ललित मौर्या
क्या आप जानते हैं कि हम और आप जो कपड़े पहनते हैं, उनकी वजह से बड़े पैमाने पर प्लास्टिक कचरा पैदा हो रहा है। एक अनुमान के मुताबिक वैश्विक कपडा उद्योग सालाना दो करोड़ टन प्लास्टिक कचरा पैदा कर रहा है। इसमें से करीब 40 फीसदी कचरा वो है, जो उचित प्रबंधन न किए जाने से जल, जमीन, हवा, समुद्र, पहाड़ों को प्रदूषित कर रहा है। इसे “प्लास्टिक रिसाव” के रूप में भी जाना जाता है।
यदि पर्यावरण में हर साल लीक होने वाले इस कचरे की मात्रा को देखें तो वो करीब 83 लाख टन है। प्लास्टिक प्रदूषण का यह अनदेखा स्रोत पर्यावरण के लिए गंभीर समस्या बन चुका है। इसकी वजह से न केवल जलीय जीवन बल्कि इंसानी स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी तंत्र पर भी गहरा असर पड़ रहा है। वैज्ञानिकों ने आशंका जताई है कि समय के साथ यह समस्या और बदतर होती जा रही है।
भारत से जुड़े आंकड़ों पर गौर करें तो देश में सिंथेटिक कपड़ों की वजह से सालाना 24 लाख टन प्लास्टिक कचरा पैदा हो रहा है। वहीं चीन में यह आंकड़ा 32 लाख टन, जबकि ब्राजील में साढ़े छह लाख टन जबकि अमेरिका में 28 लाख टन दर्ज किया गया है। यह जानकारी नार्थ कैरोलिना स्टेट यूनिवर्सिटी से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा किए नए अध्ययन में सामने आई है। इस अध्ययन के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर कम्यूनिकेशंस में प्रकाशित हुए हैं।
शोधकर्ताओं के मुताबिक कपड़ा उद्योग से निकलने वाला कचरा दो प्रमुख स्रोतों से आता है, इसमें पहले वो कपड़े शामिल हैं जिनमें पॉलिएस्टर, नायलॉन और ऐक्रेलिक जैसे सिंथेटिक पदार्थों का उपयोग किया जाता है। वहीं दूसरे वो कपड़े हैं जिन्हें कपास जैसे प्राकृतिक रेशों से बनाया जाता है।
अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने न केवल इन कपड़ों की वजह से पैदा हो रहे प्लास्टिक प्रदूषण बल्कि उनके पूरे जीवनचक्र के दौरान पैदा होने वाले प्लास्टिक कचरे की जांच की है। इसमें कपड़ों को लपेटने के लिए इस्तेमाल होने वाला प्लास्टिक भी शामिल है।
इस बारे में अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता प्रोफेसर रिचर्ड वेंडिट्टी ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि, “हमने दुनिया भर में कपड़ों के उत्पादन से लेकर आयात, निर्यात से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण किया है।” उनके मुताबिक इन आंकड़ों की तुलना कपड़ उत्पादन के विभिन्न चरणों की वैश्विक जानकारी से की है, ताकि यह जाना जा सके कि इसके हर एक चरण में पर्यावरण में कितने प्लास्टिक का रिसाव हो रहा है।
उनके मुताबिक इस उद्योग की वजह से पर्यावरण में ज्यादातर प्लास्टिक कचरा फेंके गए कपड़ों से आता है, इनमें खास तौर पर सिंथेटिक कपड़े शामिल हैं। इसके साथ ही वस्त्र निर्माण और उसकी पैकेजिंग से होने वाला कचरे का भी आंकलन किया गया है। इतना ही नहीं कपड़ों के परिवहन के दौरान टायरों के घिसने से लेकर कपड़े धोने से पैदा होने वाले माइक्रोप्लास्टिक को भी इसमें शामिल किया गया है।
अमीर देशों का शौक कमजोरों के लिए बन रहा है समस्या
रिसर्च के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक सिंथेटिक कपड़े प्लास्टिक कचरे का सबसे बड़ा स्रोत हैं। 2019 में, इनकी वजह से 1.8 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा पैदा हुआ था, जो वैश्विक कपड़ा उद्योग से निकलने कुल प्लास्टिक कचरे का 89 फीसदी है। इससे ज्यादा बुरा क्या होगा कि इसमें से करीब 83 लाख टन प्लास्टिक कचरा प्रबंधन की कमी के चलते पर्यावरण में समा गया।
वहीं इस बीच, सूती कपड़ों से 19 लाख टन प्लास्टिक कचरा पैदा हुआ, जबकि बाकी 3.1 लाख टन प्लास्टिक कचरा सिंथेटिक या कपास के अलावा अन्य रेशों के इस्तेमाल से आया था। रिसर्च के अनुसार फेंके गए सिंथेटिक कपड़ों के विपरीत, कपास और अन्य रेशों से बने कपड़ों से पैदा हुआ अधिकांश प्लास्टिक पैकेजिंग से आया था।
शोधकर्ताओं ने खुलासा किया है कि यह कपड़े मूल रूप से जहां बेचे जाते हैं यह जरूरी नहीं कि पर्यावरण में प्लास्टिक का रिसाव उसी जगह से हो। उदाहरण के लिए अमेरिका, जापान जैसे समृद्ध देशों में बेचे जाने वाले कपड़े अक्सर कमजोर देशों में प्रदूषण का कारण बनते हैं, जहां उन्हें सेकेंड हैंड बेचा जाता है।
ऐसे में यह नतीजे अमीर देशों में कपड़ों के उपयोग के तरीकों को लेकर एक बड़ी चिंता की ओर इशारा करते हैं। देखा जाए तो भारत सहित दुनिया भर में बड़ी तेजी से फास्ट फैशन का चलन बढ़ रहा है। कपड़ों को फैशन के साथ बहुत जल्द रिटायर कर दिया जाता है। यह कपड़े या तो बिकने के लिए कमजोर देशों को भेज दिए जाते हैं या फिर उन्हें कचरे में फेंक दिया जाता है।
अमेरिका जैसे समृद्ध देशों से यह सेकंड हैंड कपड़े बिकने के लिए कई ऐसे देशों में पहुंच जाते हैं, जहां इससे पैदा होने वाले कचरे से निपटने के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। नतीजन इसमें मौजूद प्लास्टिक ऐसे ही पर्यावरण का हिस्सा बन जाता है।
ऐसे में शोधकर्ताओं ने कपड़ा उद्योग में बड़े बदलावों की सिफारिश की है। इसमें सर्कुलर इकॉनमी पर जोर दिया गया है, ताकि कपड़ों को कचरे के रूप में फेंकने की जगह रीसाइकिल किया जा सके। इसके साथ ही अध्ययन में सिंथेटिक कपड़ों की जगह कपास जैसे प्राकृतिक रेशों के उपयोग को बढ़ावा देने की बात कही गई है। ऐसे कपड़ों का उपयोग भी बढ़ते प्रदूषण को रोकने में मददगार हो सकता है जिन्हें रीसायकल किया जा सकता है।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )