ललित मौर्या

आज भारत बढ़ती आबादी से जूझ रहा है, लेकिन अनुमान है कि आने वाले कुछ दशकों में इसमें गिरावट का सिलसिला शुरू हो जाएगा और ऐसा देश में घटती प्रजनन दर की वजह से होगा। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि भारत में अगले 26 वर्षों में यानी 2050 तक कुल प्रजनन दर घटकर 1.29 रह जाएगी। मौजूदा समय में देखें तो में देश में कुल प्रजनन दर (टीएफआर) 1.91 है, जो वर्ष 2021 के आंकड़ों पर आधारित है।

देश में 1950 के दौरान यह टीएफआर 6.18 पर थी, जिसका मतलब है कि उस दौरान प्रति महिला के औसतन 6.18 बच्चे थे। यह भी अनुमान है कि सदी के अंत तक कुल प्रजनन दर घटकर 1.04 तक पहुंच सकती है। यह जानकारी अंतराष्ट्रीय जर्नल द लैंसेट में 20 मार्च 2024 को प्रकाशित एक नए अध्ययन में सामने आई है।

बता दें कि किसी देश की कुल प्रजनन दर का आशय वहां रहने वाली महिलाओं (15 से 49 वर्ष) के जीवनकाल में पैदा होने वाले जीवित बच्चों की औसत संख्या से है। देखा जाए तो भारत में लगातार घटती प्रजनन दर का यह जो आंकड़ा सामने आया है वो कहीं न कहीं वैश्विक रुझानों के अनुरूप भी है।

वैश्विक आंकड़ों को देखें तो पिछले सात दशकों में प्रजनन दर घटकर आधी रह गई है। गौरतलब है कि 1950 में वैश्विक स्तर पर कुल प्रजनन दर (टीएफआर) 4.8 से अधिक थी। वहीं 2021 में यह आंकड़ा घटकर औसतन 2.2 बच्चे प्रति महिला रह गया। वैज्ञानिकों का यह भी अनुमान है कि 2050 तक यह आंकड़ा 1.8, जबकि सदी के अंत तक 1.6 पर पहुंच सकता है। वैज्ञानिकों की मानें तो इसके लिए लाइफस्टाइल और आहार में गड़बड़ी के साथ-साथ कई अन्य पर्यावरणीय कारक जिम्मेवार हैं।

रिसर्च में जो चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं उनके मुताबिक 1950 में वैश्विक स्तर पर 9.3 करोड़ जीवित बच्चे पैदा हुए थे। वहीं जीवित जन्मे बच्चों का यह आंकड़ा 2016 में बढ़कर 14.2 करोड़ पर पहुंच गया, हालांकि इसके बाद 2021 में इसमें भारी गिरावट दर्ज की गई। उस वर्ष जीवित जन्मे बच्चों की संख्या घटकर 12.9 करोड़ पर पहुंच गई थी।

आने वाले दशक में घटने लगेगी भारत की आबादी

गौरतलब है कि भारत दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाला देश है, जो चीन को पीछे छोड़ पहले स्थान पर पहुंच गया है। लेकिन जिस तरह से देश में प्रजनन दर में गिरावट आ रही है, उससे आने वाले कुछ दशकों में देश की आबादी बढ़ने की जगह घट सकती है। इसके साथ ही घटती प्रजनन दर का सीधा असर सीधा असर देश की आबादी में मौजूद संतुलन पर भी पड़ेगा। शोधकर्ताओं के मुताबिक आबादी में बच्चों, जवानों और बुजुर्गों के बीच संतुलन को बनाए रखने के लिए प्रजनन दर का 2.1 के आसपास होना जरूरी है। ताकि देश में पर्याप्त बच्चे हों, जो आगे चलकर वयस्कों की जगह ले सकें।

लेकिन देश में जिस तरह से प्रजनन दर में गिरावट आ रही है, वो आबादी में संतुलन को बनाए रखने के लिए जरूरी स्तर से काफी नीचे है। मतलब की इसकी वजह से देश में धीरे-धीरे जवानों की जगह बुजुर्गों की आबादी कहीं ज्यादा बढ़ सकती है। नतीजन देश को आने वाले समय में श्रमिकों की कमी से जूझना पड़ सकता है।

