दयानिधि
ब्रिस्टल विश्वविद्यालय की अगुवाई में किए गए एक अध्ययन ने इस बात पर नई रोशनी डाली है कि आर्सेनिक को मनुष्यों के लिए कम खतरनाक कैसे बनाया जा सकता है, जिससे ग्लोबल साउथ में पानी और खाद्य सुरक्षा में अहम सुधार हो सकता है।
शोधकर्ता ने शोध के हवाले से कहा कि यह एक शैक्षणिक और व्यक्तिगत मिशन है क्योंकि उन्होंने भारत में एक बच्चे के रूप में स्वच्छ, आर्सेनिक मुक्त पानी खोजने के लिए निरंतर संघर्ष को प्रत्यक्ष रूप से देखा है।
स्कूल ऑफ अर्थ साइंसेज में वरिष्ठ शोधकर्ता और प्रमुख अध्ययनकर्ता डॉ. जगन्नाथ विश्वकर्मा ने शोध में कहा, ऐसे इलाकों में लाखों लोग रहते हैं जो आर्सेनिक से प्रभावित हैं। यह शोध सुरक्षित पेयजल और स्वस्थ भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
आर्सेनिक प्रदूषण दक्षिण और मध्य एशिया तथा दक्षिण अमेरिका में एक बहुत बड़ा पर्यावरणीय और सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी मुद्दा है, जहां लोग पीने और खेती के लिए भूजल पर निर्भर हैं। आर्सेनिक का अधिक विषैला और गतिशील रूप, जिसे आर्सेनाइट कहा जाता है, आसानी से जल आपूर्ति वाले हिस्सों में रिस जाता है और कैंसर, हृदय रोग और अन्य गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकता है।
शोध के हवाले से डॉ. विश्वकर्मा ने कहा, “मैंने अपने गृहनगर असम में सुरक्षित पेयजल के लिए रोजाना होने वाली लड़ाई देखी है। भूजल के ऐसे स्रोत ढूंढना बहुत मुश्किल है जो आर्सेनिक से दूषित न हों, इसलिए मेरे लिए यह शोध बहुत महत्वपूर्ण है। यह न केवल विज्ञान को आगे बढ़ाने का अवसर है, बल्कि एक ऐसी समस्या की सीमा को बेहतर ढंग से समझने का भी अवसर है जिसने कई दशकों से मेरे अपने समुदाय और दुनिया भर में बहुत से लोगों को प्रभावित किया है।”
वैज्ञानिकों का पहले मानना था कि आर्सेनाइट को केवल ऑक्सीजन की मदद से ही कम हानिकारक रूप में बदला जा सकता है, जिसे आर्सेनेट कहा जाता है। लेकिन इस नए अध्ययन से पता चला है कि ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में भी इसे ऑक्सीकरण किया जा सकता है, थोड़ी मात्रा में लोहे की मदद से जो ऑक्सीकरण के लिए उत्प्रेरक का काम करता है।
शोध में डॉ. विश्वकर्मा ने कहा, “यह अध्ययन दुनिया के सबसे लगातार पर्यावरणीय स्वास्थ्य संकटों में से एक से निपटने के लिए एक नया नजरिया प्रस्तुत करता है, जिसमें दिखाया गया है कि प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले लौह खनिज ऑक्सीकरण में मदद कर सकते हैं, जिससे कम ऑक्सीजन की स्थिति में भी आर्सेनिक की गतिशीलता कम हो सकती है।”
अध्ययन के निष्कर्षों से पता चला है कि आर्सेनाइट को ग्रीन रस्ट सल्फेट द्वारा ऑक्सीकृत किया जा सकता है, जो भूजल आपूर्ति जैसी कम ऑक्सीजन की स्थिति में प्रचलित लौह का एक स्रोत है। उन्होंने यह भी दिखाया कि यह ऑक्सीकरण प्रक्रिया पौधों द्वारा छोड़े जाने वाले एक रसायन से और भी बढ़ जाती है, जो आमतौर पर मिट्टी और भूजल में पाया जाता है।
शोधकर्ता ने कहा, ये कार्बनिक लिगैंड, जैसे कि पौधों की जड़ों से प्राप्त साइट्रेट, प्राकृतिक वातावरण में आर्सेनिक की गतिशीलता और विषाक्तता को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। बांग्लादेश और पूर्वी भारत में फैले गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना डेल्टा में, लाखों लोग दशकों से आर्सेनिक-दूषित भूजल के संपर्क में हैं, क्योंकि यह रसायन प्राकृतिक प्रक्रियाओं के माध्यम से पानी में प्रवेश करता है।
डॉ. विश्वकर्मा ने कहा, “कई घर नलकूपों और हैंडपंपों पर निर्भर हैं, लेकिन ये प्रणाली स्वच्छ पानी की उपलब्धता की गारंटी नहीं देते हैं। पानी अक्सर अपनी विषाक्तता, गंध और रंगहीनता के कारण पीने या अन्य घरेलू कार्यों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा नए नलकूप या हैंडपंप हासिल करने से जुड़ा एक निरंतर वित्तीय बोझ भी है। जिसके कारण आर्थिक रूप से वंचित परिवार अपनी रोजमर्रा की आवश्यकताओं के लिए सुरक्षित पानी खोजने के लिए संघर्ष करते रहते हैं।”
एनवायर्नमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी लेटर्स नामक पत्रिका में प्रकाशित शोध आर्सेनिक प्रदूषण को कम करने के लिए नई रणनीति विकसित करने का द्वार खोलता है। आर्सेनिक ऑक्सीकरण में लौह खनिजों की भूमिका को समझने से जल उपचार या मिट्टी के उपचार के लिए नए नजरिए हो सकते हैं, पीने के पानी की आपूर्ति में प्रवेश करने से पहले आर्सेनिक को उसके कम हानिकारक रूप में परिवर्तित करने के लिए प्राकृतिक प्रक्रियाओं का उपयोग किया जा सकता है।
किसी नमूने में आर्सेनिक के विशिष्ट रूप की पहचान करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। ऑक्सीजन की थोड़ी मात्रा भी आर्सेनाइट को आर्सेनेट में बदल सकती है, इसलिए नमूनों को हवा के संपर्क में आने से बचाना जरूरी है।
आर्सेनिक ऑक्सीकरण अवस्था में बदलावों की पुष्टि करने के लिए एक्स-रे अवशोषण स्पेक्ट्रोस्कोपी का उपयोग करके परमाणु स्तर पर आर्सेनिक गठन का निर्धारण करना महत्वपूर्ण था। इसलिए सिंक्रोट्रॉन ने निष्कर्षों का समर्थन करने में अहम भूमिका निभाई, जिसका पानी की गुणवत्ता की हमारी समझ के लिए संभावित रूप से व्यापक प्रभाव है।
शोधकर्ताओं ने कहा अब यह पता लगाने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है कि इन निष्कर्षों को वास्तविक दुनिया की स्थितियों में कैसे लागू किया जा सकता है। साथ ही यह जांचना कि यह प्रक्रिया विभिन्न प्रकार की मिट्टी और भूजल प्रणालियों में कैसे काम कर सकती है, खासकर उन क्षेत्रों में जहां आर्सेनिक प्रदूषण सबसे खतरनाक है।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )