज्यादा लड़के इससे उबरने के लिए शिक्षकों की मदद लेते हैं।
एक प्रेस विज्ञप्ति में शोधकर्ता प्रोफेसर आंद्रे सोरेंडर ने कहा कि विभिन्न संस्कृतियों में किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य का अध्ययन महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस बारे में अधिकांश शोध पश्चिम के समृद्ध देशों में किए गए हैं, जो किशोर आबादी के दस फीसदी से भी कम हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसे में दुनिया के अधिकांश किशोर इस समस्या से कैसे जूझ रहे हैं उस बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )