ललित मौर्या
मार्च का महीना अभी शुरू भी नहीं हुआ है, उससे पहले ही देश के कई हिस्सों में गर्मी ने दस्तक दे दी है। हालात यह है कि भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) को केरल और रायलसीमा क्षेत्र के लिए लू और उमस के चलते पीला (येलो) अलर्ट तक जारी करना पड़ा है। एक तरफ जहां बसंत का मौसम तेजी से घट रहा है, वहीं गर्मी के महीने समय से पहले शुरू हो रहे हैं।
यह स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि देश में जलवायु में आता बदलाव भारत में मौसम पर अपना असर दिखाने लगा है। जलवायु वैज्ञानिकों का भी कहना है कि भारत में लू का प्रकोप समय के साथ और भीषण रूप ले लेगा। इस बारे में क्लाइमेट ट्रेंड्स ने प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी देते हुए लिखा है कि जैसे-जैसे जलवायु में आते बदलावों के कारण तापमान में वृद्धि हो रही है, देश भर में स्थानीय मौसम के पैटर्न में महत्वपूर्ण बदलाव हो रहे हैं। ऐसे में आशंका है कि गर्मी के महीनों की शुरूआत समय से पहले हो सकती है। भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के अनुसार ऐसा ही कुछ जनवरी 2024 में देखा गया जब पश्चिमी हिमालय में पिछले 100 वर्षों में दूसरी सबसे कम बारिश (पांच सेमी) दर्ज की गई।
गर्मी के महीनों की जल्द शुरूआत की आशंका जताते हुए आईएमडी के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर नरेश कुमार का कहना है कि आईएमडी इस वर्ष से गर्मी के खतरे की स्थिति को लेकर चेतावनी की शुरूआत कर रहा है। उनके मुताबिक गर्मी का पूर्वानुमान जो एक अप्रैल से जारी किया जाता था, वो उसके बजाय एक मार्च से जारी किया जाएगा।
डॉक्टर कुमार ने प्रेस विज्ञप्ति में इस बारे में जानकारी देते हुए कहा है कि भारत के सभी हिस्सों में गर्मी के दिन बढ़ रहे हैं। उनके अनुसार मार्च में, दक्षिण प्रायद्वीपीय भारत में उच्च तापमान अनुभव किया जाएगा। आईएमडी ने केरल और रायलसीमा में बढ़ते तापमान और आद्रता को लेकर चेतावनी भी जारी की है। वहां अधिकतम तापमान 38 डिग्री सेल्सियस तक जा सकता है, साथ ही आर्द्रता के भी अधिक रहने का अनुमान है।
क्लाइमेट सेंट्रल से जुड़े डॉक्टर एंड्रयू पर्सिंग, जिन्होंने पिछले 100 वर्षों के आंकड़ों का अध्ययन किया है। उनका कहना है कि अल नीनो की स्थितियां अब पहले की तुलना में कहीं अधिक गर्म हैं। उनके मुताबिक अध्ययन से पता चलता है कि शरद ऋतु सभी मौसमों में सबसे तेजी से गर्म हो रही है। यह भी सामने आया है कि भारत के पश्चिमी हिस्सों में सर्दियों के दौरान फरवरी और जनवरी के बीच गर्मी के रुझान में काफी अंतर होता है। गर्म मौसम की स्थिति में तेजी से बदलाव की प्रवृत्ति देखी गई है, जिससे बसंत का मौसम सिकुड़ रहा है।
बता दें कि गर्मियों की शुरूआत के साथ ही इस बात को लेकर चिंताएं बढ़ जाती हैं कि अधिकारी इस मुद्दे से निपटने के लिए कितने तैयार हैं। भारत में प्राकृतिक संसाधन रक्षा परिषद के क्लाइमेट रेसिलिएंस और स्वास्थ्य कार्यक्रम प्रमुख अभियंत तिवारी का दावा है कि देश में भेद्यता सूचकांक पर अभी काम किया जा रहा है। इसकी कार्य योजना के विस्तार और इसके लिए बजट का पता लगाने के लिए विभिन्न विभागों में योजनाओं पर चर्चा शुरू कर दी है। उनके मुताबिक दिन और रात दोनों के दौरान उच्च तापमान के साथ-साथ, अधिकांश आबादी के पास अपने आप को ठंडा रखने और बेहतर वेंटिलेशन से जुड़ी सुविधाओं का आभाव है, जिसके चलते देश में स्थिति चुनौतीपूर्ण है।
लू और जलवायु परिवर्तन के संबंधों को लेकर क्या सोचता है भारतीय मीडिया
बता दें कि क्लाइमेट ट्रेंड्स ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से जुड़े डॉक्टर जेम्स पेंटर के नेतृत्व में भारत में बढ़ते लू के कहर को लेकर यह नया अध्ययन जारी किया है। अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 2022 के दौरान देश में हुए लू के प्रकोप को भारतीय मीडिया ने कैसे कवर किया है, उसका भी विश्लेषण किया है।
इस अध्ययन के मुताबिक जहां अंग्रेजी अखबारों के साथ-साथ समाचार वीडियो ने अपनी खबरों में लू को जलवायु परिवर्तन से जोड़ा है। इस रिपोर्ट से पता चलता है कि 14 फीसदी अंग्रेजी समाचार लेखों और 24 फीसदी वीडियों में लू और जलवायु परिवर्तन के बीच के संबंधों को उजागर किया है।
वहीं क्षेत्रीय भाषाओं में ऐसी समाचार रिपोर्टों की संख्या कम थी जिन्होंने लू को जलवायु परिवर्तन से जोड़कर देखा है। उदाहरण के लिए हिंदी में यह आंकड़ा सात फीसदी, मराठी में छह फीसदी, जबकि तेलुगु में महज तीन फीसदी था। इसी तरह जहां अधिकांश भारतीय मीडिया ने जलवायु परिवर्तन को समझाने के लिए ज्यादातर वैज्ञानिकों, मौसम विज्ञानियों और वैज्ञानिक संगठनों पर भरोसा जताया है। उनके इस दृष्टिकोण ने लू के लिए पूरी तरह से जलवायु परिवर्तन को दोषी ठहराने जैसे गलत बयान देने की संभावना को कम कर दिया है। हालांकि, हिंदी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इस मुद्दे को द्विआधारी बयानों की मदद से सरल बनाने में लगा हुआ है।
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के रॉयटर्स इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ जर्नलिज्म के रिसर्च एसोसिएट और अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डॉक्टर जेम्स पेंटर का कहना है कि “जलवायु विज्ञान से पता चलता है कि भारत में गर्मी की लहरें और अधिक विकराल रूप ले सकती हैं।” उनके मुताबिक रिपोर्ट इंगित करती है कि भारतीय पत्रकार दुनिया के अन्य पत्रकारों की तरह ही लोगों को जलवायु परिवर्तन और इन विनाशकारी लू की घटनाओं के बीच संबंधों को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर सकते हैं।
वहीं क्वींसलैंड विश्वविद्यालय के वरिष्ठ व्याख्याता और अध्ययन से जुड़े अन्य शोधकर्ता जगदीश ठाकेर के मुताबिक वर्तमान में, भारतीय मीडिया जलवायु परिवर्तन के बारे में अपनी क्षमता से कम जागरूक कर रहा है। उनके अनुसार जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चरम मौसमी घटनाओं जैसे लू की सटीक और लगातार कवरेज के माध्यम से, भारतीय मीडिया देश में एक बड़े वर्ग को यह सीखने और समझने में मदद कर सकता है कि जलवायु परिवर्तन पर कैसे प्रतिक्रिया दी जाए।
बता दें कि 2022 में प्रभावित करने वाली लू अपने रिकॉर्ड तापमान, जल्द शुरूआत, असामान्य रूप से लंबी अवधि और व्यापक प्रभाव के कारण असाधारण थी। वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन का भी कहना है कि जलवायु में आते बदलावों के चलते लू की संभावना 30 गुणा अधिक हो गई है। इसकी गंभीरता और व्यापक प्रभाव के कारण इसे मीडिया में व्यापक रूप से रिपोर्ट किया गया।
इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने मार्च से मई 2022 के बीच लू की मीडिया में छपी खबरों कवरेज का विश्लेषण किया है। उन्होंने पाया है कि इस अवधि के दौरान अंग्रेजी में प्रकाशित 1,930 समाचार लेखों में से 272 में जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग और लू के बीच संबंधों का उल्लेख किया गया, जो करीब 14 फीसदी है। इनमें से 70 फीसदी से अधिक लेखों का सुझाव था कि जलवायु परिवर्तन ने 2022 में लू को कहीं अधिक गंभीर बना दिया है।
साथ ही इन खबरों में वैज्ञानिकों के उस कथन का भी जिक्र किया गया है, जिसके मुताबिक भविष्य में इस प्रकार की लू की घटनाएं कहीं अधिक बार हो सकती हैं। साथ ही भविष्य में यह कहीं ज्यादा गंभीर रूप ले सकती हैं। इस बात का भी जानकारी इन खबरों में दी गई है।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )