डॉ अली इमाम खां
साइंस फ़ाॅर सोसायटी, झारखण्ड और वैज्ञानिक चेतना साइंस वेब पोर्टल, जमशेदपुर द्वारा आज़ादी के 75 वें वर्ष (15 अगस्त ‘ 2021- 15 अगस्त ‘ 2022) को वैज्ञानिक चेतना वर्ष के रूप में मनाने का फ़ैसला किया गया और इसके तहत पूरे साल विभिन्न माध्यमों का इस्तेमाल करते हुए जन संवाद एवं जन विमर्श के अनेक कार्यक्रम आयोजित किए गए। इन कार्यक्रमों को मिली सफलता और प्रभाव को ध्यान में रखते हुए इसे आज़ादी के 75 साल बाद के वर्ष (2022-23) में भी अपनी संवैधानिक ज़िम्मेदारी (संविधान की धारा 51 ए(एच) में दर्ज) को पूरा करने के इरादे से जारी रखने का निर्णय लिया गया। और फिर हम संविधान लागू होने के 75 वें वर्ष (26 जनवरी ‘ 2024- 26 जनवरी’ 2025) में प्रवेश कर गए। यह महसूस किया गया कि इसे और व्यापक बनाने तथा विस्तार देने की ज़रूरत है। इसलिए वैज्ञानिक चेतना वर्ष के तहत कार्यक्रमों को विस्तार देते हुए साइंस फ़ाॅर सोसायटी, झारखण्ड; वैज्ञानिक चेतना साइंस पोर्टल, जमशेदपुर और जनवादी लेखक संघ, झारखण्ड के संयुक्त तत्वावधान में आनलाइन राष्ट्रीय परिचर्चा आयोजित करने का निर्णय लिया गया ताकि लोकतांत्रिक एवं वैज्ञानिक चेतना के विकास और प्रसार को को नया फलक प्राप्त हो सके।
राष्ट्रीय परिचर्चा -2 का आयोजन 28 अप्रैल ‘ 2024 को शाम 7-9 बजे साइंस फ़ाॅर सोसायटी, झारखण्ड के अध्यक्ष अली इमाम ख़ाँ की अध्यक्षता में संपन्न हुआ। परिचर्चा में पैनलिस्ट के तौर पर बिहार के आरा शहर से वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष, वरिष्ठ कथाकार एवं जनवादी लेखक संघ, बिहार के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर नीरज सिंह; राजस्थान के जयपुर शहर से युवा साहित्यकार एवं जनवादी लेखक संघ के उप महामंत्री संदीप मील; मध्यप्रदेश के भोपाल शहर से वरिष्ठ विज्ञान संचारक एवं मध्यप्रदेश विज्ञान सभा के सचिव सुभाष शर्मा और झारखण्ड के धनबाद शहर से जनवादी लेखक संघ, झारखण्ड के कार्यकारी सचिव डा. अशोक कुमार शामिल हुए। संचालन बी.एस. के. काॅलेज, माईथन (धनबाद) की नितीशा खलखो तथा टेक्निकल सहयोग बोकारो स्टील सिटी के अनंत कुमार गिरि ने किया। साइंस फ़ाॅर सोसायटी, झारखण्ड के महासचिव डी.एन.एस. आनंद ने परिचर्चा के समन्वयक की भूमिका निभाई। परिचर्चा पूर्व निर्धारित विषय ” मौजूदा हालात में लोकतांत्रिक एवं तर्कशील चेतना के विकास की चुनौतियां” पर आयोजित की गई।
परिचर्चा की शुरुआत डी.एन.एस.आनंद ने पैनलिस्ट और परिचर्चा में शामिल लोगों के स्वागत के साथ किया। साथ ही परिचर्चा के उद्देश्य एवं सामाजिक सरोकार पर प्रकाश डाला। उन्होंने आज के हालात में लोकतांत्रिक एवं तर्कशील चेतना के विकास की ज़रूरत को रेखांकित करते हुए चिंता जताई कि हमारी तर्क एवं विश्लेषण की क्षमता को कई एजेंसियों और माध्यमों से लगातार कम करने का काम व्यवस्थित ढंग से किया जा रहा है। अंधविश्वास को बढ़ावा देने का काम जोरों पर है। इन चुनौतियों के बीच तर्कशील और वैज्ञानिक सोच वाले समाज के निर्माण को आगे बढ़ाने के लिए हमें व्यापक नेटवर्क बनाने की ज़रूरत है ख़ासकर हिन्दी भाषा भाषी लोगों का नेटवर्क।
पहले पैनलिस्ट के तौर पर प्रोफ़ेसर नीरज सिंह ने अपने विचार साझा करते हुए लोकतांत्रिक एवं तर्कशील चेतना के विकास में दरपेश चुनौती के रूप में सत्ता के सहयोग और समर्थन से संगठित रुकावट उत्पन्न करने के रूप में चिह्नित करते हुए कहा कि वर्चस्ववादी चेतना का विकास लोकतांत्रिक एवं तर्कशील चेतना के विकास में सबसे बड़ी रुकावट है। साथ ही बिहार में साक्षरता आन्दोलन और जन विज्ञान आन्दोलन से अपने जुड़ाव की चर्चा करते हुए इन्हें लोकतांत्रिक एवं तर्कशील चेतना के विकास में कारगर सहयोगी बताया। उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि हमारे देश में बौद्ध दर्शन हो या भक्ति आंदोलन दोनों समता पर आधारित समाज की पैरवी करते हैं। विज्ञान के अनुसार भी मानव रक्त के पाँच ग्रुप हैं और इस आधार पर पुरी दुनिया में मनुष्यों को पाँच कोटि में रखा गया है जबकि राजनीति के तहत नस्ल,धर्म,जाति के आधार पर विभेद वर्चस्ववादी चेतना को बढ़ाता है। इसलिए वर्चस्ववादी विचार और राजनीति का संगठित विरोध ज़रूरी है।
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए संदीप मील ने लोकतांत्रिक और तर्कशील चेतना के अंत: सम्बन्ध की चर्चा करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि लोकतांत्रिक चेतना का अर्थ है चुनने की आज़ादी और चुनाव का आधार तर्क एवं विश्लेषण होता है या होना चाहिए। इसलिए यह स्पष्ट है कि लोकतांत्रिक चेतना का मतलब तर्कशील चेतना है। और यह ही हमारी वैज्ञानिक चेतना को बनाने का काम करते हैं। लेकिन आज इसके सामने कई चुनौतियां खड़ी हैं इतिहास लेखन से लेकर पाठ्यक्रमों को तय करने और सामाजिक आधार की संरचना को वर्चस्ववादी विचार के अंतर्गत जबरन थोपने तक। और यह केवल भारत तक सीमित नहीं है बल्कि पुरी दुनिया में किसी न किसी रूप में हमारे सामने है। यह चिंता का विषय है। साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि हर काल में लोकतांत्रिक एवं तर्कशील चेतना के विकास के समक्ष चुनौतियां रही हैं और इसके लिए लोगों ने संघर्ष किये हैं और क़ुर्बानियां दी हैं। हमारे देश में भी गोविंद पंसारे और नरेन्द्र दाभोलकर इसकी मिसाल हैं।वर्चस्व की राजनीति परिवर्तन विरोधी और यथास्थिति को बनाये रखने वाली होती है। इसको बढ़ाने में सर्वशक्तिशाली बाज़ार और निरंकुश पूंजी अपना काम करती है। इसलिए लोकतांत्रिक और तर्कशील चेतना के विकास की चुनौतियां पूंजीवादी बाज़ार और पूंजीवादी व्यवस्था से जुड़ी हुई हैं। इसी तरह हमारी शिक्षा व्यवस्था भी ग़ैरबराबरी के आधार पर खड़ी है और सभी को समान अवसर से वंचित करने में सहायक है। इस तरह वैज्ञानिक चेतना के विकास का सवाल और संघर्ष अनिवार्य रूप से संवैधानिक अधिकारों के संघर्ष से जुड़ा हुआ है। इन संघर्षों की व्यापक एकता ही इन चुनौतियों से कारगर ढंग से निपटने में मददगार हो सकती है। और इसके लिए जनसंवाद और जन विमर्श नितांत आवश्यक हैं।
इस परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए डा. अशोक कुमार ने चुनौतियों को देश के क़ानून के दायरे में परखते हुए अनेक क़ानून में हाल में किये गये संशोधन को लोकतांत्रिक चेतना को कुंद करने वाला और वर्चस्ववादी व्यवस्था को मज़बूत करने वाला बताया। उन्होंने भारतीय समाज में अनेकों चिंतन धारा और विचार प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि लोकतांत्रिक एवं तर्कशील चेतना के विकास में इनका बहुत महत्वपूर्ण योगदान है और इनको बचाना एक बहुत बड़ी चुनौती है। इसके लिए जनता को जागरूक करना और उनसे संवाद करना बहुत ज़रूरी है। इसी क्रम में उन्होंने लोकतांत्रिक, तर्कशील और वैज्ञानिक चेतना से लैस भारत के निर्माण में नरेन्द्र दाभोलकर, गोविंद पंसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश के योगदान और उनकी शहादत को याद किया। और इसे लगातार चलने वाला लम्बा संघर्ष बताया।
अंतिम पैनलिस्ट सुभाष शर्मा ने मध्यप्रदेश विज्ञान सभा के कार्यों को साझा करते हुए मध्यप्रदेश में आज की स्थितियों की चर्चा किया और कहा कि दिन ब दिन चुनौतियां अधिक जटिल हो रहीं हैं। और इस तरह के कार्यक्रम हमें बल देते हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति योजनाबद्ध तरीके से लोकतांत्रिक एवं तर्कशील चेतना को बाधित करने का काम कर रही है कभी भारतीय परंपरा और भारतीय ज्ञान पद्धति के नाम पर तो कभी भारतीय विश्वास पद्धति के नाम पर। ज़रूरत इस बात की है इस मुहिम को और अधिक तेज़ किया जाए।
परिचर्चा में हस्तक्षेप करते हुए महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति, मुंबई के श्री कडलास्कर अन्ना ने महाराष्ट्र में तर्कशील आन्दोलन और अंधश्रद्धा विरोधी आन्दोलन के योगदान को रेखांकित करते हुए महाराष्ट्र में तर्कशील चेतना के विकास के शानदार इतिहास और उसकी उपलब्धियों को साझा करते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि दरपेश चुनौतियों का हम एकजुट होकर ही सामना कर सकते हैं और सफलता का रास्ता भी यही है। संगठनों की व्यापक एकता और एकजुट संघर्ष।
गुजरात में काफी लम्बे समय से वैज्ञानिक चेतना के विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय भूमिका निभा रही संस्था सत्य शोधक सभा, सूरत के वरिष्ठ पदाधिकारी सिद्धार्थ देगामी ने अपने संगठन की लम्बे समय से जारी गतिविधियों की जानकारी साझा करते हुए मिलजुलकर राष्ट्रीय वैज्ञानिक चेतना अभियान को आगे बढ़ाने पर बल दिया। झारखण्ड की डा. शांति खलखो ने लोकतांत्रिक एवं तर्कशील चेतना के विकास में शिक्षा को रेखांकित करते हुए संविधान के सम्बन्ध में लोगों को जागरूक करने पर ज़ोर दिया। झारखण्ड से ही सतीश ने यह जानना चाहा कि पाठ्यक्रमों में संविधान के मुल तत्वों को शामिल किया जा सकता है या नहीं।
नितीशा खलखो ने संचालन की ज़िम्मेदारी निभाते हुए सतीश के सवाल को लेते हुए कहा कि विधि, राजनीति शास्त्र, अंतरराष्ट्रीय सम्बंध के पाठ्यक्रमों में संविधान को शामिल किया गया है। कुछ हद तक सामान्य अध्ययन में यह मौजूद है पर सभी स्तर संविधान पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं है। यह बहुत हद सरकार की नीति पर भी निर्भर करता है। नितीशा खलखो ने संचालन के दौरान अपनी टिप्पणियां भी साझा किया।
परिचर्चा के अंतिम चरण में अली इमाम ख़ाँ ने अध्यक्षीय भाषण में सभी पैनलिस्ट समेत अपने सुझाव और अपनी टिप्पणी से परिचर्चा को समृद्ध करने वालों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा कि चारों पैनलिस्ट के विचार में स्पष्टता थी और बिना लाग-लपेट और उलझाव के उन्होंने अपनी बात कही तथा विषय के साथ इंसाफ किया। साथ ही उम्मीद जताया कि भविष्य में भी इनका सहयोग और साथ मिलता रहेगा और हम मिलजुलकर इस मुहिम को आगे बढ़ाते रहेंगे। हमें जागरूक नागरिक बनाने के काम को लगातार आगे बढ़ाते रहना है। लोकतंत्र को राजतंत्र और नागरिक को प्रजा में बदलने का व्यवस्थित प्रयास हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती है। हमें स्वतंत्रता, समानता, अधिकार, न्याय, बंधुत्व और वैज्ञानिक चेतना के सवाल पर लोगों को जागरूक करने की ज़रूरत है। साथ ही सामंती अवशेष, पूंजीवादी बाज़ार, पैट्रिआर्की ( पुरुष वर्चस्ववाद) के विरोध भी अपनी आवाज़ को तेज़ करने की ज़रूरत है। लोकतांत्रिक एवं तर्कशील चेतना का सवाल अभिन्न रूप से लोकतंत्र, संविधान, लोकतांत्रिक संस्थाएं और सार्वजनिक जीवन में लोकतांत्रिक पद्धति की रक्षा से जुड़ा हुआ है। जनशिक्षा, जन-स्वास्थ्य, जनभागीदारी और जनहित के मामले इसके अनिवार्य तत्व हैं। जनसंघर्ष के माध्यम से ही हम इनकी रक्षा कर सकते हैं। सत्ता, पूंजी और बाज़ार के गठजोड़ को समझना और इसके ख़तरे से जनता को जागरूक करना भी एक बड़ी चुनौती है। अतीत हो या वर्तमान अपने – अपने समय की भौतिक परिस्थितियों की वैज्ञानिक समझ और तार्किक विश्लेषण के आधार पर ही हम उनके मुल्यांकन और पुर्नमुल्यांकन के आधार पर लोकतांत्रिक एवं तर्कशील चेतना के विकास के काम को आगे बढ़ा सकते हैं। परिचर्चा में शामिल लोगों के प्रति ख़ासकर पैनलिस्ट, टिप्पणी कर्ता, संचालन कर्ता, टेक्निकल सहयोग कर्ता और समन्वयक के प्रति आभार व्यक्त करते हुए परिचर्चा संपन्न हुई। परिचर्चा में हरियाणा विज्ञान मंच, हरियाणा से जुड़े वरिष्ठ विज्ञान लेखक एवं विज्ञान संचारक श्री वेदप्रिय, जनवादी लेखक संघ वाराणसी, उत्तरप्रदेश के डॉ महेंद्र प्रताप सिंह (पूर्व अध्यापक)
जनवादी लेखक संघ राजस्थान के प्रोफेसर जीवन सिंह मानवी मध्यप्रदेश विज्ञान सभा के आशीष पारे, साइंस फॉर सोसायटी, बिहार के उमेश कुमार समेत झारखण्ड से साहित्य, विज्ञान, पत्रकारिता और सामाजिक क्षेत्र में कार्य करने वाले जाने – माने लोग शामिल हुए।