अनिल अश्वनी शर्मा
केंद्र सरकार संसद के हाल में ही समाप्त हुए सत्र में इस बात की जोरशोर से घोषणा करते नहीं थक रही थी कि भारत दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थ व्यवस्था बनने की ओर तेजी से अग्रसर हो रही है। लेकिन हकीकत ये है कि अब तक देश में आधी दुनिया को नियमित रूप से काम नहीं मिल पा रहा है। यह एक ऐसा कटु सत्य है जिसे सरकार स्वीकारने को तैयार नहीं है।
भारत में महिलाओं के सामने नियमित रोजगार का संकट तेजी से अपने पांव पसार रहा है। ये हालात तब हैं जबकि विश्व की बड़ी-बड़ी ब्रांड कंपनियां चीन से कारखाना उत्पादन स्थानांतरित कर रही हैं और उनमें से कई भारत में लगाई जा रही हैं। जैसे-जैसे बड़े ब्रांड कुछ विनिर्माण भारत में स्थानांतरित करके चीन पर अपनी निर्भरता सीमित कर रहे हैं। इस प्रवृत्ति में विनिर्माण नौकरियों की महत्वपूर्ण संख्या पैदा करने की क्षमता है, विशेषकर महिलाओं के लिए जिन्हें औपचारिक भारतीय रोजगार की श्रेणी से काफी हद तक बाहर ही रखा गया है। नई दिल्ली में नेशनल काउंसिल आॅफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च की जनसांख्यिकी विशेषज्ञ सोनाल्डे देसाई कहती हैं कि भारत में महिला श्रमिकों की एक बड़ी रिजर्व सेना मौजूद है, जो अवसर मिलने पर काम करने के लिए तैयार है। ध्यान रहे कि जब भी महिलाओं के लिए नौकरियों के लिए आवेदन मगाए जाते हैं, उस समय बड़ी संख्या में महिलाएं आवेदन करती हैं। यह इस बात को सही सिद्ध करता है कि उनके हाथों में हूनर है लेकिन अवसर नहीं मिल पा रहे हैं।
पिछले पचास सालों में कई एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में विनिर्माण के उदय ने मजबूती प्रदान की है। इसके चलते आय बढ़ी, गरीबी कम हुई और काम के अवसर भी खुले हैं। खासकर महिलाएं इस बड़े परिवर्तन के केंद्र में रहीं। इस मामले में देखें तो वियतनाम में कारखानों की संख्या में तेजी से उछाल विशेष रूप से महत्वपूर्ण रहा है। विश्व बैंक द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, 15 वर्ष से अधिक आयु की 68 प्रतिशत से अधिक महिलाएं और लड़कियां किसी न किसी प्रकार के वेतन पर काम कर रही हैं। चीन में यह दर 63 प्रतिशत है, थाईलैंड में 59 प्रतिशत और इंडोनेशिया में 53 प्रतिशत। जबकि भारत में यह प्रतशित केवल 33 तक ही पहुंचा है।
भारत में महिलाओं का महत्वपूर्ण श्रम उनके घरों में दिखता है। जहां वे लगभग सभी काम और बच्चों की देखभाल करती हैं। वे कृषि क्षेत्रों में जहां फसल उगाती हैं और जानवरों को पालने से लेकर उनको चराने का जिम्मा भी परिवार में उनके ही हिस्से में ही आता है। यह सब वे बिना पैसे के कर रही हैं और इसमें उनका अच्छा खासा श्रम जाया होता है। मुर्गियां पालना और बच्चे पालना सब साथ-साथ चल रहा है। कहने के लिए महिलाओं को काम तो मिल रहा है लेकिन यह पारिश्रमिक वाला काम नहीं है। नियमित वेतन पाने की श्रेणी में भारतीय महिलाएं बड़े पैमाने पर पीछे हैं, वे उन व्यवसायों की श्रेणी में हैं जो नियमित वेतन-भुगतान प्रदान नहीं करते हैं। यही हाल सरकारी नौकरियों में भी है। उनकी अनुपस्थिति आंशिक रूप से सामाजिक भेदभाव को दर्शाती है।
पिछले दिनों प्रकाशित रॉयटर्स की जांच रिपोर्ट के अनुसार भारत के सबसे हाई-प्रोफाइल विदेशी निवेशकों में से एक फॉक्सकॉन द्वारा संचालित और आईफोन बनाने वाली एक फैक्ट्री ने घर की जिम्मेदारियों के कारण विवाहित महिलाओं को काम पर रखने से परहेज किया है। हालांकि सरकारी एजेंसियों ने कहा कि वे इन रिपोर्टों की जांच करेंगे। फिर भी भारतीय कार्यस्थल में महिलाओं की कमी वास्तव में अवसरों की कमी का प्रमाण है। प्रौद्योगिकी क्षेत्र जैसे प्रमुख क्षेत्रों में भी अपवादों को यदि छोड़ दें तो महिलाओं के लिए उपलब्ध नौकरियों में अक्सर इतना कम वेतन मिलता है कि वे उन सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने के लायक नहीं होती हैं जो अक्सर महिलाओं को घर तक सीमित रखते हैं। न्यूयार्क टाइम्स कि रिपोर्ट के अनुसार अथर्शास्त्रियों का कहना है कि अगर नौकरियां उपलब्ध होतीं तो आर्थिक उन्नति की तलाश में अधिक महिलाएं सामाजिक प्रतिबंधों का सामना करतीं हैं। यह विशेष रूप से इसलिए है क्योंकि भारत ने हाल के दशकों में लड़कियों की शिक्षा में निवेश में उल्लेखनीय वृद्धि की है। येल विश्वविद्यालय में आर्थिक विकास केंद्र की निदेशक और भारतीय श्रम विशेषज्ञ रोहिणी पांडे कहती हैं कि काम करने की इच्छा रखने वाली युवा महिलाओं की आपूर्ति बहुत अधिक है। वह कहती हैं कि हम जितने भी सर्वेक्षण देखते हैं उनमें महिलाएं काम करना चाहती हैं, लेकिन उन्हें उन जगहों पर जाना बहुत मुश्किल लगता है जहां नौकरियां हैं और नौकरियां उनके पास नहीं आ रही हैं। इस वास्तविकता के परिणाम बहुत गंभीर रूप से दिखाई पड़ते हैं।
ध्यान रहे कि कई औद्योगिक समाजों में जब अधिक संख्या में महिलाओं को नौकरी मिलती है तो यह परिवारों को लड़कियों की शिक्षा में और अधिक निवेश करने के लिए प्रेरित करता है। यह घरेलू खर्च करने की शक्ति को भी बढ़ाता है और साथ ही आर्थिक विस्तार को बढ़ावा देता है जो निवेशकों को अधिक कारखाने बनाने के लिए प्रेरित करता है और इससे अतिरिक्त नौकरियां पैदा होती हैं। यह गतिशीलता का सुगम चक्र है जिसे भारत ने वर्तमान में खो दिया क्योंकि वह तेजी से विनिर्माण के प्रसार में भाग लेने में विफल रहा है जबकि इसने कई एशियाई अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा दिया है।
ध्यान रहे कि नौकरी के कई हिस्सों में महिलाएं पुरुषों के मुकाबले बेहतर होती हैं। क्योंकि महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक घंटों तक ध्यान केंद्रित कर सकती हैं। उन्हें धूम्रपान ब्रेक या सामान्य रूप से ब्रेक की आवश्यकता नहीं होती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि महिलाएं निश्चित रूप से पुरुषों की तुलना में अधिक मेहनती और उत्पादक कारक के रूप में जानी जाती हैं।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )