रंजना त्रिपाठी
“संभवतः धरती पांच बार महाविनाश का सामना कर चुकी है, लेकिन इसके पहले आये महाविनाश के पीछे प्राकृतिक, भौगोलिक या खगोलीय कारक जिम्मेदार हुआ करते थे. ऐसा पहली बार हो रहा है कि धरती पर रहने वाली ही किसी प्रजाति के चलते धरती पर जीवन असंभव हो रहा है और नष्ट होने की तरफ बढ़ रहा है. हमारे पास समय कम है जबकि संरक्षण के बहुत सारे काम बाक़ी पड़े है, जल्दी नहीं की गयी तो फिर यह समय भी हाथ से निकल जायेगा.” प्रस्तुत है कबीर संजय की पुस्तक ‘ओरांग उटान’ से ज़रूरी अंश.
10 जुलाई 1977 को इलाहाबाद में जन्मे कबीर संजय का मूल नाम संजय कुशवाहा है. संजय की पढ़ाई-लिखाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई, जिसके चलते इलाहाबाद(प्रयागराज) के साहित्यिक-सांस्कृतिक माहौल का उन पर गहरा प्रभाव रहा है. कथाकार रवींद्र कालिया के संपादकत्व में इलाहाबाद से निकलने वाली साप्ताहिक पत्रिका ‘गंगा यमुना’ में उनकी पहली कहानी 1996 में प्रकाशित हुई. तब से ही उनकी कहानियां ‘तद्भव’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘पल प्रतिपल’, ‘लमही’, ‘कादम्बिनी’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘इतिहास बोट’ और ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ जैसी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. संजय कवि भी हैं और समय-समय पर उनकी कविताएं भी प्रकाशित होती रहती हैं.
संजय को उनके कहानी संग्रह ‘सुरखाब के पंख’ के लिए रवींद्र कालिया स्मृति सम्मान से पुरस्कृत किया जा चुका है. उनकी पुस्तक ‘वन्य जीवन पर चीता : भारतीय जंगलों का गुम शहज़ादा’ पाठकों के बीच काफी पसंद की गई. संजय सोशल माध्यम फ़ेसबुक पर वन्य जीवन और पर्यावरण पर लोकप्रिय पेज ‘जंगलकथा’ का भी संचालन करते हैं. वह साहित्य के अलावा सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में भी शामिल रहे हैं. फ़िलहाल, साहित्य और पत्रकारिता में पूरी तरह रमे हुए हैं.
संजय की पुस्तक ‘ओरांग उटान’ बेहद दिलचस्प पुस्तक है. गौरतलब है कि ओरांग उटान इंसानों के सबसे क़रीबी रिश्तेदारों में शामिल हैं. जंगल के ऊंचे-ऊंचे वृक्षों से ही उनके जीवन की डोर जुड़ी होती है. फ़िलहाल उनका रहवास मलेशिया और इंडोनेशिया तक सिकुड़ गया है. ख़ासतौर पर बोर्नियो और सुमात्रा के वर्षा वनों में. ज़मीन से 60-70 फ़ीट की ऊंचाई पर पेड़ों पर ही उनकी जीवन-क्रिया चलती है. ज़मीन पर आना उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं . फल उनके भोजन का सबसे बड़ा हिस्सा होता है. ओरांगउटान उन बुद्धिमान प्राणियों में से एक हैं, जो कुछ हद तक औज़ारों का भी प्रयोग करते हैं. मलय भाषा में ओरांग उटान का अर्थ जंगल में रहने वाला आदमी है, यानी हमारे यहां के बनमानुष जैसा कुछ. पॉम ऑयल की खेती के लिए वर्षा वनों को बुरी तरह से समाप्त किया जा रहा है, इसके साथ ही ओरांग उटान का जीवन भी ख़तरे में पड़ा हुआ है. ज़रूरत इस संकट को समझने की है. प्रस्तुक हैं पुस्तक से कुछ ज़रूरी अंश, जो इस बात पर से पर्दा उठाता है, कि क्या सचमुच एंथ्रोपोसीन से धरती का अंत हो जाएगा.
पुस्तक अंश : क्या एंथ्रोपोसीन से होगा धरती का अंत?- पृष्ठ 88
धरती पर कुदरत का एक सटीक और अचूक सिस्टम विकसित हुआ है. करोड़ों-अरबों सालों की प्रक्रिया में कुदरत ने हर सवाल का जवाब दिया है. हर नकारात्मक का सकारात्मक तैयार किया है. कुदरत असली रचयिता है. उसने ऑक्सीजन पैदा करने वाले पादप बनाये हैं, तो ऑक्सीजन ग्रहण करके कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ने वाले जीव-जन्तु भी बनाये हैं. धरती का पूरा पारिस्थितिक तन्त्र ऐसी ही अचूक और सटीक श्रृंखलाओं से बना है, जहां पर सभी जीवित चीज़ें एक-दूसरे पर निर्भर हैं. यहां पर जीवन एक-दूसरे को नियन्त्रित करता है. किसी को बहुत ज़्यादा बढ़ने से रोकता है. तमाम शिकारी जानवर खुरवाले जानवरों की संख्या को नियन्त्रित करते हैं. अगर वे मौजूद नहीं होते तो चरने वाले जानवरों की भारी तादाद शायद बहुत-सी वनस्पतियों के जीवन के लिए काल बन जाती. उन्हें पनपने से पहले ही चर कर ख़त्म कर देती. उनकी तादाद पर लगातार लगने वाली लगाम ने वनस्पतियों को बढ़ने का मौक़ा दिया.
कुदरत में कुछ भी फ़ालतू नहीं. हर कोई यहां पर, इस पारिस्थितिक तन्त्र में अपनी भूमिका अदा करता है. वो किसी पर निर्भर है. कोई उस पर निर्भर है. जहां पर भी यह कड़ी टूटती है, तमाम तरह की परेशानियां खड़ी हो जाती हैं. हज़ारों-लाखों सालों के विकास-क्रम में धरती के समक्ष ऐसे मौक़े आये हैं, जब प्रजातियां विलुप्त हो जाती रही हैं, लेकिन ऐसे तमाम मौकों पर प्रजातियों के विलुप्त होने की रफ़्तार इतनी धीमी होती थी कि उनकी जगह लेने के लिए दूसरी प्रजातियों को विकसित होने का मौक़ा मिल जाता रहा है. इस तरह से एक प्रजाति के विलुप्त होने से धरती को मिलने वाले घाव को भरने का मौक़ा मिलता रहा है. इसके अलावा, धरती की अभी तक की आयु में ऐसे भी मौके आये हैं जब लाखों प्रजातियां एक साथ नष्ट हो गयीं. महाविनाश हो गया. धरती पर गिरने वाले उल्कापिण्डों के चलते पैदा होने वाली गर्मी, ज्वालामुखियों के फटने से पैदा होने वाली गर्मी आदि के चलते सैकड़ों सालों तक धरती पर जीवन असम्भव हो गया. हिमयुग आया तो बहुत सारी प्रजातियां नष्ट हो गयीं, लेकिन महाविनाश के बाद धरती ने फिर से अपने घावों को धीरे-धीरे ठीक किया. हजारों सालों बाद दोबारा जीवन सम्भव हुआ. पुरानी प्रजातियां नष्ट हो गयीं, नयी प्रजातियों ने उनकी जगह ले ली और नया पारिस्थितिक तन्त्र काम करने लगा.
धरती इस समय भी एक ऐसे ही महाविनाश से गुजर रही है. इसमें बहुत सारी प्रजातियां तो विलुप्त हो भी चुकी हैं या विलुप्ति की कगार पर पहुंच गयी हैं. बड़ा खेद है कि इसे मानवयुग या ‘एंथ्रोपोसीन’ कहा जा सकता है. सम्भवतः धरती इससे पहले पांच बार महाविनाश का सामना कर चुकी है, लेकिन इसके पहले आये महाविनाश के पीछे प्राकृतिक, भौगोलिक या खगोलीय कारक जिम्मेदार हुआ करते थे. ऐसा पहली बार हो रहा है कि धरती पर रहने वाली ही किसी प्रजाति के चलते धरती पर जीवन असंभव हो रहा है और नष्ट होने की तरफ बढ़ रहा है.
पृष्ठ- 91
आईपीसीसी रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर के शहरों में ही दुनिया भर की आधी से ज़्यादा आबादी निवास करती है और इन शहरों पर ही जलवायु ख़तरे का असर सबसे ज़्यादा पड़ने के आसार हैं. जलवायु ख़तरे के चलते दुनिया की आधी से ज़्यादा आबादी के जीवन और आजीविका पर संकट मंडरा रहा है.
जलवायु परिवर्तन की मार सबसे ज़्यादा ग़रीबों, वंचितों, महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों आदि को झेलनी पड़ेगी. जलवायु परिवर्तन के चलते पैदा होने वाले ख़तरे किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करते हैं, लेकिन ग़रीब और वंचित लोगों के पास जलवायु परिवर्तन के चलते पैदा होने वाले ख़तरों का मुक़ाबला करने के लिए सबसे कम संसाधन होते हैं . इसके चलते प्राकृतिक आपदाओं का भी सबसे ज़्यादा शिकार वही होते हैं और प्राकृतिक आपदाओं के चलते होने वाले विस्थापन को भी उन्हें ही सबसे ज़्यादा झेलना होता है.
धरती के तापमान में होने वाली हर एक डिग्री की बढ़ोत्तरी भारी तबाही लाने वाली है. औद्योगिक युग की तुलना में पहले ही मानव जनित गतिविधियों के चलते वैश्विक तापमान में 1.09 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी हो चुकी है. अब अगर इसमें 1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी और होती है तो 14 फ़ीसदी प्रजातियों के सामने विलुप्त होने का ख़तरा पैदा हो जायेगा जबकि अगर वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी तीन डिग्री सेल्सियस तक की होती है तो 29 फ़ीसदी प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट छा जायेगा. वहीं, अगर यह बढ़ोत्तरी 4 डिग्री सेल्सियस तक की होती है तो 39 फ़ीसदी प्रजातियों के सामने विलुप्त होने का ख़तरा पैदा हो जायेगा.
रिपोर्ट बताती है कि जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाले कुछ प्रभाव तो ऐसे हैं, जिनके असर को दोबारा लौटाया या पलटा नहीं जा सकता है, जैसे कि अगर एक बार जो प्रजाति विलुप्त हो जाती है, तो दोबारा नहीं वापस लौटाया जा सकता है, चूंकि हर प्रजाति पारिस्थितिक तन्त्र में एक ख़ास भूमिका अदा करती है, इसलिए उस पारिस्थितिक तन्त्र को पहले जैसा बनाना संभव नहीं रहता .
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ज़ाहिर है कि एंथ्रोपोसीन आज दुनिया के सामने ऐसा ही ख़तरा बना हुआ है. चाहे ओरांग उटान हो, बोनोबो या चिपैंजी हो, हाथी हों या शेर, बाघ हो या चीता, डाल्फ़िन हो या फिर व्हेल और शार्क, कछुए हों या तितलियां और मधुमक्खियां- सभी कुछ के अस्तित्व पर संकट है. मुश्किल से एक हज़ार कॉरपोरेट कम्पनियां दुनिया भर के संसाधनों का दोहन कर रही हैं. उन्हें जंगल और वन्यजीवन से कोई सरोकार नहीं है. उन्हें बस हर साल अपने मुनाफ़े में होने वाली बढ़ोत्तरी की परवाह है. हम पहले ज़िक्र कर आये हैं कि कैसे बड़ी कॉरपोरेट कम्पनियों ने पॉम ऑयल के कारोबार के लिए ओरांग उटान के घर को तहस-नहस कर दिया है. वे ओरांग उटान को फसल नष्ट करने वाले कीड़ों जैसा समझते हैं. उनके लिए ओरांग उटान और उसके घर कोई मोल नहीं है, यानी वर्षावनों का.
हालांकि इस बात को सहज ही समझा जा सकता है कि वर्षावनों की तबाही प्रकारांतर से इंसानों की ही तबाही है. ओरांग उटान का जीवन नष्ट होने पर इंसान का भी जीवन नष्ट होता है. ज़रूरत अलग-अलग जीवन के अस्तित्व और उसके महत्व को समझने की है, ताकि नष्ट हो रहे इस जीवन को उसके नैसर्गिक रूप में बचाया जा सके.
एंथ्रोपोसीन के साथ ही आमतौर पर एंथ्रोपोसेंट्रिक नज़रिया भी लोगों के जीवन का मूलभूत दर्शन बना हुआ है, यानी सबकुछ के केंद्र में हम इन्सान हैं. हम कोई अजनबी पेड़-पौधा देखते हैं तो पूछते हैं कि यह किस काम आता है? क्या इसमें फल उगते हैं, जिसे हम खा सकें. क्या यह कोई जड़ी-बूटी है, जिससे हम अपना उपचार कर सकें? यानी सब कुछ के केन्द्र में हम ख़ुद को रखते हैं, लेकिन यह जीवन दर्शन ठीक नहीं है. इस धरती पर जो भी जीव-जन्तु और वनस्पति है, उसकी कोई न कोई भूमिका है. हो सकता है कि कोई पेड़- पौधा हमारे किसी काम का नहीं हो, लेकिन पारिस्थितिक तंत्र में उसकी बेहद महत्वपूर्ण भूमिका हो. इसलिए हमें मानव केंद्रित नज़रिए की बजाय पृथ्वी या पर्यावरण केंद्रित नज़रिए की बात करनी चाहिये. हमारे पास समय कम है जबकि संरक्षण के बहुत सारे काम बाक़ी पड़े है, जल्दी नहीं की गयी तो फिर यह समय भी हाथ से निकल जायेगा.