ललित मौर्या
भारत में नदियों की लंबाई का करीब 80 फीसदी हिस्सा एंटीबायोटिक प्रदूषण के कारण खतरे में है। यह प्रदूषण न केवल पर्यावरण, बल्कि इंसानी सेहत पर भी असर डाल सकता है। यह दावा कनाडा की मैकगिल यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अपने एक नए अध्ययन में किया है। अध्ययन के मुताबिक, भारत में करीब 31.5 करोड़ लोग एंटीबायोटिक से दूषित नदियों के कारण पर्यावरण संबंधी खतरों का सामना करने को मजबूर हो सकते हैं।
इस अध्ययन के नतीजे प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज नेक्सस (पीएनएएस नेक्सस) में प्रकाशित हुए हैं। अध्ययन में यह भी सामने आया है कि भारत में ‘सेफिक्सिम’, जो ब्रोंकाइटिस जैसी बीमारियों के इलाज में दी जाती है, नदियों में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाली एंटीबायोटिक दवा के रूप में सामने आई है। अध्ययन में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि भारत सहित नाइजीरिया, इथियोपिया, वियतनाम और पाकिस्तान जैसे देश भी एंटीबायोटिक प्रदूषण के कारण गंभीर खतरे का सामना कर रहे हैं।
वैज्ञानिकों के मुताबिक एंटीबायोटिक्स, जो शरीर में बैक्टीरिया से लड़ने के लिए दिए जाते हैं। वो शरीर में पूरी तरह नहीं पचते। यही नहीं ज्यादातर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट भी इन्हें पूरी तरह साफ नहीं कर पाते। इसका नतीजा यह होता है कि इन एंटीबायोटिक्स का एक बड़ा हिस्सा शरीर से होता हुआ नदियों, झीलों, तालाबों तक पहुंच जाता है। इसकी वजह से यह जल स्रोत दूषित हो रहे हैं।
यह भी सामने आया है कि भारत में करीब 31.5 करोड़ लोग उन नदियों के संपर्क में आ सकते हैं, जो एंटीबायोटिक से दूषित हैं। गौरतलब है कि अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 21 अलग-अलग तरह की एंटीबायोटिक दवाओं को दुनिया भर में 877 जगहों पर मापा है। साथ ही मॉडल की मदद से यह अनुमान लगाया है कि इसकी वजह से नदियों और जल स्रोत किस हद तक दूषित हो चुके हैं।
अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने ‘रिवर एटलस’ नामक आंकड़ों का विश्लेषण किया है। इसमें दुनियाभर की नदियों के 84 लाख से ज्यादा हिस्सों या खंडों की जानकारी है। यह कुल मिलाकर करीब 3.6 करोड़ किलोमीटर लंबी नदियों को दर्शाते हैं। इन आंकड़ों मैकगिल यूनिवर्सिटी द्वारा एकत्र किया गया है।
वैज्ञानिकों ने 2012 से 2015 के बीच वैश्विक एंटीबायोटिक बिक्री के आंकड़ों के आधार पर अनुमान लगाया कि हर साल लोग करीब 29,200 टन सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाली 40 एंटीबायोटिक दवाओं का सेवन कर रहे हैं। इनमें से करीब 29 फीसदी यानी 8,500 टन दवाएं नदियों, धाराओं में पहुंच रही हैं, जबकि करीब 11 फीसदी (3,300 टन) नदियों के जरिए समुद्रों, झीलों और जलाशयों तक पहुंच रही हैं।
दुनिया में 60 लाख किलोमीटर लंबी नदियों पर मंडरा रहा खतरा
अध्ययन में यह भी सामने आया है कि ज्यादातर नदियों में इन दवाओं के बचे अंश की मात्रा बेहद कम होती है और इन्हें पहचानना मुश्किल होता है। लेकिन जब नदियों में पानी कम होता है, तो स्थिति पूरी तरह बदल जाती है।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि पानी घटने के साथ करीब 60 लाख किलोमीटर लंबी नदियों में एंटीबायोटिक की मात्रा इतनी अधिक हो जाती है कि वो पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा सकती हैं। इस मामले में भारत, पाकिस्तान और दक्षिण-पूर्व एशिया के देश सबसे अधिक प्रभावित पाए गए हैं। करीब 38 लाख किलोमीटर लंबी नदियों में, जहां कम बहाव के समय कम से कम एक एंटीबायोटिक का खतरा बेहद अधिक पाया गया, वहां ऐमोक्सिसिलिन, सेफ्ट्रियाक्सोन और सेफिक्सिम का स्तर सबसे अधिक था।
शोधकर्ताओं ने चेताया कि दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया जैसे इलाकों में, जो पहले ही एंटीबायोटिक प्रतिरोध की समस्या से जूझ रहे हैं, वहां यह खतरा और बढ़ सकता है। अध्ययन में यह भी सामने आया है कि जिन इलाकों में बिना डॉक्टर की सलाह के एंटीबायोटिक्स आसानी से मिलती हैं और एहतियातन ली जाती हैं, वहां प्रदूषण का खतरा सबसे ज्यादा है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि दुनिया की करीब 10 फीसदी आबादी यानी लगभग 75 करोड़ लोग नदियों, झीलों जैसे उन जल स्रोतों के संपर्क में हैं, जहां एंटीबायोटिक दवाओं की मात्रा अधिक पाई गई है।
गौरतलब है कि दुनिया में जिस तरह धड़ल्ले से एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग बढ़ रहा है वो अपने आप में एक बड़ी चिंता का विषय है। इससे पहले के अध्ययन में भी सामने आया है कि 2000 से 2015 के बीच वैश्विक स्तर पर इंसानों में एंटीबायोटिक्स का उपयोग 65 फीसदी बढ़ गया था। आशंका है कि यदि नीतियों में बदलाव न किया गया तो यह आंकड़ा 2030 तक 200 फीसदी तक बढ़ सकता है।
ऐसे में वैज्ञानिकों ने चेताया है कि ऐसे में सीवेज और गंदे पानी का उचित प्रबंधन बेहद जरूरी है। साथ ही एंटीबायोटिक के बेतहाशा होते इस्तेमाल को रोकने के लिए सख्त नियम बेहद जरूरी हो गए है। खासकर उन दवाओं और जगहों पर ध्यान देना बेहद जरूरी है जहां इनका खतरा सबसे अधिक है।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )