डॉ अली इमाम खां

साइंस फ़ाॅर सोसायटी, झारखण्ड ने 14 अप्रैल 2024 को आम्बेडकर जयंती के अवसर पर संध्या 7 बजे से एक आनॅलाइन परिचर्चा का आयोजन किया। परिचर्चा का विषय था- झारखण्ड में संविधान जागरूकता: दशा एवं दिशा (संदर्भ संविधान की पांचवीं अनुसूची)। परिचर्चा में संथाली रायटर्स एसोसिएशन के सचिव रविन्द्र नाथ मुर्मू, दलित चिंतन और सरोकार से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता रामदेव देशबंधु, बी. एस. के. काॅलेज,मैथन के हिन्दी विभाग से जुड़ी आदिवासी विमर्श एवं सरोकार के स्तर पर सक्रिय नितीशा खलखो, बिनोद बिहारी महतो कोल्यांचल विश्वविद्यालय, धनबाद के अंग्रेज़ी भाषा एवं साहित्य के साथ फ्रांसीसी भाषा विभाग के डा. हिमांशु शेखर चौधरी और राँची विश्वविद्यालय, राँची तथा विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हज़ारीबाग़ में कुड़ूख भाषा एवं साहित्य का शिक्षण कार्य करने वाली डा. शांति खलखो ने भाग लिया। इस परिचर्चा की अध्यक्षता साइंस फ़ाॅर सोसायटी के अध्यक्ष एवं जनवादी लेखक संघ के सचिव मंडल के सदस्य डा.अली इमाम ख़ाँ ने की। परिचर्चा में समन्वयक की भूमिका साइंस फ़ाॅर सोसायटी झारखंड के महासचिव डी.एन. एस. आनंद ने निभाया और संचालन जमशेदपुर के वरिष्ठ पत्रकार संजय प्रसाद ने किया।


परिचर्चा को शुरू करते हुए संजय प्रसाद ने याद दिलाया कि यह क्षेत्र कभी भी ब्रह्नवादी दर्शन और विचार का क्षेत्र नहीं रहा है, इसके बरअक्स यह क्षेत्र सामाजिक बराबरी और सांस्कृतिक भागीदारी तथा साम्राज्यवादी विरोध के लिए जाना जाता है। साथ ही इसकी अपनी विशेष सामुदायिक पहचान भी रही है। आदिवासी समाज के प्रतिनिधित्व का मुद्दा भी बहुत अहम है।ऐसे में झारखण्ड के संदर्भ में संविधान जागरूकता पर परिचर्चा करना बहुत ज़रूरी हो जाता है।


इसके बाद डी.एन.एस. आनंद ने परिचर्चा में शामिल लोगों का स्वागत करते हुए परिचर्चा के उद्देश्य को स्पष्ट किया। उन्होंने बताया कि साइंस फ़ाॅर सोसायटी, झारखण्ड ने संविधान के 75 वें वर्ष को वैज्ञानिक चेतना वर्ष के रूप में मनाने का फ़ैसला किया है ताकि संविधान की धारा 50 ए (एच)के अनुरूप हम अपनी संवैधानिक ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए जनसंवाद स्थापित कर इसको निचली सतह पर ले जाने के लिए नेटवर्क बना सकें। और इसके लिए हिन्दी क्षेत्र के बुद्धिजीवी, शिक्षाविद, साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता का एक वृहत नेटवर्क बनाना ज़रूरी है। इसी क्रम में उन्होंने झारखण्ड के वरिष्ठ पत्रकार एवं फ़िल्म मेकर प्रबल महतो और उनकी टीम द्वारा कोल्हान में आयोजित “संविधान यात्रा” का अनुभव साझा करते हुए इसे पूरे झारखण्ड में विस्तार देने पर ज़ोर दिया।

परिचर्चा में सबसे पहले अपना विचार रामदेव देशबंधु ने रखा। उन्होंने आम्बेडकर के भारतीय राजनीति और विश्व विचार प्रक्रिया में योगदान की चर्चा करते हुए उनकी विरासत को आगे बढ़ाने पर बल दिया। परिचर्चा के विषय पर बोलते हुए उन्होंने संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत प्रावधान और विशेष व्यवस्था, पांचवीं अनुसूची और छठी अनुसूची के बीच अंतर को स्पष्ट करते हुए चिंता जताई कि संविधान की धारा 12 से 35 तक में प्रदत्त अधिकारों के सम्बन्ध में जन-जागरूकता बहुत कम है और यही कारण है धारा 32 का प्रयोग बहुत कम हो पाता है। यही स्थिति धारा 50 ए (एच) के सम्बन्ध में है। इस लिहाज़ यह परिचर्चा बहुत महत्वपूर्ण है।
रामदेव देशबंधु जी की बात को आगे बढ़ाते हुए रविंद्र नाथ मुर्मू ने पांचवीं अनुसूची के तहत राज्यों में ट्राइबल एडवाइजरी कौंसिल की स्थापना, उसके ढाँचा और कार्यक्षेत्र के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि वर्तमान में झारखण्ड के आदिवासी सघन 13 ज़िले पांचवीं अनुसूची के तहत आते हैं और ट्राइबल एडवाइजरी कौंसिल के 75% सदस्य आदिवासी समुदाय से आते जिनमें अधिकांश विधायक होते हैं। साथ ही यह राज्यपाल के दिशा-निर्देश में काम करती है। लेकिन झारखण्ड की स्थापना के 23 वर्षों बाद भी झारखण्ड की भाषा, संस्कृति और लोगों के विकास का काम बहुत कम और धीमी गति से हुआ है। यहाँ तक कि झारखण्ड में साहित्य एकेडमी की स्थापना नहीं हो पाई है। आदिवासी समूहों की भाषाओं में पढ़ाई की उचित व्यवस्था नहीं है। स्कूल से लेकर काॅलेज और विश्वविद्यालय तक इन भाषाओं को पढ़ाने के लिए शिक्षक और सामग्री का घोर अभाव है। यहाँ तक कि झारखण्ड की भाषाओं और उनके साहित्य को लेकर केवल जनजातीय/ क्षेत्रीय भाषा विभाग की व्यवस्था है। इन बातों को लेकर जन-जागरूकता एक ज़रूरी काम है।

परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए नितिशा खलखो ने कहा कि 75 सालों के बाद भी संविधान, अधिकार के सम्बन्ध में जन-जागरूकता नहीं के बराबर है। आज भी आदिवासी समाज ग़ैर बराबरी और भेदभाव का शिकार है। हर क्षेत्र में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है और ख़ासकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में यह ज़्यादा नज़र आता है और ऐसा देश के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भी है। यह भेदभाव और ग़ैर बराबरी की व्यवस्था संविधान का नकार ही नहीं देश के विकास में भी बाधक है। ज़रूरत इस बात की है कि इन सवालों पर लोगों को जागरूक किया जाए और उनमें वैज्ञानिक चेतना का विकास किया जाए। मानवाधिकार का प्रश्न सीधे तौर पर मानव मूल्य और यूनिवर्सल ह्यूमनिज़्म से जुड़ा हुआ है जिसके लिए जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का होना आवश्यक है।

परिचर्चा में हस्तक्षेप करते हुए डा. हिमांशु शेखर चौधरी ने इस परिचर्चा को वर्तमान संदर्भों से जोड़ते हुए उच्च शिक्षा के क्षेत्र में संविधान और लोकतंत्र पर पब्लिक डिबेट में आने वाली दुश्वारियों का ज़िक्र किया और इन हालात में भी जनसंवाद और जन विमर्श के लिए नये तरीकों और माध्यमों के इस्तेमाल पर बल दिया। उन्होंने आज की परिस्थितियों को पूंजी और कार्पोरेट इंटरेस्ट से जोड़ते हुए इसे न्यू लिबरल इकाॅनमी के वर्ग चरित्र को भी समझने को रेखांकित किया। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि पूरी दुनिया में लिबरल डेमोक्रेसी पूंजी का शिकार होगी है और उसके हित के लिए काम कर रही है। शिक्षा का व्यवसायीकरण इसकी मिसाल है। इसलिए हर क्षेत्र में निजीकरण और उसे बाज़ार के अधीन करने का विरोध ज़रूरी है।

परिचर्चा में हस्तक्षेप करते हुए डा. शांति खलखो ने इस बात पर ज़ोर दिया कि पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत संवैधानिक प्रावधानों का झारखण्ड में सही ढंग से अनुपालन आज भी एक बड़ी समस्या है और इसे बेहतर ढंग से लागू करने में राज्यपाल की बड़ी ज़िम्मेदारी और भूमिका है। झारखण्डी भाषाओं का संरक्षण और विकास एक ज़रूरी मुद्दा है।

अंत में परिचर्चा की अध्यक्षता कर रहे डॉ. अली इमाम ख़ाँ ने अपनी बात डा. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर के योगदान को याद करते हुए और उनकी साम्राज्य विरोधी, जाति विरोधी, बराबरी, शिक्षित होने, संगठित होने और संघर्ष करने की विरासत को आगे बढ़ाने का आह्वान करते हुए उन्हें उनके जन्मदिन पर ससम्मान याद करने और विनम्र श्रद्धांजलि देने से शुरू किया। साथ में यह भी रेखांकित किया कि आज का सत्ता वर्ग उन्हें सिम्बल में घटाने और उन्हें हड़पने का काम कर रहा है जबकि ज़रूरत इस बात की है कि उन्हें पढ़ा, जाना,समझा जाए और उनकी विरासत को आगे बढ़ाने का एकजुट प्रयास किया जाए। इसके उन्होंने सभी पैनलिस्ट, संचालन कर्ता के प्रति साइंस फ़ाॅर सोसायटी की ओर से उनकी भागीदारी के लिए आभार व्यक्त किया। पूरी परिचर्चा को समेटते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि झारखण्ड की साम्राज्य विरोधी, ब्राह्मणवाद विरोधी और समता आधारित समाज निर्माण की विरासत आज पूंजीवादी बाज़ार के दबाव में ख़तरे में है। हमें समझने की ज़रूरत है कि साम्राज्यवाद विरोध अनिवार्य रूप से वित्तीय पूंजी और नव उदारवाद अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है। इस ने समाज में ग़ैर बराबरी को तेज़ी से बढ़ाया है, उपभोक्तावाद और पहचान की राजनीति को आज के लोकप्रिय आख्यान के तौर पर स्थापित किया है। इसलिए आम्बेडकर की विरासत को आगे बढ़ाने का अर्थ है कार्पोरेट समर्थित और उसके हित में आक्रमक ढंग से काम करने वाली नव उदारवाद अर्थव्यवस्था द्वारा संचालित पूंजीवादी बाज़ार का विरोध। पांचवीं अनुसूची के प्रावधान को झारखण्ड में आज भी समुचित रुप से लागू नहीं किया गया है। ग्राम पंचायत के अंदर संसाधनों पर ग्राम सभा के अधिकारी को लगातार संकुचित किया जा रहा है। इस स्थिति को बदलने के लिए संवैधानिक अधिकारों के लिए चल रहे जनवादी आंदोलनों को एकजुट करना और उनका नेटवर्क बनाना ज़रूरी है और यहीं पर संविधान जागरूकता का सवाल अहम हो जाता है। संविधान यात्रा के तहत कोल्हान में जो पहल हुई है उसका पूरे झारखण्ड में विस्तार भी ज़रूरी है और यह हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी है। ट्राइबल एडवाइजरी कौंसिल में ढाँचागत सुधार कर झारखण्ड में जल,जंगल, ज़मीन, विस्थापन एवं पुनर्वास, पर्यावरण, खाद्य एवं पोषाहार, आजिविका, वैज्ञानिक चेतना के प्रसार और भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के सवाल पर काम करने वाले संगठन और विषेषज्ञों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की भी आवश्यकता है। जिस तरह हिन्दी, अंग्रेज़ी, बंगला, संस्कृत, उर्दू आदि के अलग विभाग होते हैं उसी तरह संथाली, हो, कुड़ूख, मुंडारी आदि के अलग विभाग का गठन और स्थापना के द्वारा उनके अध्ययन और शोध की व्यवस्था करना ज़रूरी है।

इसी तरह झारखण्ड साहित्य एकेडमी की स्थापना प्रथमिकता के आधार पर हो। उच्च शिक्षा, जुडिशियरी, मीडिया और शोध संस्थानों में दलित, आदिवासी और अतिपिछड़ों का प्रतिनिधित्व आरक्षण की व्यवस्था के बावजूद नहीं के बराबर है।इसे सुनिश्चित करवाना संवैधानिक अधिकारों के लिए संघर्ष का हिस्सा है। जहाँ तक झारखण्ड में संवैधानिक जागरूकता का सवाल है इसका बड़ा अभाव और इसके लिए संगठित और संस्थानिक प्रयास भी कम हुए हैं। 2015 से झारखण्ड के विश्वविद्यालय और काॅलेजों में संविधान की प्रस्तावना और मौलिक अधिकारों के संदर्भ में कार्यक्रम आयोजित किए जारहे हैं, इनका जनता के बीच विस्तार करना ज़रूरी है। समस्याएं अनेक हैं पर संविधान जागरूकता और वैज्ञानिक जागरूकता के काम को एकसाथ करना आज बहुत ज़रूरी है क्योंकि संविधान, लोकतंत्र, लोकतांत्रिक संस्थाओं और मानव अधिकारों पर हमले तेज़ हुए हैं। साइंस फ़ाॅर सोसायटी, झारखण्ड का प्रयास है कि लोगों को इस मुहिम से जोड़ा जाए और झारखण्ड में स्वस्थ लोकतांत्रिक माहौल के निर्माण की ओर बढ़ा जाए।
इस परिचर्चा से जुड़े सभी लोगों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए यह जन विमर्श का कार्यक्रम इसे लगातार करने के संकल्प के साथ संपन्न हुआ।

     (डॉ अली इमाम खां, झारखंड के प्रमुख शिक्षाविद एवं विज्ञान संचारक हैं तथा साइंस फॉर सोसायटी, झारखंड के अध्यक्ष हैं)