दयानिधि

नासा और जर्मन उपग्रहों से प्राप्त अवलोकनों का उपयोग करते हुए, वैज्ञानिकों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम को इस बात के सबूत मिले है कि मई 2014 से धरती पर मीठे या ताजे पानी की कुल मात्रा में अचानक गिरावट आई है और तब से यह कमी लगातार बनी हुई है। शोधकर्ताओं ने शोध में कहा है कि यह बदलाव इस बात का संकेत दे रहा है कि पृथ्वी के महाद्वीप सूखे चरण में प्रवेश कर चुके हैं।

शोध के मुताबिक, साल 2015 से 2023 तक के उपग्रह मापों से पता चला है कि धरती में जमा मीठे या ताजे पानी की औसत मात्रा, जिसमें झीलों और नदियों जैसे तरल सतही पानी, साथ ही भूमिगत जलभृतों का पानी शामिल है। साल 2002 से 2014 तक के औसत स्तरों से 1,200 क्यूबिक किमी से कम थी।

सूखे के समय सिंचाई की जानी वाली खेती में बढ़ोतरी के साथ-साथ, खेतों और शहरों को भूजल पर अधिक निर्भर रहना पड़ता है, जिससे भूमिगत जल आपूर्ति में गिरावट का चक्र शुरू हो जाता है। मीठे पानी की आपूर्ति ठप हो जाती है, बारिश और बर्फबारी उन्हें फिर से भरने में कामयाब नहीं होती हैं और फिर पानी के लिए और अधिक भूजल पंप किया जाता है।

साल 2024 में प्रकाशित पानी की कमी को लेकर संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, उपलब्ध पानी में कमी से किसानों और समुदायों पर दबाव पड़ता है, जिससे अकाल, संघर्ष, गरीबी और बीमारी का खतरा बढ़ जाता है, जब लोगों को दूषित जल स्रोतों का उपयोग करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

शोधकर्ताओं की टीम ने जर्मन एयरोस्पेस सेंटर, जर्मन रिसर्च सेंटर फॉर जियोसाइंसेज और नासा द्वारा संचालित ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (जीआरएसीई) उपग्रहों के अवलोकनों का उपयोग करके दुनिया भर में मीठे पानी में अचानक आई कमी का पता लगाया है।जीआरएसीई उपग्रह मासिक पैमाने पर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण में उतार-चढ़ाव को मापते हैं जो जमीन पर और उसके नीचे पानी के द्रव्यमान में बदलावों को सामने लाते हैं।

अध्ययन में कहा गया है कि दुनिया भर में मीठे पानी में गिरावट उत्तरी और मध्य ब्राजील में बड़े पैमाने पर सूखे के साथ शुरू हुई और इसके तुरंत बाद ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका, उत्तरी अमेरिका, यूरोप और अफ्रीका में बड़े पैमाने पर पड़े सूखे ने इसे आगे बढ़ाया।

2014 के अंत से 2016 तक उष्णकटिबंधीय प्रशांत क्षेत्र में समुद्र का बढ़ता तापमान, 1950 के बाद से सबसे बड़ी एल नीनो घटनाओं में से एक सामने आई, जिससे वायुमंडलीय जेट धाराओं में बदलाव आया जिसने दुनिया भर में मौसम और बारिश का पैटर्न को बदल दिया।

हालांकि अल नीनो के कम होने के बाद भी दुनिया भर में मीठे पानी में उछाल नहीं आया। जीआरएसीई द्वारा देखे गए दुनिया के 30 सबसे तीव्र सूखे में से 13 जनवरी 2015 से हुए हैं।शोधकर्ताओं का मानना है कि ग्लोबल वार्मिंग मीठे पानी की लगातार कमी के लिए जिम्मेवार हो सकती है।

नासा के गोडार्ड मौसम विज्ञानी ने कहा कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण वायुमंडल में अधिक जल वाष्प जमा हो जाती है, जिसके कारण ज्यादा बारिश होती है। जबकि साल में होने वाली कुल बारिश और बर्फबारी के स्तर में कोई बड़ा बदलाव नहीं होता है, तीव्र बारिश की घटनाओं के बीच लंबी अवधि मिट्टी को सूखने और अधिक सघन होने देती है। इससे बारिश होने पर जमीन द्वारा अवशोषित किए जाने वाले पानी की मात्रा कम हो जाती है।

जब भयंकर बारिश होती है, तो समस्या यह होती है कि पानी बह जाता है, बजाय इसके कि वह भूजल भंडार में समा जाए और उसे फिर से भर दे। दुनिया भर में 2014 से 2016 के अल नीनो के बाद से मीठे पानी का स्तर लगातार कम हो रहा है, जबकि अधिक पानी जल वाष्प के रूप में वायुमंडल में जमा है।

तापमान बढ़ने से सतह से वायुमंडल में पानी का वाष्पीकरण और वायुमंडल की जल धारण करने क्षमता दोनों बढ़ जाती है, जिससे सूखे की स्थिति की आवृत्ति और तीव्रता बढ़ जाती है। इस बात पर संदेह करने के कई कारण हैं कि मीठे पानी में अचानक गिरावट मुख्य रूप से ग्लोबल वार्मिंग के कारण है, लेकिन दोनों को निश्चित रूप से जोड़ना मुश्किल है।

यह देखना अभी बाकी है कि दुनिया भर में मीठे पानी का स्तर 2015 से पहले के स्तर पर वापस आएगा, स्थिर रहेगा या फिर इसमें गिरावट जारी रहेगी। यह देखते हुए कि आधुनिक तापमान रिकॉर्ड में नौ सबसे गर्म साल मीठे पानी में अचानक गिरावट के साथ ही आए हैं। शोधकर्ता ने आशंका जताते हुए कहा कि यह एक संयोग है और यह आने वाले समय का संकेत हो सकता है।

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

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