विकास शर्मा

हिंदी देश के ऐसी भाषा है जिसे उन राज्यों को लोग भी बोलते हैं जिनकी स्थानीय भाषा कुछ और ही है. यह ऐसी भाषा के तौर पर विकसित हुई है जिसने देश के लोगों को जोड़ने का काम किया है. देश के बहुत बड़े हिस्से में बोली जाने वाली इस भाषा को आज भी देश की राष्ट्रीय भाषा का दर्जा नहीं मिला है. कुछ इलाकों में इसका भारी विरोध होता है और कहा जाता है कि इसे थोपा जा रहा है. यह वास्तव में समझने की बात है आखिर इस भाषा का विरोध क्यों होता है.

हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़े के मौके पर एक बार फिर देश में हिंदी भाषा को लेकर देश में तरह तरह के कार्यक्रम हो रहे हैं. जहां हिंदी को उसका यथोचित सम्मान दिलाने के लिए हिंदी दिवस को एक अवसर के तौर पर देखा जाता है तो वहीं देश की इस सबसे व्यापक भाषा को अभी तक देश की राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिलाने के प्रयासों पर भी चिंतन मनन होता है. लेकिन जब भी हिंदी को औपचारिक तौर से देश की राष्ट्रीय भाषा बनाने पर विचार हुआ है, तब-तब उसका विरोध करने वाले भी खड़े हुए हैं. आखिर ऐसा क्यों होता है यह जानना भी जरूरी है.

देश के बहुत सारे हिस्सों में है हिंदी
भारत में हिंदी भारत में बहुत ही व्यापक तौर पर बोली जाने वाली भाषा है. इसकी बहुत सी विविधताओं भरी बोलियां और स्वरूप हैं. मूल रूप से हिंदी को इंडोयूरोपीय भाषा परिवार की इंडोईरानी शाखा के इंडो आर्यन समूहकी भाषा माना जाता है. यह भारत के बहुत सारे क्षेत्रों में आधिकारिक भाषा के तौर पर उपयोग में लाई जाती है.

संविधान सभा में हुई थी बहस
आजादी की लड़ाई के समय से ही हिंदी को उसका यथोचित सम्मान दिलाने के प्रयास होने लगे थे.  संविधान का निर्माण कर रही संविधान सभा के सामने यह संकट था कि अंग्रेज जिस तरह से अपना प्रशासन देश में छोड़ कर जा रहे हैं कही ऐसा ना हो उसमें हिंदी भाषा उलझ कर रह जाए. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बेशक देश में किसी राष्ट्रीय भाषा का फैसला नहीं हुआ, लेकिन राजकीय भाषा के तौर पर हिंदी ने अपना एक मुकाम हासिल किया.

दक्षिण में नहीं पहुंच सकी हिंदी
हिंदी विरोध का भी अपना एक इतिहास है एक पृष्ठभूमि है. सबसे पहले तो जिस तरह से हिंदी देश के दूसरे राज्यों में पहुंच सकी, वह तमिलनाडु और केरल में नहीं पहुंच सकी. वहीं अंग्रेजी दक्षिण भारत में समुद्री मार्ग से इन राज्यों में आसानी से पहुंचे और अपनी पैठ बनाने की उतनी ही कोशिश करते रहे जितनी कि उत्तर भारत में इसलिए अंग्रेजी औपचारिक तौर पर आधिकारिक भाषा कर दर्जा बन गई.

जब हिंदी को किया गया अनिवार्य
1937 में जब सीराजगोपालाचारी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने तमिलनाडू के स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य करने का फैसला किया था. उस फैसले ने तब तमिलनाडू में हिंदी विरोधी आंदोलन की शुरूआत की थी जो तीन साल तक चला था. आजादी के समय संविधान सभा में राजभाषा  बनाने के लेकर बहस हुई थी और हिंदी के देश की आधिकारिक भाषा बनाने की बात चल ही रही थी कि एक बार फिर दक्षिण के राज्यों खास तौर से तमिलनाडु में विरोध शुरू हो गया.

1950 और उसके बाद
हालात की नजाकद देखते हुए फैसला किया गया कि अगले 15 साल तक अंग्रेजी और अन्य भाषाएं देश की राजकीय भाषा बनी रहेगी और देश की आधिकारिक भाषा का फैसला किया जाएगा. लेकिन 1965 में एक बार फिर हिंदी का विरोध शुरू हुआ और संविधान में यथास्थिति बनी रहने दी गई. लेकिन जब भी केंद्र की ओर से भाषा को लेकर कोई कानून या प्रस्ताव आया हिंदी का विरोध होता रहा.

इन आंदोलनों की खास बात यही रही कि हर बार यह जताने का प्रयास किया गया कि हिंदी को तमिलों पर थोपा जा रहा है और हिंदी को तमिल संस्कृति के लिए खतरा बताया जाता रहा. वहीं हिंदी के पक्ष में दलील यह दी जाती है कि हिंदी की वजह से कोई भी संस्कृति कभी नष्ट तो दूर बल्कि खतरा तक नहीं हुआ. इसके उलट हिंदी ने संस्कृतियों को अपनाया है.

     (‘न्यूज़ 18 हिंदी’ के साभार )

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