डॉ अली इमाम खां
यह भारतीय संविधान का 75 वां वर्ष है, जिसे साइंस फार सोसायटी झारखंड ने वैज्ञानिक चेतना वर्ष के रूप में मनाने का फैसला किया है। संविधान ने वैज्ञानिक मानसिकता के विकास को नागरिकों का मौलिक कर्तव्य घोषित किया है। जन जन तक विज्ञान पहुंचाने एवं लोगों में वैज्ञानिक, लोकतांत्रिक चेतना के विकास से ही संभव होगा तर्कशील, विज्ञान सम्मत, समतामूलक, विविधतापूर्ण आधुनिक एवं आत्मनिर्भर भारत का निर्माण। ऐसे में देश के महान वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस को याद करना बेहद महत्वपूर्ण है। मौजूदा झारखंड ( तत्कालीन बिहार ) जिनका कार्यक्षेत्र रहा था तथा यहां के गिरिडीह स्थित अपने घर पर ही उन्होंने अंतिम सांस ली थी। प्रस्तुत है ” जगदीश चंद्र बोस की विरासत एवं आत्मनिर्भर भारत के निर्माण का सपना ” विषय पर डॉ अली इमाम खां का महत्वपूर्ण आलेख, जिसे अद्यतन कर पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है।(संपादक)
भारत में वैज्ञानिक आविष्कार और अनुसंधान का इतिहास बहुत ही पुराना है. भारतीय दर्शन का आधार केवल आध्यात्मिक नहीं है, बल्कि इसका बड़ा हिस्सा भौतिकवाद पर आधारित है. बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन, साँख्य दर्शन,कनाद, चार्वाक एवं चरक दर्शन ये सभी मानते हैं कि सृष्टि के केन्द्र में पदार्थ है. इसलिए भारतीय दर्शन परम्परा में भौतिकवादी दर्शन का एक विशेष स्थान है जो सृष्टि, ब्रह्माण्ड, जगत की संरचना और उसकी अंत:क्रियाओं की व्याख्या भौतिक आधार पर करता है. भारतीय दर्शन की यह भौतिकवादी धारा अलग- अलग समय में अलग- अलग दिशाओं में अलग- अलग गंतव्य की ओर प्रवाहमान रही है. इस दार्शनिक विरासत में प्रश्न करने पर बल दिया गया है, तर्क, बुद्धि, विवेक के आधार पर सच्चाई को जानने, जाँचने- परखने, समझने और मानने पर ज़ोर दिया गया है. भारतीय दर्शन की यही भौतिकवादी धारा हमारी वैज्ञानिक विरासत का निर्माण करती है. इसी धारा ने प्रकृति के रहस्यों को जानने और ज्ञान का मानक तय करने के लिए प्रेरित किया. यही कारण है कि खगोल शास्त्र, गणित, ज्यामिति, त्रिकोणमिति, चिकित्सा एवं औषधि के क्षेत्रों में हमारी उपलब्धि सराहनीय रही है.
इस प्रसंग में ‘ आर्यभट ‘ का नाम बहुत ही महत्वपूर्ण है. बाद के समय में ज्ञान प्राप्त करने का विशेषाधिकार एक ख़ास समुह के पास सीमित कर दिया गया और इस प्रकार शिक्षा एवं ज्ञान को विशेष व्यक्तियों तक सीमित एवं संकुचित किया गया. मेहनतकश उत्पादन कर्ता शिक्षा एवं ज्ञान के दायरे से जबरन बहिष्कृत कर दिये गये. परिणामस्वरूप सृजन प्रक्रिया न केवल बाधित हुई बल्कि बौद्धिक जड़ता का शिकार हुई, जिसने वैज्ञानिक जड़ता को जन्म दिया. इस वैज्ञानिक जड़ता ने सामाजिक जड़ता को सुदृढ़ किया. आधुनिक भारत में यह जड़ता टुटनी शुरू हुई और हमारे बीच से रामानुजम, सी. वी. रमण, जगदीश चन्द्र बोस, एस. चन्द्रशेखर, जे. एच. भाभा, महालनोबिस, साराभाई, सतीश धवन, ए. पी. जे. अबुल कलाम, भटनागर जैसे वैज्ञानिक ने अपने अविष्कार एवं अनुसंधान से इस विरासत को आगे बढ़ाया और समृद्ध किया. और यह प्रक्रिया आज भी जारी है. इसके लिए हमें तर्कशील भारतीयों की ज़रूरत है जिसके लिए अकादमीय स्वत्रंता एवं स्वयत्तता आवश्यक शर्त है ताकि पब्लिक डिबेट, जनसंवाद एवं विमर्श को मज़बूत किया जा सके, उसे आगे बढ़ाया जा सके. विचारों के टकराव, आदान-प्रदान के लिए खुला स्पेस उपलब्ध हो.
इसी क्रम में हमें जगदीश चन्द्र बोस की विरासत पर बात करना ज़रूरी हो जाता है. जगदीश चन्द्र बोस की विरासत समृद्ध वैज्ञानिक विरासत के रूप में हमारे सामने है. उनकी विरासत मौलिक एवं स्तरीय वैज्ञानिक खोज और अनुसंधान की है. मानक शोध संस्थान की स्थापना उनकी विरासत का अगला चरण है. उनकी विरासत विज्ञान को देशप्रेम और देशवासियों के हित से जोड़ने वाली है ताकि विज्ञान और वैज्ञानिक शोध का इस्तेमाल देश के निर्माण और आत्मनिर्भर विकास के लिए हो सके. जगदीश चंद्र बोस की खोज का दायरा व्यापक है जो भौतिकशास्त्र से होता हुआ वनस्पतिशास्त्र तक जाता है. एक तरफ़ रेडियो कम्युनिकेशन में उनकी खोज तो दूसरी ओर वनस्पतिशास्त्र में उनका अनुसंधान उनकी वैज्ञानिक विरासत का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है. यह इंटरडिसीप्लिनरी अध्ययन और शोध को आगे बढ़ाने की विरासत है और आज भी वैज्ञानिकों को प्रेरित करती है और यह हिम्मत और हौसला देती है कि स्थानीय संसाधनों का सही इस्तेमाल करके वैज्ञानिक शोध के काम को आगे बढ़ाया जा सकता है.
आत्मनिर्भर भारत के निर्माण का सपना कोई नया ख़्वाब नहीं है. देश की आज़ादी की लड़ाई में यह सपना हमारी प्रेरक शक्ति था. राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर भारत के निर्माण का संकल्प दोहराया. बुनियादी तालीम और ग्राम स्वराज का सपना इसी संकल्प का हिस्सा है. भारत के लोगों की ख़ुशहाली, उनकी तरक़्क़ी, लोकतांत्रिक व्यवस्था, संविधान, लोकतांत्रिक संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता एवं स्वयत्तता, लोकतांत्रिक तौर- तरीक़े और वैज्ञानिक चेतना एवं दृष्टिकोण तथा मानवीय संवेदना का सुदृढ़ीकरण इसी सपने का अटूट हिस्सा हैं. आज़ाद भारत में इस सपने को योजनाबद्ध तरीक़े से कार्यरूप देने का काम शुरू हुआ. परिणामस्वरूप पंचवर्षीय योजना, आइ. आइ. टी., इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, नेशनल प्रयोगशाला, आर. आई. टी., साईंस एकाडमी, विश्वविद्यालयों, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, विज्ञान शोध संस्थान की स्थापना की गई. इसी सपने को आगे बढ़ाने के लिए देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने वैज्ञानिक चेतना एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास पर ज़ोर दिया. आगे चलकर आणविक विज्ञान और स्पेस विज्ञान में महारत हासिल करने के लिए योजना और कार्यक्रम बनाये गये. हम आत्मनिर्भर भारत के निर्माण के सपने के रास्ते पर लगातार बढ़ते रहे हैं. इसके लिए भारत सरकार का सहयोग, संरक्षण और योगदान हमेशा मिलता रहा है. सरकार ने इसे अपने नागरिकों के प्रति ज़िम्मेदारी के तौर पर अपनी पाॅलिसी और कार्यक्रम का हिस्सा बनाया है. इसके लिए शैक्षणिक एवं शोध संस्थानों की स्वतंत्रता एवं स्वयत्तता पहली अनिवार्य शर्त है.
इस संदर्भ में हम आज की स्थितियों पर नज़र डालते हैं तो हमें अलग दृश्य ही नज़र आता है. आत्मनिर्भर भारत के निर्माण का सपना साम्राज्यवाद विरोध पर टिका हुआ था तथा परस्पर सहयोग और योगदान से आगे बढ़ाने का था. नव उदारवाद के उत्तर आधूनिक विमर्श के दौर में यह वित्तीय पूंजी, बाज़ारवाद और सीधे विदेशी निवेश के रहम- व- करम पर टिका हुआ है और यह एक गुणात्मक अंतर है.
इस सम्बन्ध में हमें दरपेश चुनौतियों की बात करना ज़रूरी जान पड़ता है. अंतर्राष्ट्रीय अकादमीये स्वतंत्रता सुचकाँक(ए.एफ.आइ.) के अनुसार भारत का सुचकाँक 0.352 है जबकि पुर्तगाल और उरेगुआ का 0.971, लाटिविया का 0.964, जर्मनी का 0.960 और पाकिस्तान का 0.554 है. भारत में अकादमी स्वतंत्रता का अंदाज़ा इससे होता है और अकादमी स्वतंत्रता के अभाव में मौलिक एवं स्तरीय शोध बहुत कठिन है. रिपोर्ट में ए. एफ. आई. के कम होने के कारण को भी स्पष्ट किया गया है जिसे समझने की ज़रूरत है. इन कारकों में प्रमुख हैं संस्था की स्वायत्तता में कमी, कैम्पस की विश्वसनीयता में कमी, अकादमीय एवं सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कमी, अकादमीय स्वतंत्रता की संवैधानिक सुरक्षा का अभाव हैं. इसलिए हमारे शोध संस्थान और विश्वविद्यालय को और अधिक अकादमी स्वतंत्रता प्रदान करना ज़रूरी है.
भारत में रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट में निवेश सकल घरेलू उत्पाद का 0.5- 0.6% है जबकि युनाइटेड स्टेट्स आॉफ़ अमेरिका और चीन में 2% से अधिक तथा इसराइल में 4% से अधिक है. शोध पत्र का प्रकाशन और पेटेंट सम्बन्धी आँकड़े भी उत्साह वर्धक नहीं जान पड़ते हैं. व्योरा इस प्रकार है.
देश शोध पत्र प्रकाशन पेटेंट
भारत 0.7%(1% से कम) 2053
यु.एस.ए. भारत से दुगना 57840
चीन भारत से तीन गुना 58990
शोध पत्र का 1% प्रकाशन अच्छा माना जाता है. भारत को अभी इस लक्ष्य को प्राप्त करना बाक़ी है. इस प्रकार शोध कार्य सम्बन्धी गतिविधियों में भारत युनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका, चीन और यूरोपीय यूनियन से पीछे है. यह तब है जब साइंस टेक्नोलॉजी एण्ड इनोवेशन ( एस. आई. टी.) पाॅलिसी 2013 में 2015 तक दुनिया के पाँच टाॅप वैज्ञानिक देशों में स्थान बनाने का लक्ष्य रखा गया था जिसे एस. आई. टी. पॉलिसी 2020 में पुनर्निर्धारित करते हुए दुनिया के तीन वैज्ञानिक देशों में स्थान बनाने का लक्ष्य रखा गया है. अन्य लक्ष्य में हर पाँच वर्ष में रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट के सकल खर्च और निजी कम्पनियों के योगदान को दुगना करना है. साथ ही कुलवक्त़ी शोधकर्ताओं की संख्या को दुगना करना. अभी तक पूर्व निर्धारित लक्ष्य से काफ़ी पीछे हैं. इसे ही राजनीति विज्ञान की शब्दावली में इनवर्स रेलिवेंस ,अर्थात घोषणायें बहुत ज़्यादा और आपूर्ति बहुत ही कम, कहा जाता है. हमें इससे उबरने की अविलंब ज़रूरत है और इसके लिए राजनीतिक दूरदृष्टि और मज़बूत इच्छा शक्ति ज़रूरी है. लेकिन इसके उलट हमें पाॅलिसी में समाज और विज्ञान के बीच जुड़ाव का अभाव नज़र आता है.
यही वजह है कि राष्ट्रीय कामधेनु आयोग और काऊ साइंस पाॅलिसी का हिस्सा है. इसकी एक झलक राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत शोध के लिए नेशनल रिसर्च फाउंडेशन के गठन में नज़र आती है जहाँ शोध की गतिविधियों का अति केन्द्रीकरण और उसे प्रशासनिक हस्तक्षेप के दायरे में लाना है. कई मदों में रिसर्च की फ़ंडिंग में कटौती की गई है ख़ासकर विश्वविद्यालयों में शोध गतिविधियों के लिए. यह चिंता का विषय है. इसके लिए केन्द्र सरकार के साथ- साथ राज्य सरकारों को भी शोध के लिए अपने राज्य में सक्रिय गतिशील पाॅलिसी अपनाने की ज़रूरत है. शोध कार्य के सकल घरेलू उत्पाद का 2% ख़र्च करने की ज़रूरत पिछले समय से कहीं ज़्यादा है. यहीं पर पाॅलिसी में जन हस्तक्षेप और जनभागीदारी को सुनिश्चित करना ज़रूरी है ताकि हम अपने स्वनिर्धारित लक्ष्य को प्राप्त कर सकें. शोध संस्थानों का जनतांत्रिकरण बेहद ज़रूरी जन सरोकार का हिस्सा है. यहीं से आत्मनिर्भर भारत के निर्माण का सपना साकार हो सकता है.
( डा. अली इमाम ख़ाँ , प्रमुख शिक्षाविद एवं विज्ञान संचारक हैं तथा साइंस फार सोसायटी, झारखंड के अध्यक्ष हैं )