डी एन एस आनंद

यह आजादी का 75 वां वर्ष है। विगत करीब सात दशकों में भी झारखंड की बदहाली में कोई खास फर्क नहीं आया है। प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण झारखंड 21 वीं सदी के ज्ञान विज्ञान के मौजूदा दौर में भी चरम अंधविश्वास के मकड़जाल में उलझा हुआ है। निश्चय ही इसके लिए लूट आधारित मौजूदा व्यवस्था के साथ ही, विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विसंगतियां विकृतियां भी जिम्मेदार हैं। क्या है राज्य में अंधविश्वास की मौजूदा स्थिति ? इसके कारण एवं निवारण पर प्रदेश सीपीएम ने एक तथ्यपरक अध्ययन रिपोर्ट जारी की है। प्रस्तुत है रिपोर्ट के महत्वपूर्ण अंश

झारखण्ड में डायन- बिसाही प्रथा : एक रिपोर्ट 
झारखण्ड राज्य अपने प्रकृति संसाधन के लिहाज़ से संपन्न राज्य है लेकिन यहाँ अंधविश्वास के कई रुप हमें देखने को मिलते हैं. इनमें प्रमुख हैं डायन- बिसाही, ओझा- गुणी, झाड़ फूंक का चलन. दूर- दराज़ के इलाक़ों में ख़ासकर ग्रामीण इलाक़ों में इसके अनेक रुप देखने को मिलते हैं. शिक्षा की कमी, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, वैज्ञानिक चेतना की कमी, ग़रीबी और पिछड़ापन इसके प्रमुख कारण हैं. डायन- बिसाही प्रथा के प्रचलन के केन्द्र में तांत्रिक पद्धति और तंत्र- मंत्र के प्रति विश्वास है. ओझा- गुणी एक व्यवसाय के रूप में विकसित हो चुका है और बाज़ार के हथकंडों का इस्तेमाल इसे बनाये रखने और बढ़ाने के लिए किया जाता है. यह महिलाओं ख़ासकर दलित/ आदिवासी महिलाओं के उत्पीड़न, उनकी हत्या और विधवाओं की ज़मीन- जायदाद हड़पने का आज़माया हुआ कारगर तरीक़ा है. ग़रीबी, अशिक्षा और अंधविश्वास का एक दूसरे से गहरा रिश्ता है. डायन समस्या कितनी भयावह और ख़तरनाक हो चुकी है, इसका अंदाज़ा इससे सम्बंधित आँकड़ों से पता चलता है. गैर सरकारी संस्था’ आशा ‘ द्वारा सर्वे के आधार पर 1991- 2000 में डायन के नाम पर हत्या सम्बंधी आँकड़े निम्नलिखित हैं.

क्रम संख्या ज़िला डायन हत्या
1. राँची 124
2. चाईबासा 109
3. गुमला 89
4. लोहरदगा 104
5. पलामू 38
6. जमशेदपुर 10
7. धनबाद 3
8. बोकारो 000
9. गढ़वा 17
10. चतरा 1
11. हज़ारीबाग़ 15
12. गिरिडीह 4
13. कोडरमा 8
कुल 522
‘ आशा ‘ ही के सर्वे के मुताबिक़ सबसे ज़्यादा हत्यायें 1991- 2012 के बीच हुईं. व्योरा निम्न है.

क्रम संख्या ज़िला हत्यायें
1. राँची 238
2. चाईबासा 178
3. लोहरदगा 138
4. गुमला 141
5. पलामू 61
कुल 756
कुछ और आँकड़े चौकाने वाले हैं.

पिछले पाँच साल का एन. सी. आर. बी. का आँकड़ा.
भारत 656
झारखण्ड 217
इसका सीधा मतलब यह है कि भारत में डायन हत्या के कुल मामले में एक तिहाई झारखण्ड से हैं.
इसी प्रकार 2015-2017 के आँकड़े इस प्रकार हैं.
वर्ष एन.सी.आर.बी. झारखंड पुलिस
2015 32 51
2016 27 45
2017 19 41
कुल 78 137
इस प्रकार दोनों सरकारी एजेन्सियों के आंकड़े में 59 का अंतर है जो चौंकानेवाला है. वैसे दोनों आंकड़े झारखण्ड में डायन के नाम पर हत्या के मामले में गंभीर स्थिति को बतलाते हैं. झारखण्ड पुलिस के मुताबिक़ 2011-2019 में 235 हत्यायें हुईं और 2014-2017 में 2835 मामले दर्ज किये गए.

2018 में सांसद संजीव कुमार द्वारा संसद में पूछे गये सवाल के जवाब में गृह राज्यमंत्री हंसराज अहिर का जवाब भी इस समस्या की भयावहता को समझने के लिए काफ़ी है. वर्ष संसद में जवाब एन.सी.आर. बी
2014 46 47
2015 51 32
2016 44 27
2017 42 19
कुल 183 125
दोनों संस्थानों का अंतर 55 जो कि काफ़ी बड़ा अंतर है. इस प्रकार सभी आँकड़े झारखण्ड में डायन के नाम पर हर महीने औसत 3-4 हत्या को दर्शाते हैं जो इस समस्या को मानव अस्तित्व के संकट के रूप में पेश करते हैं. ‘ आशा’ के सचिव अजय कुमार जयसवाल 1992 से अब तक झारखण्ड में डायन हत्या के 1800 मामले बतलाते हैं जो हर माह औसत पाँच हत्या का आँकड़ा बनता है. झारखण्ड में डायन प्रथा से सम्बंधित 2015-20 में कुल 4556 मामले सामने आये हैं जिनमें हत्या से संबंधित मामले 272 हैं. इनमें 215 महिलाओं की हत्या हुई है. सालाना व्योरा निम्न है.

वर्ष मामले
2015 818
2016 688
2017 668
2018 567
2019 978
2020 837
इन आँकड़ों के विशलेषण से पता चलता है कि झारखण्ड के विकसित उद्योग आधारित ज़िलों में डायन हत्या के मामले न्यूनतम हैं. यह भी दिलचस्प है कि इन्हीं ज़िलों में साक्षरता और शिक्षा की हालत भी बेहतर है. वैसे इलाक़े जो आदिवासी सघन ग्रामीण इलाक़े हैं, वहाँ डायन प्रथा और डायन हत्या के मामले बहुत ज़यादा हैं. कोलहान कमिश्नरी इस समस्या से सबसे ज़्यादा ग्रसित है और ‘ हो ज़ाति’ की महिलायें सबसे ज़्यादा पीड़ित हैं.

‘ एसोसिएशन फॉर एडवोकेसी एण्ड लीगल इनिशिएटिव’ की रिपोर्ट भी इसकी पुष्टि करती है. इसके अनुसार डायन- बिसाही की शिकार होने वाली महिलाओं में 35% आदिवासी और 34% दलित हैं. और यही समाज शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं में बहुत पीछे तथा ज़्यादा ग़रीबी एवं बेरोज़गारी का भी शिकार है. डायन- बिसाही के नाम पर उत्पीड़न और हत्या तथा ओझा- गुणी के द्वारा उपचार के दौरान शारीरिक, मानसिक एवं मनोवैज्ञानिक उत्पीड़न हिंसा के मामले बहुत कम दर्ज होते हैं और जो मामले दर्ज भी हुए उनमें सज़ा या तो नहीं होती है या फिर बहुत कम होती है. इस सम्बन्ध में विश्वसनीय आँकड़ों की काफ़ी कमी है. ऐसा समस्या के प्रति सामाजिक जागरुकता की कमी, पुलिस बल में ऐसे मामले को हैंडल करने के लिए प्रशिक्षण का अभाव और पूरी समस्या को सामाजिक संदर्भों में संपूर्णता में समझने में कमी और प्रशासन का ढुलमुल रवैया है.

डायन समस्या की गंभीरता को देखते हुए ‘ बिहार डायन प्रथा प्रतिषेध नियम’1999’ बनाया गया जिसमें डायन के नाम पर प्रताड़ित करने, डायन की पहचान करने के लिए उकसाने और महिला को हानि पहुंचाने, डायन की पहचान कर जादू- टोटका से इलाज करने और शारीरिक तथा मानसिक हानि पहुंचाने पर तीन महीने की जेल, या 1000 रूपये जुर्माना या दोनों का प्रावधान है. झारखण्ड अलग राज्य बनने के बाद ‘डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम’2001 बनाया गया. यह बिहार डायन प्रथा प्रतिषेध नियम’1999 का संशोधित रूप है. इसमें अलग- अलग अपराध के लिए अलग- अलग सज़ा का प्रावधान है. सभी मामले में यह संज्ञेय अपराध की श्रेणी में आता है. इसके तहत डायन की पहचान करने वाले को 3 महीने की जेल या 1000 रूपये जुर्माना या दोनों का प्रावधान है.

डायन के नाम पर प्रताड़ित करने पर 6 महीने की जेल या 2000 रूपये का जुर्माना या दोनों का प्रावधान है. डायन की पहचान करने के लिए उकसाने और महिला को हानि पहुंचाने पर 3 महीने की जेल या 1000 रूपये जुर्माना या दोनों का प्रावधान है. डायन की पहचान कर जादू- टोटका से इलाज करने और शारीरिक तथा मानसिक हानि पहुंचाने पर एक साल की जेल या 2000 रूपये जुर्माना या दोनों का प्रावधान है. इस प्रकार झारखण्ड का क़ानून ज़्यादा व्यापक है पर कार्यान्वयन के एतबार से काफ़ी ढीलापन देखने को मिलता है. ऐसा पुलिस बल के प्रशिक्षण, ढाँचागत सुविधा और लोगों में वैज्ञानिक चेतना की कमी के कारण है.

‘ महाराष्ट्र जादू- टोना विरोधी क़ानून 2013’ में 7 साल की सज़ा का प्रावधान है. इसके पीछे ‘ महाराष्ट्र अंधश्रद्धा उन्मूलन समिति’ का अभियान, संघर्ष, आन्दोलन और डा.नरेन्द्र डाभोलकर की शहादत है. झारखण्ड में इस तरह के अभियान और सिविल सोसायटी के कारगर हस्तक्षेप की कमी रही है. झारखण्ड के राजनीतिक दलों द्वारा इस समस्या को राजनीतिक एजेण्डे के तौर अपनाने का रिकॉर्ड संतोषजनक नहीं जान पड़ता. कुछ संघटनों ने इस दिशा में काम किया है पर उन्हें जन समर्थन नहीं मिल सका है. साइंस फ़ाॅर सोसायटी, झारखण्ड ने इस दिशा में पहल किया है तथा जन जागरुकता अभियान चलाया है लेकिन अभी भी बहुत कुछ करना बाक़ी है.

डी एन एस आनंद
महासचिव, साइंस फार सोसायटी, झारखंड
संपादक, वैज्ञानिक चेतना, साइंस वेब पोर्टल, जमशेदपुर, झारखंड

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