वेदप्रिय

किन्हीं भी निष्कर्षों तक पहुंचने के लिए हम प्रायःक्या करते हैं? हम वस्तुओं/ घटनाओं आदि का अवलोकन करते हैं। उनके व्यवहार एवं प्रभावों को समझने के लिए खोजबीन करते हैं। उनकी जांच -परख आदि करते हैं। उनकी हर संभव पड़ताल करते हैं। उन पर और प्रयोग करते हैं आदि -आदि। यही विज्ञान विधि के कुछ सोपान हैं। लेकिन इन सब के मूल में होते हैं कुछ तर्क। तर्क बनते भी कुछ इसी प्रक्रिया में हैं। फिर इन तर्कों के आधार पर हम ज्ञान मार्ग पर आगे बढ़ते हैं। लेकिन तर्क कोई प्रकृति के नियम नहीं हैं। ये मानव निर्मित संकल्पनाएँ हैं। ये हमारे अध्ययन एवं अनुभवों का परिणाम हैं। नए अनुभवों की रोशनी में ये विकसित भी होते हैं। बढ़े हुए तर्कों से हमें बढ़ा हुआ ज्ञान मिलता है इसलिए तर्क सही /गलत कहने की अंतिम कसौटी नहीं माने जा सकते। तर्कों की अपनी सीमाएं भी हैं इसलिए सत्तामीमांसीय( Ontology) प्रश्नों के उत्तर लेने के निर्णय में हमें जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।

 

परंतु यह भी एक अजीब बात है कि हमें प्रश्नों के उत्तर चाहिएं। उत्तरों के सही/ गलत होने के लिए हम तर्क करते हैं। तर्कों से अंतिम उत्तर मिलते नहीं और यह बहस कभी खत्म नहीं होती। इसी प्रकार की एक बहस आस्तिकता / नास्तिकता के बीच है। दर्शन में यह काफी पुरानी है। हम यह कह कर इस बहस का अंत नहीं कर सकते कि आस्तिकता का दर्शन मानव संस्कृति में बहुत बाद में प्रवेश  है। यद्यपि मानव विकास के इतिहास में मनुष्य ने बहुत लंबा समय इसके शुरू होने से पहले बिताया है। उस समय शायद इस बहस की जरूरत महसूस नहीं हुई थी। हम इस बहस की रोचकता पर आएंगे। हम एक पक्ष विज्ञान का लेते हैं। इसके बारे में प्रायःयह बताया जाता है कि यह नास्तिकता दर्शन की हिमायत में खड़ा है। जबकि नास्तिकता की हिमायत बहुत पहले की बात है। फिर भी आधुनिक विज्ञान ने( विशेषकर खगोल की खोजों, विकासवाद, क्वांटम भौतिकी व आधुनिक अस्ट्रोभौतिकी आदि -आदि) काफी हद तक इसकी पैरवी की है। एक और दिलचस्प बात यह है कि विज्ञान ने कभी भी इस बहस में ‘उसका'( ईश्वर) नाम नहीं लिया है।

पिछले लगभग 400 वर्षों से यह बहस कुछ सिलसिलेवार तरीके से आगे बढ़ी है। ज्ञानोदय काल से इसने अपना स्टैंड मजबूत कर लिया है। यह मजबूत इस शक्ल में हुआ है कि धर्म के साथ जुड़े मिथकों ने खगोल व उत्पत्ति संबंधी जो अवधारणाएं बनाई हुई थी उन पर नई खोजों के परिणाम फिट नहीं बैठ रहे थे। वैज्ञानिकों ने इस पर आपत्ति इस रूप में दर्ज की थी कि उनकी खोजों  के दौरान इस ब्रह्मांड की कार्य प्रणाली में ‘उसकी’ दखलअंदाजी या उपस्थित उन्हें अनावश्यक लगी है। यह निर्णय भी अचानक नहीं निकला था। खगोल में यह सिलसिला कॉपरनिकस, ब्रूनो, गैलीलियो ,न्यूटन से लेकर लाप्ले  तक कदम -दर -कदम आगे बढ़ा है। लाप्ले ने ही नेपोलियन सरीखे  तानाशाह को यह कहने की हिम्मत की थी कि मुझे सौर प्रणाली का मॉडल रखने में ‘उसकी’ कोई जरूरत नहीं है। इस बहस का एक परिणाम तो यह निकला कि यह बहस बहुत से बौद्धिकों (विज्ञान सम्मत) को निगल गई। इसके समानांतर यह भी रहा कि बहुत से बौद्धिक अस्तिकों ने विज्ञान की बौद्धिक उपलब्धियों का लोहा माना व अपनी आस्था संबंधी मान्यताओं को ढीला किया।बौद्धिकों की एक धारा इन दोनों के बीच समन्वय करने की कोशिश भी कर रही थी। लेकिन विज्ञान ने इस धारा का कभी स्वागत नहीं किया। विज्ञान को यह कभी मंजूर नहीं हुआ। क्योंकि विज्ञान ने स्पष्ट रूप में प्रकृति एवं भौतिकवादी होने की घोषणा की हुई थी। विज्ञान कठोरतापूर्वक नास्तिकों के खेमे का प्रतिनिधित्व करती रही। अंतरिक्षभौतिकी ,जीव विज्ञान, न्यूरो विज्ञान आदि क्षेत्रों में होने वाली खोजों से इसे संबल मिला है। इन क्षेत्रों की खोजों के दौरान विज्ञान को कोई ऐसा सबूत या शंका नहीं मिली जिससे उन्हें आस्तिकता का मुंह ताकना  पड़ा हो। दर्शन व इतिहास ने भी इसका समर्थन किया।

प्राकृतिक चयन में विकासवाद का सिद्धांत तमाम सीमाओं के बावजूद स्वयं में ही ‘उसकी’ सत्ता को नहीं स्वीकारता। इस खोज का आस्था के साथ कोई समझौता नहीं हो सकता। बिशप  विलबरफोर्स व वैज्ञानिक हक्सले की बहस के बाद तो आस्था का दर्शन वैसे ही बैक फुट पर चला गया था। प्राकृतिक चयन में उसकी दखलअंदाजी का कोई मतलब नहीं। प्राकृतिक चयन में न किसी उद्देश्य की बात है और न ही किसी अंतिम लक्ष्य की बात। यह तो प्रकृति में होने वाले संयोगों का परिणाम है। यह कोई सचेतन कार्रवाई तो है नहीं। आस्तिक दर्शन के मूल में विकासवाद की अवधारणा ही नहीं है। उत्पत्ति के सिद्धांत पर आस्तिकों द्वारा बताए गए तमाम विधान एक के बाद एक निरस्त होते गए हैं। वे किन्हीं भी तार्किक पैमानों पर खड़े नहीं रह सके हैं।

यह सही है कि आस्तिक दर्शन भी शून्य से तो नहीं निकला। यह भी अपना एक दार्शनिक धरातल रखता है। इसकी दृष्टि में यह काम भी कर रहा है। कांट के दर्शन के बाद यह धरातल कुछ कमजोर तो पड़ा है। इसकी बहस/ तर्क कमजोर पड़े हैं ।कुछ व्यक्ति स्वयं ही मान बैठते हैं कि हम जो सोच रहे हैं या मस्तिष्क में जो कुछ घटित हो रहा है वह जरूर अपारदर्शीय होगा। वे इसी प्रकार की दलीलों के माध्यम से ‘उस’ तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं। लेकिन आधे से ज्यादा दार्शनिकों का मानना है कि यह सब चिंतन प्रक्रिया पदार्थ ही है। मस्तिष्क एक पदार्थ संरचना है( बेशक बेहद जटिल)। और सोचना इसका प्रकार्य है। अब यदि यह बात हम मान लें तो  ‘उसके’ बारे में अधिकांश बहस तो खुद ही निरस्त हो जाएगी। न्यूरो विज्ञान की खोजें ऐसा ही कहती हैं। केवल कुछ दार्शनिक जो समन्वय की बात के तरफदार हैं वे सोचने की प्रक्रिया (चिंतन) को प्राकृतिक अधिभूतवाद तक ले जाते हैं। पहली बात तो यह है कि ऐसा कुछ है नहीं, और यदि यह मान भी लिया जाए तो यह प्राकृतिक अधिभूतवाद अतिप्राकृतिक की श्रेणी में आता है ।और अति प्राकृतिक में यथार्थ के लिए कोई जगह नहीं है। वे इसी अतिप्राकृतिक को ईश्वर की अवधारणा तक ले जाते हैं। इस प्रकार यह यथार्थ की श्रेणी में तो नहीं माना जाएगा।

कुछ बहस करने वाले नैतिकता का स्रोत धर्म (ईश्वर) में मान लेते हैं। इस प्रकार आस्तिक नैतिकता की अवधारणा को उसकी इच्छा उसका विधान उसका निर्णय आदि समझते हैं। नैतिकता का अध्ययन करने वाले बहुत से दार्शनिक इस खेमे में आकर खड़े होते हैं। लेकिन एथिक्स का दर्शन मोरालिटी को हजारों वर्षों के सामाजिक विकास के जरूरी उत्पादन के रूप में समझता है। एथिक्स स्वयं अपने लिए कभी भी दैवीय धरातल की तलाश नहीं करती। इस प्रकार मोरालिटी का दैवीय अधिकार स्वयं खारिज हो जाता है। यह सामाजिक विकास की यहां तक की सामाजिक अस्तित्व की एक मूलभूत जरूरत है। इसका निर्धारण स्वयं मनुष्य इसी समाज में रहकर करते हैं। यह शाश्वत भी नहीं है।

यथार्थ में वस्तुएं/ घटनाएं अपने अस्तित्व के निशान छोड़ती हैं। ये भले ही अपनी अवस्था बदल लें। काफी करीब तक इस बात के सबूत मिले हैं कि लगभग 13.8 अरब वर्ष पूर्व एक महा विस्फोट हुआ था। पृथ्वी का जन्म इसी के मलबे से उपजे पदार्थ से लगभग 4.5 अब वर्ष पूर्व हुआ लगता है। लगभग तीन अरब वर्ष पूर्व जीवन की संभावनाएं बनी है। इन सब घटनाओं के पीछे कोई अलौकिक कारण नजर आता नहीं। यह सब संयोगों का परिणाम है जो अनिवार्यतय बने हैं।दूसरी ओर ग्रन्थों में वर्णित कहानियाँ जो उत्पत्ति की बात कहती हैं उनके सबूत क्या? आदम, हव्वा, नोहा ,अब्राहम, मोजीस इत्यादि यहां हुए हैं। कोई ब्रह्मांडीय बाढ़ यहां आई थी। यहूदियों को मिस्र में कैद किया गया था। जादू से समुद्र पैदा हो गए। एक इशारे से समुद्रीय  तूफान रुक गया। ईसा मसीह पुनर्जीवित हो गए। ऐसी कहानियाँ बाइबल में आई हैं। अन्य शास्त्र भी ऐसी घटनाओं के वर्णन से भरे पड़े हैं। इन सब के पीछे कोई सिलसिलेवार तर्क नहीं है। ये सब यही सिद्ध करते हैं कि इनका सुझाया गया ईश्वर अतार्किक व असंभव है।

ब्रह्मांड के बारे में विज्ञान की अवधारणाएं बेशक त्रुटिहीन न हो लेकिन है प्राकृतिक व्याख्याएं। स्टीफन हॉकिंग अपनी पुस्तक द ग्रैंड डिजाइन में तरकीबवार यही बताते चलते हैं कि ब्रह्मांड के अस्तित्व के लिए कोई अलौकिक कारण या उसकी मेहरबानी नहीं नजर आती। सभी वैज्ञानिक मॉडल (हाकिंग, लिंडे क्वांटम सिद्धांत, ब्लैक होल आदि -आदि) इस ब्रह्मांड के अस्तित्व के लिए किसी अलौकिक कारक ईश्वर को थोड़ा सा भी जिम्मेवार नहीं ठहराते।

अब कुछ दलीलें दूसरे पक्ष की भी लेते हैं। बेशक दलीलें अंतिम निर्णायक नहीं हैं। इस पक्ष की हिमायत माननीय हमजा एंड्रिया जॉरजिस ने इस प्रकार की है। आप भी विज्ञान के दर्शन के हवाले से अपनी बात शुरू करते हैं। इनका कहना है कि क्यों विज्ञान नास्तिकता की ओर नहीं जाता। आप दो प्रश्नों पर केंद्रित अपनी बात कहते हैं। नंबर एक, क्या विज्ञान नास्तिकता की ओर ले जाता है? नंबर दो, क्या विज्ञान ने धर्म को मृत कर दिया है? पहले प्रश्न की व्याख्या श्री हमजा इस प्रकार करते हैं। वे इसके लिए विज्ञान पर ही चार प्रश्न उठाते हैं। पहला,क्या विज्ञान ही सच बताने का एकमात्र पैमाना है? दूसरा ,क्योंकि विज्ञान काम करता है तो क्या आवश्यक रूप से इसके निष्कर्ष सही व अंतिम होंगे? तीसरा ,क्या विज्ञान इस ईश्वर के प्रश्न के  उत्तर पर सुनिश्चित है कि वह नहीं है। चौथा, क्या विज्ञान प्राकृतिक दार्शनिक मान्यताओं की व्याख्या  अपने ही अनुसार नहीं करता?

विज्ञान से जुड़े भी अनेक दार्शनिक ऐसे हैं जो यह घोषणा करते हैं कि विज्ञान नास्तिकता की ओर नहीं जाता है। श्रीमान Hugh Gauchका कहना कुछ इस प्रकार है। विज्ञान नास्तिकता का समर्थन करता है इसके पीछे जोश के अंक ज्यादा है जबकि तर्क के दृष्टि से अंक कम हैं। आप गंभीरता पूर्वक पूछते हैं कि जो ज्ञान प्रणाली( विज्ञान )अपनी विधि व प्रक्रिया में अवलोकनों पर निर्भर करती है वह इस बात से कैसे इंकार कर सकती है जो अवलोकनों में नहीं है या इसे परे हो सकता है क्योंकि विज्ञान ऐसे ही करता है। विज्ञान ऐसे मामलों पर या तो चुप रहे या ऐसे पुख्ता प्रमाण सुझाए जिससे यह सिद्ध हो कि उसका अस्तित्व है ही नहीं। अधिकांश वैज्ञानिक निष्कर्ष आगमन(Induction )  विधि की प्रकृति के होते हैं और इंडक्टिव विधियां कभी भी निश्चितता की ओर नहीं लेकर जाती।हालांकि विज्ञान केवल इसी विधि पर सीमित नहीँ है। इसका अर्थ यही निकलता है  जिसे वैज्ञानिक समुदाय तथ्य कहते हैं जरूरी नहीं कि वह अंतिम सत्य ही हो। विज्ञान अपनी प्राप्तियां के बारे में कभी भी धर्म जैसी मोहर नहीं लगाता। बहुत से नास्तिक व विज्ञान से जुड़े व्यक्ति तपाक से धर्म -ग्रंथो का मजाक उड़ाने लगते हैं। ऐसा प्राय तब होता है जब विज्ञान बनाम धर्म की बहस होती है। इस बहस का समापन इतना आसानी से होता नहीं जितना आसानी से नास्तिक लोग कर देते हैं। विज्ञान इस प्राकृतिक विश्व की एक तार्किक व्याख्या का अनुप्रयोग( Application) है। विज्ञान क्यों के प्रश्नों का उत्तर बहुत कम देता है हां वह यह जानने की कोशिश जरूर करता है कि यह विश्व काम कैसे करता है। धार्मिक ग्रंथ भी कुछ प्रश्नों के उत्तर तो देते ही हैं। उनके निष्कर्ष विज्ञान के निष्कर्ष से मेल नहीं खाते। यदि मेल नहीं खाते हैं तो इसमें इतना ज्यादा विवाद क्यों ? एकदम से ग्रन्थों को नकारने का क्या मतलब ? ग्रन्थों को गलत कहने का फैसला विज्ञान कैसे कर सकता है? इतिहास गवाह है यहां तक की विज्ञान का इतिहास भी की विज्ञान ने अपने निष्कर्षों को बहुत बार बदला है। ग्रंथ तो इस बात को विज्ञान विरोधी कभी कहते नहीं। आप कल्पना कर सकते हैं कि यदि वैज्ञानिकों को अपने निष्कर्ष को बदलने की इजाजत न होती तो विज्ञान इतनी तरक्की कर ही नहीं सकता था। अर्थात कुछ भी नहीं। विज्ञान भी शाश्वत तथ्यों का संग्रह कभी नहीं हो सकता।

धार्मिक ग्रंथो के पक्ष में भी कुछ अच्छे तर्क मिल सकते हैं। ग्रंथ तो हमेशा से मनुष्य के ज्ञान को सीमित बताते रहे हैं। सन 1950 (लगभग) से पहले तक अधिकांश भौतिकविद आइंस्टीन सहित इस ब्रह्मांड को शाश्वत मानते रहे हैं ( Steady State)। तब तक के प्राप्त आंकड़े इसी बात का समर्थन करते थे। कुरान इस ब्रह्मांड की शुरुआत मानता है लेकिन विज्ञान के विकास ने विशाल दूरदर्शियों के माध्यम से इस ब्रह्मांड को बिग बैंग तक ला खड़ा किया ( ब्रह्मांड की शुरुआत)।  कुरान तो कहता है कि सूर्य का अपना वृताकार पथ है। Quran 21 :33 It is He who created the night and the day and the Sun and the Moon,all of them floating in an orbit .विज्ञान ने तो इसे बहुत बाद में माना है।  कुरान ने यह भी दावा कब किया है कि वह विज्ञान की पुस्तक है। कुरान प्राकृतिक घटनाओं की विस्तृत व्याख्या नहीं करती। इसका मुख्य फोकस इस बात पर है कि प्राकृतिक विश्व द्वारा अधिभूतवाद और बौद्धिकता को उजागर कैसे किया जाए। ऐसे ग्रँथों का उद्देश्य वैज्ञानिक विस्तार तक जाना नहीं है। व्याख्या समय आने पर बदल जाया करती है। मुख्य बात यह है कि प्राकृतिक घटनाओं में इतनी ज्यादा शक्ति ( गहराई )व बुद्धिमता है कि वह समय अनुसार यथार्थ होती है इसलिए विज्ञान व धार्मिक ग्रन्थों के बीच टकराव से बचा जाए। वैज्ञानिक निष्कर्ष को एक व्यवहारिक कार्य करने वाले मॉडल के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। यदि विज्ञान के निष्कर्ष धार्मिक ग्रन्थों के निष्कर्ष से मेंल नहीं खाते हैं तो विज्ञान इन्हें खारिज भी न करे  ।इसी तरह विज्ञान के निष्कर्ष को भी नहीं नकारना चाहिए। यह आपका बौद्धिक अधिकार है कि आप किसे माने या दोनों को। मानव सभ्यता के इतिहास में ईश्वर की संकल्पना इतनी महत्वपूर्ण है कि इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। चाहे यह कल्पना ही हो कि वह ब्रह्मांड का रचयिता है, यह हमारा ध्यान आकर्षण तो करेगा ही। आदर्शवाद दर्शन का एक महत्वपूर्ण  हिस्सा है। कितने ही विचारकों/ दार्शनिकों ने हजारों वर्षों का अध्ययन इस बात पर लगाया है। बेशक वे तार्किक रूप से पूर्ण रूप से सहमत न भी हुए हों। जो गुणधर्म ईश्वर के साथ जोड़े जाते हैं उनकी छाप बेशक स्पष्ट नजर नहीं आती (अवलोकनों में ) लेकिन यह बहस का मुद्दा तो रहेगा ही।

     (लेखक हरियाणा के वरिष्ठ विज्ञान लेखक एवं विज्ञान संचारक हैं तथा हरियाणा विज्ञान मंच से जुड़े हैं )

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