ललित मौर्या
दुनिया में बढ़ता प्रदूषण किसी अभिशाप से कम नहीं। यह एक ऐसी समस्या है जो न सरहदों को मानती है न बच्चे-बूढ़े या अमीर-गरीब के बीच भेद करती है। यह एक ऐसा अदृश्य दुश्मन है, जिससे संघर्ष की शुरूआत गर्भ से ही शुरू हो जाती है। इसकी पुष्टि एक बार फिर नए अध्ययन में हुई है।
इस नए अध्ययन से पता चला है कि प्रसव के दौरान मां के वायु प्रदूषण के संपर्क में आने से नवजात में जन्म के तुरंत बाद सांस संबंधी समस्याओं का जोखिम बढ़ जाता है। यह अध्ययन कनाडा स्वास्थ्य विभाग ‘हेल्थ कनाडा’ और पेन स्टेट कॉलेज ऑफ मेडिसिन से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है, जिसके नतीजे जर्नल एनवायर्नमेंटल हेल्थ पर्सपेक्टिव्स (ईएचपी) में प्रकाशित हुए हैं।
वैश्विक स्तर पर देखें तो शिशुओं में जन्म के तुरंत बाद होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं और मृत्यु का एक प्रमुख कारण सांस संबंधी परेशानियां होती हैं। लेकिन क्या दूषित हवा इसके लिए जिम्मेवार है और वो इसे कैसे प्रभावित करती है। इस बारे में बहुत ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है।
इस बारे में पेन स्टेट कॉलेज ऑफ मेडिसिन में पीडियाट्रिक्स के सहायक प्रोफेसर और अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता चिंतन गांधी का कहना है कि गर्भावस्था के दौरान माओं के वायु प्रदूषण के संपर्क में आने से उनके बच्चों में अस्थमा जैसी सांस से जुड़ी समस्याएं हो सकती हैं। यह समस्याएं लम्बे समय में सामने आती हैं।
लेकिन हमें यह नहीं पता था कि इसकी वजह से नवजात शिशुओं में जन्म के समय भी सांस से जुड़ी गंभीर समस्याएं पैदा हो सकती हैं। रिसर्च में यह भी सामने आया है कि विशेष रूप से प्रदूषण के महीन कणों (पीएम2.5) और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (एनओ2) के संपर्क में आने से यह जोखिम कहीं ज्यादा बढ़ जाता है। बता दें कि प्रदूषण के यह कण अन्य स्रोतों के अलावा वाहनों से उत्सर्जित होते धुंए, जंगल में लगती आग और सिगरेट के कारण भारी मात्रा में पैदा होते हैं।
अपनी इस रिसर्च में शोधकर्ताओं ने कनाडा स्वास्थ्य विभाग द्वारा किए एमआईआरईसी अध्ययन के आंकड़ों का विश्लेषण किया है। कई वर्षों तक चले इस अध्ययन में 10 कनाडाई शहरों की 2,001 गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य पर केमिकल्स के पड़ते प्रभावों का अध्ययन किया गया था। इनमें पीएम 2.5 और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (एनओ2) भी शामिल थे। यह महिलाएं हवा में मौजूद पीएम 2.5 और एनओ2 के कितने संपर्क में थी इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों और जमीन पर वायु गुणवत्ता को मॉनिटर करने के लिए बनाए स्टेशनों से प्राप्त आंकड़ों की मदद ली है।
बढ़ते प्रदूषण के साथ कहीं ज्यादा बढ़ जाती हैं समस्याएं
इसके बाद एक मॉडल की मदद से उन्होंने यह जानकारी हासिल की है कि यह महिलाएं गर्भवती होने के तीन महीने पहले से लेकर उसके बाद तीसरी तिमाही के अंत तक इन प्रदूषकों के कितने संपर्क में थी। रिसर्च के मुताबिक अध्ययन के दौरान महिलाएं 1.47 से 23.71 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर पीएम 2.5 के संपर्क में थी, जिनका औसत स्तर 8.81 माइक्रोग्राम प्रति घन दर्ज किया गया था। वहीं नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (एनओ2) के स्तर को देखें तो वो इस दौरान 1.72 से लेकर 53.1 भाग प्रति बिलियन (पीपीबी) के बीच था, जिसका औसत स्तर 18.02 पीपीबी रहा।
बता दें कि जहां अमेरिका की पर्यावरण संरक्षण एजेंसी ने पीएम2.5 के लिए नौ से दस माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (एनओ2) के लिए 53 पीपीबी का मानक तय किया है। हालांकि गांधी का कहना है कि “वास्तव में वायु प्रदूषण का कोई सुरक्षित स्तर नहीं है।”
इन आंकड़ों की मदद शोधकर्ताओं ने इस बात की जांच की है गर्भवती महिलाओं का वायु प्रदूषण के संपर्क में आना जन्म के तुरंत बात नवजात शिशुओं में सांस लेने में होने वाली परेशानी से कैसे जुड़ा है। उन्होंने सिर्फ इस बात की जांच नहीं की कि क्या बच्चों को सांस लेने में परेशानी हो रही है, बल्कि यह भी देखा कि यह कितना गंभीर था, जैसे कि क्या उन्हें ऑक्सीजन की जरूरत पड़ी थी या सांस लेने में मदद के लिए वेंटिलेशन या एंटीबायोटिक दवाओं की जरूरत पड़ी थी।
इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनसे पता चला है कि जो माएं पीएम2.5 के उच्च स्तर के संपर्क में आई थी उनके शिशुओं में सांस लेने से जुड़ी गंभीर समस्याओं का खतरा बढ़ गया था। इससे निपटने के लिए न केवल वेंटिलेशन मशीनों बल्कि एंटीबायोटिक दवाओं की भी आवश्यकता पड़ी थी।
इसी तरह चाहे वे महिलाएं गर्भावस्था से पहले या उसके दौरान प्रदूषण के संपर्क में आई थी, उनके बच्चों में यह समस्या दर्ज की गई थी। इसी तरह जो महिलाएं नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (एनओ2) के संपर्क में आई थी, उनके बच्चों में भी इसी तरह की दिक्कतें और एंटीबायोटिक दवाओं की आवश्यकता पड़ी थी।
रिसर्च में यह भी सामने आया है कि वायु प्रदूषण का स्तर चाहे कितना भी हो, शिशुओं में सांस लेने से जुड़ी समस्याएं बरकरार रहती हैं। वहीं प्रदूषण का स्तर बढ़ने से सांस लेने की गंभीर समस्याओं का खतरा बढ़ गया था। उनका कहना है कि जब माएं अधिक प्रदूषण के संपर्क में थी तो उनके बच्चों में सांस लेने में समस्याओं के गंभीर होने का खतरा उतना ज्यादा था।
हालांकि अपनी इस रिसर्च में शोधकर्ताओं ने इस बात की जांच नहीं की है कि कैसे यह प्रदूषक मां से बच्चे तक पहुंचते हैं। लेकिन जर्नल नेचर कम्युनिकेशंस में छपे एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि मां की सांस के माध्यम से ब्लैक कार्बन के कण उनके अजन्मे बच्चों (भ्रूण) तक पहुंच सकते हैं।
शिशुओं में स्वास्थ्य से जुड़ी अनगिनत समस्याओं की जड़ है प्रदूषण
भारत में नवजातों पर वायु प्रदूषण के पड़ते प्रभावों को लेकर किए एक अध्ययन से पता चला है कि भारत में ओजोन प्रदूषण का संपर्क जन्म के समय नवजातों के वजन में कमी की वजह बन रहा है। रिसर्च में यह भी सामने आया है कि इन प्रदूषक तत्वों की वजह से भ्रूण को इतना नुकसान पहुंचता है कि समय से पहले जन्म का खतरा बढ़ जाता है।
इसी तरह पीएम2.5 के स्तर में हर 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि जन्म के समय कम वजन होने के जोखिम में 11 फीसदी का इजाफा कर सकती है। इसी तरह इसकी वजह से नवजात के समय से पहले जन्म लेने का जोखिम भी 12 फीसदी बढ़ जाता है।
भारत में वायु प्रदूषण के प्रभाव से बच्चों की मृत्यु, गंभीर श्वसन संक्रमण, समय से पहले और मृत जन्म, स्टंटिंग, अनीमिया, एलर्जिक राइनाइटिस (हे फीवर) और दिमागी विकास जैसी बीमारियों के पुख्ता प्रमाण बढ़ रहे हैं।
रिसर्च में यह भी सामने आया है कि वायु प्रदूषण के चलते आंत के स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है। जीवन के पहले छह महीनों के दौरान सांस के जरिए शरीर में प्रवेश करने वाले प्रदूषक आंत के रोगाणुओं पर विपरीत प्रभाव डालते हैं, जिससे एलर्जी, मोटापा और मधुमेह का खतरा बढ़ सकता है, यहां तक कि दिमागी विकास पर भी इसका असर पड़ सकता है।
इसकी वजह से भूख, इम्यूनिटी और मनोदशा प्रभावित होती है। साथ ही बच्चे ह्रदय रोग, अस्थमा, टाइप 2 मधुमेह और अन्य पुरानी बीमारियों का शिकार हो सकते हैं।
इतना ही नहीं इस प्रदूषण के चलते बच्चा मृत तक पैदा हो सकता है। शोध यह भी दर्शाते हैं कि गर्भावस्था के दौरान प्रदूषण के संपर्क में आने से बच्चे में कई तरह की विकृतियां पैदा हो सकती है। इसकी वजह से न केवल बच्चे के फेफड़े कमजोर रह सकते हैं। साथ ही यह प्रदूषण उनकी मानसिक और बौद्धिक क्षमता को भी प्रभावित कर सकता है। इसकी वजह से बच्चों में याददाश्त कमजोर होने जैसे लक्षण भी देखे गए थे।
यह सबूत स्पष्ट तौर पर इस ओर इशारा करते हैं कि बढ़ता वायु प्रदूषण बच्चों के स्वास्थ्य के लिए गंभीर समस्याएं पैदा कर सकता है। ऐसे में इनसे निपटने के लिए न केवल ठोस नीतियों की जरूरत है, साथ ही इन नीतियों का कड़ाई से पालन किया जाए उसपर भी ध्यान देना जरूरी है। भारत में वायु प्रदूषण से जुड़ी अधिक जानकारी आप डाउन टू अर्थ के एयर क्वालिटी ट्रैकर से प्राप्त कर सकते हैं।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )