भागीरथ

मुंबई में 20 अप्रैल के आसपास कई महीनों से पेड़ों पर लगीं असंख्य सजावटी एलईडी लाइटें अचानक उतरने लगीं। बृहन्मुंबई नगरपालिका (बीएमसी) की इस फुर्ती के पीछे बॉम्बे उच्च न्यायालय का 10 अप्रैल, 2024 का एक आदेश था जिसमें न्यायालय ने एक जनहित याचिका के जवाब में महाराष्ट्र सरकार, बृहन्मुंबई नगरपालिका (बीएमसी), ठाणे नगरपालिका और मीरा भयंदर नगरपालिका को नोटिस जारी कर शहर में लगाई गईं कृत्रिम सजावटी लाइटों के संबंध में हलफनामा दाखिल करने का आदेश दिया था। सामाजिक कार्यकर्ता रोहित मनोहर जोशी द्वारा दाखिल जनहित याचिका में पेड़ों पर लगाई गईं कृत्रिम सजावटी लाइटों को प्रकाश प्रदूषण से जोड़ते हुए इसका विरोध किया गया था और इन्हें पेड़ों व रात्रिचर जीवों के लिए नुकसानदेह बताया था।

याचिका में अदालत को प्रमाण के साथ अवगत कराया गया था कि रात में कृत्रिम प्रकाश की अधिकता के कारण पौधों की प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया बाधित होती है। जोशी ने अपनी याचिका में छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में स्थित गुरू घासीदास विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के अध्ययन “इफेक्ट स्ट्रीट लाइट पॉल्यूशन ऑन द फोटोसिंथेटिक एफिशिएंसी ऑफ डिफरेंट प्लांट” का हवाला था कि जब पौधे लगातार कृत्रिम प्रकाश के संपर्क में रहते हैं, तब उनकी प्रकाश संश्लेषण (फोटो सिंथेसिस) की क्षमता प्रभावित होती है। बायोलॉजिकल रिदम रिसर्च में 2018 में प्रकाशित इस अध्ययन में शोधकर्ता नीलिमा मेरावी व संतोष कुमार प्रजापति ने पाया कि प्रकाश संश्लेषण की इस प्रक्रिया को ठीक से करने के लिए अंधेरा जरूरी होता है, इसलिए अंधेरे को क्रियात्मक गतिविधियों के स्रोत के रूप में देखा जाना चाहिए।

याचिकाकर्ता ने अदालत को एक अन्य साक्ष्य में बताया कि इस प्रकार की रोशनी से पक्षियों का सर्कैडियन रिदम (यह 24 घंटे में जीवों द्वारा महसूस किए गए जाने वाला भौतिक, मानसिक और व्यवहारात्मक बदलाव होता है। मानव और पौधों सहित सभी छोटे-बड़े जीवों का अपना सर्कैडियन रिदम होता है, जिसे शरीर के भीतर मौजूद स्वचालित बायोलॉजिकल क्लॉक चलाती है। प्रकाश और अंधेरा इस पर असर डालने वाले महत्वपूर्ण कारक हैं ) भी बाधित होता है और इससे उनकी घोंसला बनाने, रूस्टिंग और अन्य गतिविधियां प्रभावित होती हैं। उन्होंने ठाणे की कचराली झील का उदाहरण देते हुए अदालत को अवगत कराया कि यहां ब्लैक क्राउंड नाइट हेरोन पक्षी रात के समय मछलियों को खाकर जिंदा रहता है। यहां पेड़ों पर फ्लडलाइट की नियमित और तेज रोशनी ने पक्षी को भ्रमित कर उसके शिकार और भोजन को प्रभावित कर दिया है। इसी तरह माघी गणेश उत्सव के दौरान लगे पंडाल, तेज रोशनी और नियमित शोर ने कॉलोनी में बसे चमगादड़ों को अस्थायी तौर पर विस्थापित कर दिया है। जनहित याचिका में दलील दी गई कि परेशान करने वाली तेज रोशनी ने मुंबई, ठाणे और मीरा भयंदर में पक्षियों के लिए गंभीर खतरा पैदा कर दिया है।

जोशी की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए चीफ जस्टिस देवेंद्र कुमार उपाध्याय व जस्टिस आरिफ एस डॉक्टर की खंडपीठ ने माना कि याचिका में जनहित के वाजिब मुद्दे को उठाया गया है। कोर्ट ने चार हफ्तों में सरकार और नगर पालिकाओं को इस संबंध में हलफनामा दाखिल करने को कहा। हालांकि कोर्ट के आदेश के कुछ दिनों बाद ही बीएमसी ने पूरी मुंबई में पेड़ों पर लपेटी गईं कृत्रिम सजावटी लाइटों को हटाना शुरू कर दिया।

याचिककर्ता ने इस घटनाक्रम पर राेशनी डालते हुए डाउन टू अर्थ को बताया कि पिछले साल जी-20 सम्मेलन के चलते शहर में बेशुमार लाइटें लगी थीं जबकि मुंबई में जी-20 से संबंधित किसी प्रतिनिधिमंडल को नहीं आना था। खुद को विकसित दिखाने के लिए मुंबई में 10 हजार से अधिक पेड़ों पर इन्हें लपेटा गया था। वह आगे बताते हैं, “जब मैंने कोर्ट में याचिका दाखिल की थी, तब केवल तीन नगरपालिकाओं से कृत्रिम लाइटिंग के सबूत जुटाए थे। अगली सुनवाई (अगस्त 2024) में हम निवेदन करेंगे कि कोर्ट इसमें पूरे महाराष्ट्र को शामिल करे।” क्योंकि उनका मानना है कि यह मुद्दा केवल महाराष्ट्र का नहीं, बल्कि पूरे देश का है।

मुंबई की तरह महाराष्ट्र की पनवेल महानगरपालिका भी मई, 2023 में 400 साल पुरानी वडाले झील के सौंदर्यीकरण के नाम पर उसे कृत्रिम प्रकाश से नहलाने की परियोजना लाई थी। योजना के तहत झील के 1,300 मीटर के किनारों पर एलईडी लगानी थी। साथ ही डायनामिक रोशनी युक्त कृत्रिम पैराशूट, रंगीन एलईडी से जगमग बेंच, लेजर लाइटें और जानवरों के पुतलों को कृत्रिम रोशनी से जगमग करना था।

पहली नजर में शायद ही किसी भारतीय को इस सौंदर्यीकरण परियोजना में खोट नजर आए क्योंकि यह बहुत ही सामान्य है और हमने ऐसी परियोजनाओं को विकास का प्रतीक मान लिया है। लेकिन खारघर हिल एंड वेटलेंड्स ग्रुप से जुड़ीं ज्योति नदकरनी और गैर लाभकारी संगठन नेटकनेक्ट फाउंडेशन के निदेशक बीएन कुमार ने न केवल प्रकाश प्रदूषण का जरिया बनने वाली इस परियोजना का विरोध किया बल्कि राज्य के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे तक अपना विरोध दर्ज कराया। झील को बेहद करीब से देखने वाली ज्योति नदकरनी अपने अनुभव से बताती हैं कि इसमें केवल पक्षी रहते ही नहीं बल्कि अंडे भी देते हैं और उनके बच्चे भी हैं। यहां पक्षियों की 45 से 50 प्रजातियां रहती हैं। इनमें से कुछ तो ऐसी हैं जो 12 साल बाद दिखाई देती हैं। इसमें छोटे टापू हैं जहां पक्षी विश्राम करते हैं। लाइट लगने से पूरी झील लाइट शो जैसी हो गई थी। बकौल नदकरनी, “नगरपालिका की खुद को बायोडायवर्सिटी कमेटी है लेकिन मुझे नहीं लगता है कि एलईडी लाइटिंग लगाने से पहले उनसे परामर्श लिया गया होगा।”

इस मामले को मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे तक पहुंचाने वाले बीएन कुमार ने उन्हें ईमेल के जरिए बताया, “पनवेल नगर निगम (पीएमसी) प्राकृतिक सुंदरता की कीमत पर झील के परिवेश को एलईडी से रोशन करने, कृत्रिम मंच बनाने, पक्षियों और हिरणों की मूर्तियां लगाने के काम पर आगे बढ़ रहा है। इससे घास और खरपतवार, जो पेंटेड स्नाइप जैसे कई विदेशी पक्षियों के घर हैं, खतरे में हैं।”

पर्यावरणविदों की इस सक्रियता और दबाव का नतीजा यह निकला कि जून 2023 में महानगरपालिका परियोजना से पीछे हट गई और लगाई जा चुकीं कृत्रिम लाइटों को हटा दिया गया। बीएन कुमार ने देखा है कि तेज रोशनी के चलते फ्लेमिंगों जैसे पक्षी दिशा भटक जाते हैं और अक्सर साइन बोर्ड से टकराकर हादसे का शिकार हो जाते हैं। ऐसा ही एक हादसा वडाले झील से करीब 17 किलोमीटर दूर नवी मुंबई के नेरूल इलाके में उन्होंने देखा। यहां 2 फरवरी, 2024 को वर्ल्ड वेटलैंड डे से ठीक एक दिन पहले चार फ्लेमिंगो पक्षी साइन बोर्ड से टकराकर मर गए थे। मुंबई में ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं।

मुंबई में पेड़ों पर कृत्रिम सजावटी लाइटों से जैव विविधता और पेड़ों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को देखते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई है। न्यायालय ने इस संबंध में नगरपालिकाओं को हलफनामा दाखिल करने का आदेश दिया है
मुंबई में पेड़ों पर कृत्रिम सजावटी लाइटों से जैव विविधता और पेड़ों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को देखते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई है। न्यायालय ने इस संबंध में नगरपालिकाओं को हलफनामा दाखिल करने का आदेश दिया है

उभरती वैश्विक समस्या

बीएन कुमार जिस प्रकाश प्रदूषण को पक्षियों के लिए काल मान रहे हैं वह आधुनिक सभ्यता का दुष्परिणाम है। हाल के कुछ दशकों में जनसंख्या वृद्धि, आर्थिक विकास और प्रकाश की कम लागत ने रात के कृत्रिम प्रकाश को आसमान मंे पहुंचाकर उसकी चमक बढ़ा दी है। यह ग्लेयर, स्काईग्लो और ट्रेसपास से प्रदूषण का जरिया बन रहा है (देखें, “प्रकाश कब बनता है प्रदूषण”,)।

कन्वेंशन ऑन द कंजरवेशन ऑफ माइग्रेटरी स्पीसीज ऑफ वाइल्ड एनिमल (सीएमएस) की कार्यकारी सचिव एमी फ्रेंकल के अनुसार, “अमूमन कृत्रिम प्रकाश का उपयोग सुरक्षा कारणों, स्मारकों को आकर्षिक करने, प्रचार और मनोरंजन के लिए किया जाता है। लेकिन यह प्रकाश व्यवस्था प्राकृतिक पर्यावरण में नाटकीय रूप से हस्तक्षेप कर सकती है।” वह मानती हैं कि जब कृत्रिम प्रकाश व्यवस्था पारिस्थितिकी तंत्र में प्रकाश और अंधेरे के प्राकृतिक पैटर्न को बदल देती है, तो इसे प्रकाश प्रदूषण कहा जाता है।

मौजूदा समय में कृत्रिम प्रकाश हर उस जगह पहुंच गया है, जहां मानव मौजूद है। बाहरी प्रकाश पैदा करने वाले स्रोत जैसे स्ट्रीट लाइट, फ्लडलाइट, वाहनों की लाइट, बिलबोर्ड, होर्डिंग आदि इसके प्रमुख स्रोत हैं। साइंस जर्नल में जून 2023 को प्रकाशित एंटोनिया एम वरेला परेज के अध्ययन “द इंक्रीजिंग इफेक्ट ऑफ लाइट पॉल्यूशन ऑन प्रोफेशनल एंड अमेचर एस्ट्रोनॉमी” के अनुसार, दुनिया की 83 प्रतिशत आबादी प्रकाश प्रदूषित आसमान के नीचे रहती है और 23 प्रतिशत सतह इससे प्रदूषित है। यह प्रदूषण प्रतिवर्ष 2 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है, यानी लगभग 35 वर्षों में दोगुना हो जाएगा। 2050 तक दुनिया की आबादी 9.6 बिलियन होने का अनुमान है। इसमें से 68 प्रतिशत आबादी शहरांे में होगी। वर्तमान में 733 मिलियन लोगों के पास बिजली की आपूर्ति नहीं है और अन्य 2.4 बिलियन लोगों के पास खाना पकाने के साफ ईंधन और तकनीक तक पहुंच नहीं है। अध्ययन के मुताबिक, वर्तमान प्रकाश व्यवस्था जारी रहती है तो जनसंख्या वृद्धि और आर्थिक विकास के संयोजन से प्रकाश प्रदूषण के स्तर में तेजी से वृद्धि होगी।

रात में कृत्रिम प्रकाश का बढ़ता स्तर दृश्यमान तारों को ओझल कर रहा है। इसके चलते 60 प्रतिशत यूरोपीय और 80 प्रतिशत अमेरिकी कभी आकाशगंगा नहीं देख पाए हैं। भारत के शहरी और उप शहरी क्षेत्रों के साथ अब ग्रामीण इलाकों में भी कृत्रिम प्रकाश, खासकर एलईडी के फलस्वरूप तारों को देखने की क्षमता प्रभावित हो रही है। यही कारण है कि प्रकाश प्रदूषित क्षेत्रों में खगोलविद काम नहीं कर पा रहे हैं और एस्ट्रो पर्यटन के लिए शहरों से दूर बनी वेधशालाओं (ऑब्जरवेट्री) में उन्हें जाना पड़ रहा है। बेंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स की ऐसी ही वेधशाला लद्दाख के हेनले गांव में है। यह गांव भारत के पहले डार्क स्काई रिजर्व के तौर पर भी जाना जाता है। यहां कार्यरत इंजीनियर डाेरजे आंगचुक के लिए प्रकाश प्रदूषण की मौजूदा स्थिति “अंधकार युग” में जाने जैसी है। वह बताते हैं, भारत के कच्छ, हिमाचल और लद्दाख जैसे कुछ क्षेत्र से ही हम साफ आकाश अनुभव कर पाते हैं।

कोलकाता स्थित भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान के डिपार्टमेंट ऑफ फिजिकल साइंसेस एंड सेंटर ऑफ एक्सीलेंस इन स्पेस साइंसेस में प्रोफेसर व इंडियन एस्ट्रोनोमिकल यूनियन के सदस्य दिब्येंदू नंदी मानते हैं कि हम जो प्रकाश इस्तेमाल करते हैं, उसका डिजाइन ठीक नहीं है। यह खराब डिजाइन की प्रकाश प्रदूषण के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है। देखा जाए तो यह ऊर्जा की बर्बादी भी है।

स्रोत: नेचर जर्नल में जून 2023 में प्रकाशित अनिक्का के जगरब्रांड और कैमियल स्पोइलस्ट्रा का अध्ययन “इफेक्ट ऑफ एंथ्रोपोसीन लाइट ऑन स्पीसीज एंड ईकोसिस्टम्स”
स्रोत: नेचर जर्नल में जून 2023 में प्रकाशित अनिक्का के जगरब्रांड और कैमियल स्पोइलस्ट्रा का अध्ययन “इफेक्ट ऑफ एंथ्रोपोसीन लाइट ऑन स्पीसीज एंड ईकोसिस्टम्स”

भारत की स्थिति

भारत में इस प्रदूषण के क्या ट्रेंड हैं, इसकी झलक भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर द्वारा नवंबर 2022 में प्रकाशित रिपोर्ट “डिकेडल चेंज ऑफ नाइट टाइम लाइट (एनटीएल) ओवर इंडिया फ्रॉम स्पेस (2012-21)” से मिलती है। रिपोर्ट के अनुसार, एक दशक में रात का प्रकाश कुल 43 प्रतिशत बढ़ा है। बिहार में रातें 570 प्रतिशत, मणिपुर में 475 प्रतिशत, लद्दाख में 400 प्रतिशत और केरल में 100 प्रतिशत अधिक उजली हुई हैं। देश के चार राज्यों में अच्छी और 23 राज्य व केंद्र शािसत प्रदेशों में मध्यम रोशनी बढ़ी है। इसरो के अनुसार, केवल 2020 (कोविड काल) को छोड़कर सभी वर्षों में रात के समय कृत्रिम प्रकाश में वृद्धि हुई है (देखें “दायरे का विस्तार”, पेज 30)। इस बढ़े हुए प्रकाश ने भारत सहित दुनियाभर के देशों पर कानून बनाने बनाकर इसे नियंत्रित करने का दबाव बना दिया है।

ऑस्ट्रेलिया मोनाश यूनिवर्सिटी के टर्नर इंस्टीट्यूट फॉर ब्रेन एंड मेंटल हेल्थ में मनोविज्ञान के प्रोफेसर एवं सर्केडियन रिदम के विशेषज्ञ शांताकुमार विल्सन राजारत्नम कहते हैं कि प्रदूषण के अन्य पहलुओं या पर्यावरण में अन्य प्रदूषकों को मनुष्यों की सुरक्षा के लिए विनियमित किया जाता है, लेकिन रोशनी से होने वाले प्रदूषण के बारे में बात नहीं की जाती है।

भारतीय शहरों में हम प्रतिदिन अत्यधिक चमक को महसूस कर सकते हैं लेकिन हैरानी की बात यह है कि अधिकांश लोग इसे पर्यावरणीय समस्या के तौर पर नहीं देखते। और न ही प्रकाश प्रदूषण शब्दावली से परिचित हैं। इस तथ्य की पुष्टि मई 2022 में जर्नल ऑफ अर्बन मैनेजमेंट में प्रकाशित अध्ययन “स्टडिंग लाइट पॉल्यूशन एज ए इमर्जिंग एनवायरमेंट कन्सर्न इन इंडिया” अध्ययन भी करता है। अध्ययन में दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलत राम कॉलेज में प्रोफेसर आरिफ अहमद (वर्तमान में जामिया मिल्लिया इस्मालिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर) ने अलग-अलग उम्र के 358 लोगों के बीच किए गए सर्वेक्षण में पाया कि 57.5 प्रतिशत लोगों ने अपने दैनिक जीवन में प्रकाश प्रदूषण शब्द ही नहीं सुना। एक अन्य सवाल में जब पूछा गया कि क्या आपको लगता है कि लोग इसके संभावित खतरों से परिचित हैं तो 47.80 फीसदी लोगों ने न में उत्तर में दिया। लेकिन जब उनसे पूछा गया कि क्या अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश जाने-अनजाने आपको किसी तरह प्रभावित कर रहा है तो 76 प्रतिशत लोगों का जवाब हां था। कहने का अर्थ है कि लोग भले ही प्रकाश प्रदूषण शब्दावली से परिचित न हों लेकिन उसके दुष्प्रभावों को जरूर महसूस कर रहे हैं।