रिसर्च की मानें तो भारत ऐसा अकेला देश नहीं है जहां टीएफआर में गिरावट आने से आबादी पर असर पड़ेगा। भारत की तरह ही दुनिया के आधे से अधिक यानी 204 में से 110 देशों में प्रजनन दर प्रतिस्थापन स्तर यानी 2.1 से भी कम रह गई है। आशंका है कि यदि यह सिलसिला आगे भी जारी रहता है तो सदी के अंत तक 97 फीसदी देश घटती टीएफआर से प्रभावित होंगें। बता दे कि आबादी के बीच संतुलन को बनाए रखने के लिए यह प्रतिस्थापन स्तर बेहद आवश्यक है।

यह अध्ययन इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (आईएचएमई) के शोधकर्ताओं द्वारा किए ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज (जीबीडी) के आंकड़ों पर आधारित है। शोधकर्ताओं के मुताबिक भले ही दुनिया के अधिकांश देश प्रजनन दर में आती कमी से जूझ रहे हैं, लेकिन फिर भी सदी के दौरान कई कमजोर देशों में यह जोखिम उतना नहीं है।

चाड में प्रति महिला सात है प्रजनन दर

प्रजनन दर में आती गिरावट की यह प्रवृत्ति विशेष रूप से दक्षिण कोरिया और सर्बिया जैसे देशों के लिए बेहद चिंताजनक है, जहां यह दर प्रति महिला 1.1 बच्चे से कम है। लेकिन उप-सहारा अफ्रीका के कई देशों में, यह प्रजनन दर अभी भी बेहद ऊंची बनी हुई है। इन क्षेत्रों में यह प्रजनन दर वैश्विक औसत से करीब दोगुनी है यानी वहां प्रति महिला औसतन चार बच्चे हैं। प्रति महिला द्वारा जन्म दिए जाने वाले बच्चों की संख्या के लिहाज से देखें तो चाड सबसे ऊपर है। जहां 2021 में प्रजनन दर प्रति महिला सात दर्ज की गई। प्रजनन दर का यह आंकड़ा मौजूदा समय में दुनिया में सबसे अधिक है।

वैज्ञानिकों का यह भी अंदेशा है कि आने वाले दशकों में वैश्विक प्रजनन दर काफी नीचे आ जाएगी। सदी के अंत तक 204 में से महज छह देशों में यह प्रजनन दर प्रति महिला 2.1 जीवित जन्में बच्चों से अधिक होने की सम्भावना है। इन देशों में समोआ, सोमालिया, टोंगा, नाइजर, चाड और ताजिकिस्तान शामिल हैं। वहीं दूसरी तरफ भूटान, बांग्लादेश, नेपाल और सऊदी अरब सहित 13 देशों में, यह दर प्रति महिला एक बच्चे से भी कम रहने का अनुमान है।

रिसर्च से यह भी सामने आया है कि बच्चों के जन्म का जो वैश्विक पैटर्न है, उसमें भी भारी बदलाव आ रहा है। जहां 2021 में दुनिया के 29 फीसदी बच्चे उप-सहारा अफ्रीका में पैदा हुए थे। वहीं सदी के अंत तक यह आंकड़ा बढ़कर 54 फीसदी तक पहुंच सकता है। यह आंकड़े इस बात को दर्शाते हैं कि अफ्रीका में आबादी तेजी से बढ़ेगी। जो इन देशों में महिलाओं की शिक्षा और आधुनिक गर्भनिरोधक उपायों की पहुंच में सुधार की तत्काल आवश्यकता पर बल देता है।

रिपोर्ट में यह भी आशंका जताई गई है कि आने वाले दशकों में, अधिकांश बच्चे दुनिया के कुछ सबसे संसाधन-सीमित क्षेत्रों में पैदा होंगे। अनुमान है कि सदी के अंत तक दुनिया के तीन-चौथाई यानी 77 फीसदी से अधिक जीवित बच्चे निम्न और निम्न-मध्यम आय वाले देशों में जन्म लेंगें। यह देश पहले ही अनगिनत सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय समस्याओं से जूझ रहे हैं। इनमें जलवायु परिवर्तन, गरीबी, आहार की कमी, कुपोषण, स्वास्थ्य, साफ पानी, स्वच्छता जैसी समस्याएं शामिल हैं। ऐसे में यदि इन देशों में आबादी बढ़ती है, तो इन समस्याओं का सामना करने के लिए पहले से कहीं अधिक तैयार रहने की जरूरत होगी।

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

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