दयानिधि

दुनिया भर में जलवायु संबंधी असमानताएं लगातार जारी है, क्योंकि सबसे कम जिम्मेदार लोग अक्सर देशों के बीच और भीतर जलवायु में बदलाव के सबसे अधिक प्रभाव झेलते हैं। धनी लोगों का कार्बन फुटप्रिंट अधिक होता है, यानी इनके द्वारा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन सबसे अधिक किया जाता है।

एक नए अध्ययन में इन असमानताओं के कारण जलवायु में होने वाले बदलावों की मात्रा निर्धारित की गई है। इसमें पाया गया है कि दुनिया के सबसे धनी 10 फीसदी लोग 1990 के बाद से बढ़ती गर्मी के दो-तिहाई हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं। इसके कारण लू या हीटवेव और सूखे जैसी जलवायु की चरम स्थितियों में बढ़ोतरी हुई है।

अध्ययन में सबसे अधिक उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार लोगों का आकलन किया गया है और देखा गया है कि दुनिया भर में सबसे धनी लोगों के शीर्ष एक फीसदी ने वैश्विक औसत से 26 गुना अधिक तापमान बढ़ा दिया है। इसके कारण दुनिया के एक में 100 साल की मासिक चरम गर्मी की स्थितियों में वृद्धि और अमेजन के 17 गुना सूखा पड़ता है।

शोध में आय पर आधारित उत्सर्जन की असमानता और जलवायु में बदलाव के बीच संबंधों पर नई रोशनी डाली गई है, यह दर्शाता है कि कैसे अमीर लोगों के उपभोग और निवेश ने चरम मौसम की घटनाओं पर असमान प्रभाव डाला है। ये प्रभाव विशेष रूप से अमेजन, दक्षिण पूर्व एशिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे कमजोर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में गंभीर हैं, ये सभी क्षेत्र ऐतिहासिक रूप से दुनिया भर में सबसे कम उत्सर्जन करने वाले क्षेत्र हैं।

नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ता के हवाले से कहा गया है कि चरम जलवायु संबंधी प्रभाव केवल वैश्विक उत्सर्जन का परिणाम नहीं हैं, इसके बजाय उन्हें सीधे अपनी जीवनशैली और निवेश विकल्पों से जोड़कर देखा जा सकता है, जो बदले में धन से जुड़े हैं।

शोध में पाया गया कि अमीर उत्सर्जक जलवायु चरम सीमाओं को बढ़ाने में एक प्रमुख भूमिका निभाते हैं। आर्थिक आंकड़े और जलवायु सिमुलेशन को जोड़ने वाले एक नए मॉडलिंग ढांचे का उपयोग करके, शोधकर्ता दुनिया भर में विभिन्न आय समूहों से उत्सर्जन का पता लगाने और विशिष्ट जलवायु चरम सीमाओं में उनके योगदान का आकलन करने में सफल रहे।

शोधकर्ताओं ने पाया कि अमेरिका और चीन जैसे देशों में सबसे अमीर 10 फीसदी लोगों के उत्सर्जन से, प्रत्येक ने संवेदनशील क्षेत्रों में गर्मी की चरम सीमाओं में दो से तीन गुना की बढ़ोतरी की। शोध पत्र में शोधकर्ता के हवाले से कहा गया है कि यदि सभी ने दुनिया की आबादी के निचले 50 फीसदी की तरह उत्सर्जन किया होता, तो दुनिया ने 1990 के बाद से न्यूनतम अतिरिक्त गर्मी देखी होती। इस असंतुलन से निपटने के लिए निष्पक्ष और प्रभावी जलवायु कार्रवाई जरूरी है।

शोध में व्यक्तिगत उपभोग के बजाय वित्तीय निवेश में निहित उत्सर्जन के महत्व पर भी जोर दिया गया है। शोधकर्ताओं का तर्क है कि बहुत ज्यादा आय वाले लोगों के वित्तीय प्रवाह और चीजों को निशाना बनाने से पर्याप्त जलवायु संबंधी फायदे मिल सकते हैं।

शोध के मुताबिक, जलवायु कार्रवाई जो समाज के सबसे धनी लोगों की बड़ी जिम्मेदारियों को हल नहीं करती है, भविष्य में होने वाले नुकसान को कम करने के लिए हमारे पास मौजूद सबसे शक्तिशाली चीजों में से एक को खोने का खतरा उठाती है।

शोध पत्र में शोधकर्ताओं के हवाले से सुझाव दिया गया है कि समाज के धनी वर्ग को प्रगतिशील नीति साधनों के लिए प्रेरित किया जा सकता है, यह देखते हुए कि ऐसी नीतियां जलवायु कार्रवाई की सामाजिक स्वीकृति को भी बढ़ावा दे सकती हैं। अमीर व्यक्तिगत प्रदूषकों के भुगतान करने से कमजोर देशों में अनुकूलन और नुकसान के लिए बहुत जरूरी सहायता मिल सकती है।

शोध के निष्कर्ष में कहा गया है कि वास्तविक उत्सर्जन में योगदान के अनुरूप जलवायु कार्रवाई के लिए जिम्मेदारी को दोबारा तय करना न केवल दुनिया के तापमान वृद्धि को धीमा करने के लिए जरूरी है, बल्कि एक न्यायपूर्ण और लचीली दुनिया को हासिल करने के लिए भी जरूरी है।

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

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