पिछले दो दशकों में वातावरण में कृत्रिम प्रकाश को पहुंचाने मंे लाइट एमिटिंग डायोड (एलईडी) की अहम भूिमका रही है। परेज के अध्ययन के मुताबिक, 2010 के दशक के दौरान कई आउटडोर लाइट्स को एलईडी द्वारा बदल दिया गया। 2011 में नई तकनीक की एलईडी की वैश्विक हिस्सेदारी 1 प्रतिशत से बढ़कर 2019 में 47 प्रतिशत तक हो गई। अध्ययन में उन्होंने पाया है कि 2017 और 2022 के बीच एलईडी की बिक्री में 18 प्रतिशत से अधिक की वार्षिक वृद्धि दर थी और 2022 और 2027 के बीच 15 प्रतिशत रहने का अनुमान है। उनके मुताबिक, बहुत सी एलईडी लाइटें रात के काले आकाश को संरक्षित करने के लिए अनुकूल नहीं हैं क्योंकि इनमें अनुपयुक्त रंग तापमान होता है जो बड़ी मात्रा में नीली रोशनी का उत्सर्जन करता है। यह रोशनी आकाश में बिखरकर प्रकाश प्रदूषण का कारण बनती है। दुनियाभर में इसके तेजी से फैलने की वजह इसकी ऊर्जा दक्षता है।

*चमक मापने की इकाई जिसे एक वर्ग किलोमीटर में नैनो वॉट प्रति वर्ग सेंटीमीटर प्रति स्ट्रेडियन के रूप में प्रदर्शित किया गया है स्रोत: भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर द्वारा नवंबर 2022 में प्रकाशित “डिकेडल चेंज ऑफ नाइट टाइम लाइट (एनटीएल) ओवर इंडिया फ्रॉम स्पेस (2012-21)” रिपोर्ट
*चमक मापने की इकाई जिसे एक वर्ग किलोमीटर में नैनो वॉट प्रति वर्ग सेंटीमीटर प्रति स्ट्रेडियन के रूप में प्रदर्शित किया गया है स्रोत: भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर द्वारा नवंबर 2022 में प्रकाशित “डिकेडल चेंज ऑफ नाइट टाइम लाइट (एनटीएल) ओवर इंडिया फ्रॉम स्पेस (2012-21)” रिपोर्ट

प्राकृतिक व्यवस्था में परिवर्तन का प्रभाव

मौजूदा मंे समय प्रकाश प्रदूषण पारिस्थितिक तंत्र को इस हद तक प्रभावित कर रहा है कि सदियों से चली आ रही प्रकाश और अंधेरे की प्राकृतिक व्यवस्था बिगड़ने लगी है। इस प्राकृितक व्यवस्था में विकसित हुए असंख्य जीव बदली परिस्थितियों में खुद को समायोजित करने में सक्षम नहीं हैं। शांताकुमार विल्सन राजारत्नम के अनुसार, “जीवों के रूप में हम सूरज की रोशनी और अंधेरे के चक्र के साथ जुड़े रहने के हिसाब से विकसित हुए हैं। हमारे विकास के क्रम में एक समय में हम शाम को सोने की तैयारी करते थे और भोर में जाग जाते थे। यह तब था, जब हमारा तालमेल सूरज की रोशनी और अंधेरे के चक्र के साथ बना हुआ था। अब कृत्रिम रोशनी के कारण हममें से ज्यादातर लोगों के लिए रात, आधी रात के बाद शुरू होती है। शाम के समय कृत्रिम प्रकाश के संपर्क में आने से कई तरह के प्रभाव पड़ते हैं।”

पशु-पक्षियों, पौधों और कीट-पतंगों के दैनिक व्यवहार, उनकी क्रियाओं और शरीर विज्ञान पर इसका खास असर है।

नेचर जर्नल में अगस्त 2017 में प्रकाशित “आर्टिफिशियल लाइट एट नाइट एज ए न्यू थ्रेट टु पॉलिनेशन” अध्ययन में पाया गया है कि रात में कृत्रिम प्रकाश रात्रिकालीन परागण कीटों को बाधित करता है और पौधों की उत्पादन क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। अध्ययन के मुताबिक, कृत्रिम रूप से प्रकाशित पौधों पर परागण कीटों के रात्रिकालीन दौरे अंधेरे क्षेत्रों के मुकाबले 62 प्रतिशत कम हो जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप पौधों की उत्पादकता में 13 प्रतिशत की कमी आई। यह कमी दिन में परागण कीटों के कई दौराें के बावजूद दर्ज की गई।

डार्क स्काई एडवाइजरी ग्रुप के अध्यक्ष व वर्ल्ड एट नाइट रिपोर्ट के लेखकों में शामिल डेविड वेल्च अपने अनुभवों के आधार पर डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि दक्षिण पश्चिम संयुक्त राज्य अमेरिका में कार्नेगी गिगेंटिया नाम का सगुआरो कैक्टस परागण और प्रजनन के लिए अंधेरी रात पर निर्भर है। इसके फूल केवल 24 घंटों के लिए खिलते हैं। ये रात में खुलते हैं और अगले दिन पूरे दिन खुले रहते हैं। परागण के लिए इस सीमित समय में यह सगुआरो प्रभावी ढंग से प्रजनन के लिए शाम को चमगादड़ और दिन के दौरान मधुमक्खियों, पक्षियों और अन्य परागणकों पर आश्रित है। रात के समय किसी भी तरह की कृत्रिम रोशनी इस सहजीवन को खतरे में डाल देती है (देखें, “रात के कृत्रिम प्रकाश में रहने के लिए धरती पर कोई जीवन विकसित नहीं हुआ”,)।

इस तथ्य के प्रमाण हैं कि हर साल लाखों प्रवासी पक्षी प्रकाश प्रदूषण के चलते मारे जा रहे हैं। अक्सर रात में उड़ने वाले बत्तख, गीज, सैंडपाइपर, सॉन्गबर्ड के अलावा सीबर्ड, जैसे पक्षियों पर इसका गंभीर खतरा है। कन्वेंशन ऑन द कंजरवेशन ऑफ माइग्रेटरी स्पीसीज ऑफ वाइल्ड एनिमल (सीएमएस) की कार्यकारी सचिव एमी फ्रेंकल के अनुसार, प्रकाश प्रदूषण के कारण पक्षियों का प्रवास का समय और अन्य मौसमी व्यवहार भी प्रभावित हो सकता है क्योंकि यह बायोलॉजिकल क्लॉक (जैविक घड़ी) को बाधित करता है (देखें, “कृत्रिम बनाम प्राकृतिक प्रकाश”,)।

नेचर जर्नल में जून 2023 में प्रकाशित अनिक्का के जगरब्रांड और कैमियल स्पोइलस्ट्रा का अध्ययन “इफेक्ट ऑफ एंथ्रोपोसीन लाइट ऑन स्पीसीज एंड ईकोसिस्टम्स” में पाया गया है कि पक्षियों पर मानवजनित प्रकाश के सबसे स्थापित प्रभावों में से एक प्रवास के दौरान उनकी प्रतिक्रिया है। रात में प्रवास करने वाले कई पक्षी प्रकाश की ओर आकर्षित होते हैं और इससे विचलित हो जाते हैं। यह विशेष रूप से तेज प्रकाश वाले क्षेत्रों में अधिक होता है। प्रकाश के प्रति यह आकर्षण न केवल उन्हें इमारतों, लाइटहाउस और जहाजों से टकराने का कारण बन सकता है, बल्कि उन्हें उपयुक्त रुकने वाले स्थानों से भी भटका सकता है। अध्ययन के अनुसार, प्रकाश पक्षियों में तनाव और नींद में खलल का कारण बन सकता है।

ऑनिथोलॉजिकल एप्लीकेशंस में फरवरी 2014 में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन “बर्ड बिल्डिंग कॉलीजन इन द यूनाइटेड स्टेट्स : एस्टीमेट ऑफ एनुअल मॉर्टेलिटी एंड स्पीसीज वल्नरबिलिटी” में अनुमान लगाया गया है कि अमेरिका में इमारतों से टकराकर हर साल 10 से 100 करोड़ पक्षियों की मृत्यु हो जाती है।

जनवरी 2024 में सात अंतरराष्ट्रीय संस्थानों- वर्ल्ड कमीशन ऑन प्रोटेक्टेड एरियाज (डब्ल्यूसीपीए), अर्बन कंजरवेशन स्ट्रेटजीज स्पेशल ग्रुप, डार्क स्काई एडवाइजरी ग्रुप, डार्क स्काई, इंटर एनवायरमेंट इंस्टीट्यूट, रॉयल एस्ट्रोनोमिकल सोसायटी ऑफ कनाडा और यूनाइटेड स्टेट्स नेशनल पार्क सर्विस, नेचुरल साउंड एंड नाइट स्काई डिवीजन द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित रिपोर्ट “वर्ल्ड एट नाइट” प्रकाश प्रदूषण का पक्षियों पर गंभीर प्रभाव मानते हुए कहती है कि इससे विशेष रूप से कीट-पतंगों पर निर्भर पक्षियों की भोजन की आदतें प्रभावित हो सकती हैं।

अनिक्का के जगरब्रांड और कैमियल स्पोइलस्ट्रा के अध्ययन के अनुसार, चमगादड़ों की बहुत-सी प्रजातियां रात्रिचर होती हैं और रोशनी में तीव्रता से प्रतिक्रिया करती हैं। चमगादड़ भोजन की तलाश और आवागमन के लिए जंगल के किनारों, कतारबद्ध झाड़ियों और धाराओं का उपयोग करते हैं। इन मार्गों पर प्रकाश उनके लिए अवरोधक का कार्य कर सकता है। चमगादड़ के निवास स्थलों में या उसके आसपास मानवजनित प्रकाश के कारण उनके जागने में देरी हो सकती है अथवा वे अपना निवास छोड़ सकते हैं जिससे उनकी आबादी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अध्ययन के अनुसार, प्रकाश के प्रभाव से कई स्तनधारियों की दैनिक और मौसमी क्रियाएं, शारीरिक बनावट और प्रजनन बाधित हो सकता है।

अनिक्का व कैमियल ने अपने अध्ययन में यह भी पाया है कि कीटों का मानवजनित प्रकाश के प्रति आकर्षण दुनियाभर में उनकी मृत्यु और खात्मे का कारण बन रहा है। बायोल्यूमिनसेंट सिग्नलिंग पर निर्भर जुगनू जैसे कीट विशेष रूप से मानवजनित प्रकाश के प्रति संवेदनशील होते हैं। इससे उनका प्रजनन सीधे तौर पर प्रभावित होता है। जलीय कीटों और गुबरैला जैसे कीटों की प्रकाश संकेतों का उपयोग करके आगे बढ़ने की क्षमता भी प्रकाश की उपस्थिति में बाधित होती है।

गैर लाभकारी संगठन डार्क स्काई इंटरनेशनल द्वारा हालिया प्रकाशित रिपोर्ट “आर्टिफिशियल लाइट एट नाइट : स्टेट ऑफ साइंस 2024” के अनुसार, पारिस्थितिकीविदों ने विभिन्न प्रजातियों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका का अध्ययन किया है जिसे अब “पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं” कहा जाता है। ये वो लाभ हैं जो मनुष्य को प्राकृतिक पर्यावरण से प्राप्त होते हैं। मानव कल्याण के लिए महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र सेवा का एक उदाहरण कीटों द्वारा खाद्य फसलों का परागण है। इनमें से कई कीट केवल रात में ही सक्रिय होते हैं। कुछ प्रजातियां केवल मंद, प्राकृतिक प्रकाश की स्थितियों में ही परागण करती हैं। रात्रि के कृत्रिम प्रकाश में परागण कीटों की जनसंख्या में गिरावट को देखते हुए कुछ लोगों ने इसे “कीटों का काल” कहा है।

डार्क स्काई इंटरनेशनल की “आर्टिफिशियल लाइट एट नाइट : स्टेट ऑफ साइंस 2024” रिपोर्ट के अनुसार, वैज्ञानिकों ने कम से कम 160 प्रजातियों पर रात्रि के कृत्रिम प्रकाश के संपर्क के कारण पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया है। उन्होंने पौधों और जानवरों के व्यक्तिगत से लेकर पूरी आबादी तक के स्तरों पर नुकसान देखा है। रिपोर्ट के अनुसार, “कृत्रिम प्रकाश के संपर्क में आने से कुछ जीवों की प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर हो जाती है और इससे वे पर्यावरण संबंधी तनाव के प्रति कम सहनशील हो सकते हैं। माता-पिता अपनी संतानों को कृत्रिम प्रकाश से उपजी कमजोरी दे सकते हैं।”

स्रोत: भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर द्वारा नवंबर 2022 में प्रकाशित “डिकेडल चेंज ऑफ नाइट टाइम लाइट (एनटीएल) ओवर इंडिया फ्रॉम स्पेस (2012-21)” रिपोर्ट
स्रोत: भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर द्वारा नवंबर 2022 में प्रकाशित “डिकेडल चेंज ऑफ नाइट टाइम लाइट (एनटीएल) ओवर इंडिया फ्रॉम स्पेस (2012-21)” रिपोर्ट

मानव स्वास्थ्य को नुकसान

कृत्रिम प्रकाश के दुष्प्रभाव वन्यजीव तक ही सीमित नहीं है। यह मानव सेहत पर भी बेहद बुरा असर डालता है। जून 2023 में साइंस जर्नल में प्रकाशित केएम जीलिंस्का डबकोवस्का, ईएस शेमरहेमर, जेपी हेनिफिन व जीसी ब्रेनार्ड ने अपने संयुक्त अध्ययन “रिड्यूसिंग नाइटटाइम लाइट एक्पोजर इन अर्बन एनवायरमेंट टु बेनिफिट ह्यूमन हेल्थ एंड सोसायटी” में पाया है कि शाम और रात के समय बहुत अधिक प्रकाश के संपर्क में आने से सर्कैडियन फिजियोलॉजी, मेलाटोनिन स्राव और नींद बाधित हो सकती है और दृश्य प्रणाली पर दबाव पड़ सकता है। अध्ययन में पाया गया है कि पिछले 12 वर्षों में रात की कृत्रिम रोशनी करीब 10 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ी है। अधिक आबादी का शहरों में बसने का अर्थ है अधिकांश इंसानों का रात के चमकीले प्रकाश में आ जाना। मानव ने अपने व्यवहार से दिन लंबे और रातें छोटी कर ली हैं। हम रात के समय घर में सोने से पहले की रोशनी, कंप्यूटर, मोबाइल फोन और टेलीविजन स्क्रीन से आने वाली रोशनी के साथ-साथ स्ट्रीट लाइट, सुरक्षा लाइटिंग, बाहरी इमारतों और चमकीले रोशनी वाले विज्ञापनों से घर में प्रवेश करने वाली रोशनी के संपर्क में आते हैं। अध्ययन के मुताबिक, कृत्रिम प्रकाश से रात में काम करने वाले कामगार न केवल कैंसर की जद में आ सकते हैं बल्कि हृदय की बीमारियों, टाइप 2 मधुमेह, हाइपरटेंशन, मोटापा, अवसाद व अन्य बीमारियों की चपेट में आ सकते हैं। इतना ही नहीं, घर के बाहर नीले स्पेक्ट्रम वाले कृत्रिम प्रकाश के संपर्क को स्तन, प्रोस्ट्रेट और कोलोन कैंसर से भी जोड़ा गया है।

लैंसेट में 4 जून 2024 को प्रकाशित अध्ययन “पर्सनल लाइट एक्पोजर पैटर्न एंड इंसीडेंट्स ऑफ टाइप 2 डायबिटीज : एनेलिसिस ऑफ 13 मिलियन आवर्स ऑफ लाइट सेंटर डाटा एंड 6,70,000 पर्सन ईयर्स ऑफ प्रॉस्पेक्टिव ऑब्जरवेशन” में ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न स्थित मोनाश यूनिवर्सिटी के टर्नर इंस्टीट्यूट फॉर ब्रेन एंड मेंटल हेल्थ के रिसर्च डेनियल पी विंड्रेड व अन्य आठ शोधकर्ताओं ने प्रकाश प्रदूषण का टाइप 2 डायबिटीज से सीधा संबंध स्थापित किया है। नींद प्रकाश के संपर्क, सर्कैडियन व्यवधान और मधुमेह के जोखिम के बीच संबंधों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

मोनाश यूनिवर्सिटी के टर्नर इंस्टीट्यूट फॉर ब्रेन एंड मेंटल हेल्थ में मनोविज्ञान के प्रोफेसर एवं सर्केडियम रिदम के विशेषज्ञ शांताकुमार डाउन टू अर्थ से इस विषय पर लंबी बातचीत के दौरान बताते हैं, “यह हमारे सर्कैडियन रिदम में देरी करता है। इसका दूसरा प्रभाव यह हो सकता है कि यह हार्मोन मेलाटोनिन के स्राव को दबा देता है। हार्मोन मेलाटोनिन के कई महत्वपूर्ण शारीरिक कार्य होते हैं, जिनमें से एक हमारी नींद को विनियमित करने में मदद करना है। मेलाटोनिन सर्कैडियन रिदम के अनुसार स्रावित होता है, लेकिन अगर हम खुद को प्रकाश में रखते हैं तो इसका स्राव बहुत कम हो जाता है। अगर हम मेलाटोनिन स्राव को दबाते हैं, तो हम अपनी नींद पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं (देखें, “स्वास्थ्य नीतियों में कृत्रिम प्रकाश के बढ़ते दायरे पर विचार करना चाहिए”)।

प्रकाश प्रदूषण को स्वास्थ्य और पारिस्थितिक प्रभावों अलावा जलवायु परिवर्तन के प्रेरक घटक के रूप में भी देखा जा रहा है। परेज के अध्ययन के अनुसार, अकेले शहरों में बाहरी प्रकाश व्यवस्था वैश्विक बिजली का 19 प्रतिशत उपभोग करती है जिसके 2040 तक 27 प्रतिशत तक पहुंचने का अनुमान है। एक सामान्य शहर के ऊर्जा बिल में 30 से 50 प्रतिशत योगदान आउडोर लाइटिंग का होता है। इस बिजली उत्पादन में ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन होता है। उनका आकलन है कि वैश्विक प्रकाश व्यवस्था प्रति वर्ष 1,471 मिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर उत्सर्जन करती है, जो चीन में कुल उत्सर्जन का 18 प्रतिशत या अमेरिका में 27 प्रतिशत के बराबर है।

सांस्कृतिक क्षय

साफ आसमान और तारों भरी रात सदियों से हमारी सांस्कृतिक विरासत की प्रतीक रही है। अनेकों किस्सों, कहानियों, गीतों और लोकोक्तियां की रचना तारों के इर्द-गिर्द हुई है। बचपन में हम छत पर लेटकर टिमटिमाते तारों को देखते हुए सोए हैं। इन्हीं टिमटिमाते तारों ने जेन टेलर को करीब 200 साल पहले “ट्विंकल-ट्विंकल लिटिल स्टार…” लोरी लिखने की प्रेरणा दी थी जो लगभग हर बच्चे को जुबानी याद है। प्रकाश प्रदूषण की वजह से इन तारों का ओझल होना इस सांस्कृतिक विरासत की पतन भी है। जर्नल ऑफ डार्क स्काई स्टडीज में प्रकाशित अपने अध्ययन “वाइटनिंग द स्काई : लाइट पॉल्यूशन एज ए फॉर्म ऑफ कल्चरल जेनोसाइड” में डुएन डब्ल्यू हेमेचर, क्रिस्टल डे नेपोली और बोन मॉट मानते हैं, “दुनियाभर में बहुत सी स्वदेशी परंपराएं और ज्ञान प्रणालियां तारों पर आधारित है। रात के आकाश का खत्म होना, तारों से स्वदेशी लोगों के संबंध को तोड़ने के समान है। यह सांस्कृतिक और पारिस्थितिक जनसंहार जैसा है।” अध्ययन के अनुसार, दुनियाभर की संस्कृतियों ने आकाश के साथ दार्शनिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक नजरिए से एक नजदीकी संबंध बनाया है। जटिल ज्ञान प्रणालियों को संरक्षित करने के लिए तारों का उपयोग किया जाता है। ये ज्ञान प्रणालियां नौपरिवहन, खाद्य अर्थव्यवस्था, मौसम का पूर्वानुमान, मौसम में परिवर्तन की भविष्यवाणी और स्मृति में जानकारी को संग्रहीत करने और लंबे समय तक इसे लगातार पीढ़ियों तक पहुंचाने में मददगार रही हैं। ऑस्ट्रेलिया के टॉरेस स्ट्रेट द्वीप में रहने वाले एवं एबोरिजिनल आदिवासियों के लिए तारे इतिहास, कानून, नैतिकता और नैतिक मूल्यों को संप्रेषित करते हैं।

ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों के लिए आकाशगंगा में उभरने वाली एमू पक्षी की आकृतियां बहुत मायने रखती है। एमू की बदलती आकृतियां एबोरिजिनल आदिवासियों को पक्षी के व्यवहार, बदलते मौसम, नौवहन मार्ग और सामाजिक प्रथाओं का संकेत देती हैं। उदाहरण के लिए जब अप्रैल-मई में एमू आकाश में अपनी पहली पूर्ण उपस्थिति (जहां सिर से लेकर शरीर तक क्षितिज के ऊपर देखा जा सकता है) पर पहुंचता है, तो इसे एमू का प्रजनन का मौसम कहा जाता है। इस मौसम में अंडे दिए जाते हैं। यह आदिवासियों के लिए भोजन के स्रोत के रूप में अंडे इकट्ठा करने का संकेत होता है। भारत की गौंड आदिवासियों की भी तारों से जुड़ी परंपराएं हैं। शादी के बाद नव विवाहित जोड़े को आकाश में एक दूसरे से बेहद नजदीक जोड़ा तारों को खोजना होता है। प्रकाश प्रदूषण से तारों को खोजने में कठिनाई के कारण उनकी यह परंपरा खतरे में पड़ गई है।

क्रिस्टोफर सीएम कायबा की रिपोर्ट “सिटिजन साइंटिस्ट्स रिपोर्ट ग्लोबल रेपिड रिडक्शन इन द विजिबिलिटी ऑफ स्टार फ्रॉम 2011 टु 2022” में भी इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि प्रकाश प्रदूषण के कारण खुली आंखों से तारों की देखने की क्षमता पर बुरा असर पड़ा है। रिपोर्ट में 51,351 वैज्ञानिकों के अवलोकनों को परखा गया। रिपोर्ट के अनुसार, आसमान में 9.6 प्रतिशत की वार्षिक दर से चमक बढ़ रही है। एक स्थान से जहां 250 तारे दिखाई देते थे, उसी स्थान पर 18 वर्ष की अवधि के बाद केवल 100 तारे ही दिखाई दे रहे थे। अध्ययन के अनुसार, 2011 से 2022 के बीच रात के आकाश में दिखने वाले तारों की संख्या हर साल 7 से 10 प्रतिशत कम हो रही है।

प्रकाश एक, दुष्प्रभाव अनेक

अलग-अलग प्रकाश व्यवस्थाएं जीव-जंतुओं पर अलग-अलग प्रभाव छोड़ती हैं

स्रोत: नेचर जर्नल में जून 2023 में प्रकाशित अनिक्का के जगरब्रांड और कैमियल स्पोइलस्ट्रा का अध्ययन “इफेक्ट ऑफ एंथ्रोपोसीन लाइट ऑन स्पीसीज एंड ईकोसिस्टम्स”

समाधान की पहल

आर्थिक विकास और शहरीकरण के मौजूदा दौर में महानगरों या बड़े शहरों से प्रकाश प्रदूषण को पूरी तरह खत्म करना मुश्किल है लेकिन इसे काफी हद तक कम जरूर किया जा सकता है। इसके लिए सबसे जरूरी है कि प्रकाश का अनावश्यक और अवांछित उपयोग बंद हो। इसके दुष्प्रभावों से बचने के लिए बहुत से देशों जैसे चेक रिपब्लिक, फ्रांस, जर्मनी, दक्षिण कोरिया और स्लोवेनिया ने कानूनी कदम और नीतिगत उपाय शुरू कर दिए हैं।

यूरोपियन एनवायरमेंट एजेंसी की रिपोर्ट” रिव्यू ऑफ असेसमेंट ऑफ एवेलेबल इन्फॉर्मेशन ऑन लाइट पॉल्यूशन इन यूरोप” के अनुसार, चेक रिपब्लिक सबसे पहले 2002 में प्रकाश प्रदूषण के खिलाफ राष्ट्रीय नीति लेकर आया। इस देश में प्रकाश की अधिकतम सीमा निर्धारित है। यहां नगर पालिकाओं के लिए स्ट्रीट लाइट को ढंकना अनिवार्य है ताकि उसका प्रकाश वांछित स्थान पर ही गिरे। चेक रिपब्लिक ने 2021 में लाइटिंग मैनुअल प्रकाशित किए हैं और बाहरी लाइटिंग के मानक निर्धारित किए जा रहे हैं। क्रोएशिया में भी ऊर्जा उपभोग को सीमित करने के लिए प्रकाश प्रदूषण के खिलाफ कानून है। 2008 में यहां पहली कानूनी पहल हुई लेकिन वह नाकाफी साबित हुआ तो जनवरी 2019 को कानून बदल दिया गया।

वर्ल्ड एट नाइट रिपोर्ट के अनुसार, कुछ देशों में कानून बाध्यकारी हैं तो कुछ में सलाहकार की भूमिका तक ही सीमित हैं। उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड जैसे देशों में बाहरी प्रकाश व्यवस्था से संबंधित गैर-बाध्यकारी मार्गदर्शन हैं। कुछ क्षेत्रों में प्रचलित मानक पर्याप्त नहीं है और मात्र सड़क प्रकाश व्यवस्था पर लागू हैं।

यूरोपियन एनवायरमेंट एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2007 में बेहद सक्रिय खगोलज्ञों की मांग पर स्लोवेनिया में प्रकाश प्रदूषण रोकने के लिए दुनिया का पहला कानून बनाया। कानून में प्रकाश की सीमा, लाइट इंस्टॉलेशन पर तकनीकी प्रतिबंध और दंड के साथ निरीक्षण के प्रावधान हैं। यहां की नीतियां सामान्य आबादी के लिए प्रकाश उत्सर्जन को विनियमित करती हैं। स्मारकों, चर्चों, हवाई अड्डों, बंदरगाहों, रेलवे स्टेशनों या फ्रीवे जैसे सार्वजनिक स्थान के साथ ही निजी कार्यालय और भवनों में प्रकाश उत्सर्जन को विनियमित किया जाता है। उदाहरण के लिए इस देश की नगरपालिकाएं प्रकाश व्यवस्था के लिए प्रति वर्ष प्रति निवासी अधिकतम 44.5 किलोवाट घंटे ही खर्च कर सकती हैं।

वर्ल्ड एट नाइट रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में आउटडोर लाइटिंग नीतियों में कई खामियां हैं, जिनमें सबसे प्रमुख है उनका लगातार क्रियान्वयन न होना। इसे ध्यान में रखते हुए नीतियों को इस तरह से बनाया सकता है कि उन्हें आसानी से लागू किया जा सके। इस दृष्टिकोण की अंतिम सफलता व्यापक सार्वजनिक समर्थन पर निर्भर करती है।

कानूनी दखल के अलावा दुनिया के कई हिस्सों में स्वैच्छिक उपायों से प्रकाश प्रदूषण को काफी हद तक कम करने में कामयाबी मिली है। वेल्च ने दुनियाभर में प्रकाश प्रदूषण की रोकथाम को लेकर हो रही इस पहल के बारे में डाउन टू अर्थ को बताया कि फरवरी 2024 तक 34 देशों में 324 प्रमाणित डार्क स्काई प्लेस हैं। भारत के पेंच टाइगर रिजर्व को इसी साल जनवरी में देश के पहले और एशिया के पांचवे डार्क स्काई पार्क का दर्जा हासिल हुआ है। इस पहल के तहत पार्क में स्थित चार गांवों- वाघोली, सिलारी, पिपरिया और खापा में प्रकाश प्रदूषण की वजह बनने वाली 100 से अधिक स्ट्रीट लाइटों को पूरी तरह बदल दिया गया है और ऐसी शील्डेड लाइटें लगाईं गईं हैं जिनकी दिशा जमीन की तरफ है। भारत में डार्क स्काई इंटरनेशनल के प्रतिनिधि व डार्क स्काई एक्टिविस्ट अभिषेक पावसे डाउन टू अर्थ को इस पहल के बारे में बताते हैं कि हमने अप्रैल 2021 में सरकार के साथ मिलकर इस प्रोजेक्ट पर काम किया था। प्रकाश प्रबंधन के चलते अब इस क्षेत्र में 60 से 70 प्रतिशत प्रकाश प्रदूषण कम हो गया है।

स्वीडन और नीदरलैंड्स जैसे यूरोपीय देश पक्षियों, खासकर चमगादड़ों पर प्रकाश प्रदूषण के हानिकारक प्रभाव को कम करने के लिए आउटडोर लाइटिंग में लाल रंग को अहमियत दे रहे हैं। नीदरलैंड्स का एक शहर ज्यूडोक न्यूकूप तो स्ट्रीट लाइटों को लाल रंग में तब्दील करने वाला दुनिया का पहला शहर बन गया है। सेज जर्नल के लाइटिंग रिसर्च एंड टेक्नॉलजी में जनवरी 2024 में प्रकाशित डी डर्मस, एके जगरब्रांड व एमएन टेंजेलिन के शोधपत्र में माना गया है कि लंबी वेवलेंथ वाली लाल रोशनी अन्य रोशनी की तुलना में वायुमंडल में कम बिखरती है, जिससे स्काईग्लो और ग्लेयर की स्थिति नहीं बनती। यूरोप में प्रकाश प्रदूषण के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों में आउटडोर लाइटिंग में लाल रंग का चलन बढ़ रहा है जिससे रात के पर्यावरण व रात्रिचर जीवों की रक्षा की जा सके। अध्ययन के अनुसार, लाल रोशनी नींद को नियंत्रित करने वाले हार्मोन मेलाटोनिन को कम से कम दबाती है।

डार्क स्काई इंटरनेशनल ने समझदारी युक्त लाइटिंग के लिए पांच सिद्धांत बनाए हैं। आईडीए कहता है कि समझदारी लाइटिंग वह है जो उपयोगी, लक्षित, कम चमकीली, नियंत्रित और वार्म हो। अभिषेक के अनुसार, आमतौर पर स्ट्रीट लाइटों की करीब 60 प्रतिशत रोशनी ही जमीन पर गिरती और बाकी 40 प्रतिशत बर्बाद होती है। 90 डिग्री से अधिक ऊपर जाने वाली रोशनी आकाश में जाकर प्रकाश प्रदूषण का कारण बनती है। लाइट पर शील्ड लगाकर उसे कवर करने से वह ऊपर की ओर नहीं जाती। इसका एक फायदा यह होता है कि जितने क्षेत्र पर प्रकाश की जरूरत होती है, उतने में ही गिरती है। इससे रात्रिचर जीवों को भी फायदा मिलता है। वह बताते हैं कि हम जरूरत से ज्यादा रोशनी के आदी हो गए हैं। अगर हम इसका समझदारी के साथ उपयोग करेंगे तो 40 प्रतिशत रोशनी में ही हमारा काम हो जाएगा।

शांताकुमार मौजूदा स्थिति के लिए हमारी विकास की भूख को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं, “पिछली शताब्दी या उससे भी ज्यादा समय से हम आर्थिक प्रगति के पीछे भाग रहे हैं। 24 घंटे के समाज को बनाकर अब हमें एहसास हो गया है कि इन प्राचीन संस्कृतियों में इस बात का गहरा ज्ञान था कि हम आसपास के पर्यावरण के साथ कैसे ज्यादा स्वस्थ रखकर उत्पादक तरीके से रह सकते हैं।” वह आगे कहते हैं, “मैं समझता हूं कि अब समय आ गया है कि प्राचीन संस्कृतियों, परंपराओं और प्रथाओं में छिपे ज्ञान की ओर देखा जाए। वहीं से हमें अनेक पर्यावरणीय चुनौतियों के हल मिलेंगे।”

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )
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