लता जिष्णु

भौतिक वैज्ञानिक रोहिणी गोडबोले के निधन ने इस बात पर विचार करने के लिए प्रेरित किया कि महिला वैज्ञानिक यहां और विश्व स्तर पर कितनी भूमिका निभाती हैं। वह एक पार्टिकल फिजिसिस्ट थीं और विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की एक उत्साही समर्थक थीं। गोडबोले बेंगलुरु में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस में सेंटर फॉर हाई एनर्जी फिजिक्स में प्रोफेसर थीं। वह उन दुर्लभ महिलाओं में से एक थीं, जिन्होंने आम तौर पर पसंद की जाने वाली प्रयोगात्मक भौतिकी के उलट सैद्धांतिक भौतिकी को चुना। चूंकि उन्होंने सैद्धांतिक उच्च ऊर्जा भौतिकी में विशेषज्ञता हासिल की, इसलिए उन्हें विज्ञान की दुनिया में जगह बनाना कठिन था। यह दुनिया भर में एक आम बात है, चाहे महिलाओं ने किसी भी क्षेत्र को चुना हो। उन्हें अपने विचारों और शोध के जुनून को आगे बढ़ाने के लिए भारी बाधाओं और चुनौतियों से लड़ना पड़ा।

एक उदाहरण है बायोकेमिस्ट काटलिन करिको का भी है, जिन्हें कोविड-19 महामारी के खिलाफ दुनिया की रक्षा करने वाली महिला के रूप में सराहा गया है। कोरोना महामारी नोवेल कोरोनावायरस सार्स-सीओवी-2 के कारण हुई थी। इम्यूनोलॉजिस्ट ड्रियू वेइसमैन के साथ उन्होंने खोज की कि कैसे मेसेंजर राइबोन्यूक्लिक एसिड (एमआरएनए) को शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को ट्रिगर किए बिना कोशिकाओं में प्रवेश करने में सक्षम बनाया जाए। उनके महत्वपूर्ण शोध ने एमआरएनए टीकों की नींव रखी जिसने कोविड-19 महामारी से लड़ने में मदद की। उनका संघर्ष एक क्लासिक संघर्ष था। फंड और संस्थागत समर्थन से वंचित करिको हमेशा एक वरिष्ठ वैज्ञानिक पर निर्भर थीं। वह एक रिसर्च असिस्टेंट के तौर पर सीमित थीं और उन्हें एक प्रोफेसर के रूप में कठोर अनिश्चितताओं का सामना करना पड़ा। उन्हें और प्रोफेसर वेइसमैन को फिजियोलॉजी या मेडिसिन में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किए जाने से दो साल पहले वह कॉलम लिखा गया था।

ऐसा लगता है कि शानदार और असाधारण मैरी क्यूरी के दिनों से बहुत कुछ नहीं बदला है, जिन्होंने एक सदी से अधिक पहले करिको की तुलना में जबरदस्त बाधाओं के बावजूद अत्याधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान में अपनी अमिट छाप छोड़ी थी। क्यूरी को 1911 में दूसरे नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

वह दो-दो नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाली एकमात्र महिला और दो अलग-अलग विज्ञान- केमिस्ट्री और फिजिक्स में यह पुरस्कार अर्जित करने वाली एकमात्र वैज्ञानिक थीं। क्यूरी पोलैंड की रहने वाली थीं और फ्रांस में शोध करती थीं। करिको हंगरी की रहने वाली हैं और अपने मूल देश में सेजर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाने गईं। लेकिन यह वास्तव में मुद्दा नहीं है। क्यूरी को तो अपने पति फ्रेंचमैन पियरे की मौत के बाद अपने घर पर भीड़ के हमले का भी सामना करना पड़ा था जो उन्हें फ्रांस से निष्कासित करने की मांग कर रही थी। क्यूरी को 1903 में पियरे के साथ केमिस्ट्री का नोबेल मिला था।

सच तो यह है कि दुनिया भर में वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों के पुरुष-प्रधान स्वरूप के कारण महिला वैज्ञानिकों के खिलाफ पूर्वाग्रह आज भी बने हुए हैं। लेकिन उन नीतिगत बदलावों की अनदेखी नहीं कर सकते जिनकी वजह से कुछ जगहों पर महिलाओं को शिक्षा के साथ-साथ नौकरी के क्षेत्र में भी स्टेम (साइंस, टेक्नोलॉली, इंजीनियरिंग और मैथमेटिक्स) के लिए प्रोत्साहन मिलता है। इस तरह के पूर्वाग्रह और पक्षपात रूढ़िवादी समाजों जैसे भारत में अधिक प्रचलित हैं, भले ही हम कुछ क्षेत्रों जैसे अंतरिक्ष अनुसंधान में कुछ वरिष्ठ महिला वैज्ञानिकों को देख सकते हैं। यह एक वैश्विक घटना है। तमाम रिपोर्ट स्टेम में महिलाओं की संख्या के बारे में थोड़ा अलग-अलग आंकड़े देती हैं, लेकिन उनमें कुछ ऐसा नहीं है जो खुशी देने वाली हो। स्टेम में महिलाओं और लड़कियों की भागीदारी में वैश्विक रुझानों पर विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि स्टेम में महिलाओं का खराब प्रतिनिधित्व हर क्षेत्र में व्याप्त है। जबकि स्नातक स्तर की दर महिलाओं में अधिक है, लेकिन वे विशेष रूप से इंजीनियरिंग, भौतिकी और आईसीटी (सूचना और संचार प्रौद्योगिकी) में स्टेम क्षेत्रों में कम पाई जाती हैं।

अधिक निराशाजनक तथ्य यह उभरा है कि स्टेम क्षेत्रों में पढ़ाई करने वाली महिलाओं के स्टेम करियर में प्रवेश करने की संभावना कम थी और पुरुषों की तुलना में इन करियर से पहले बाहर निकलने की संभावना अधिक थी। यह भी पाया गया कि स्टेम करियर में महिलाओं ने कम पेपर प्रकाशित किए और शायद आश्चर्यजनक रूप से उन्हें कम वेतन भी मिला। अंतिम आंकड़े स्पष्ट थे। 2023 की विश्व आर्थिक मंच की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट में शामिल 146 देशों में स्टेम वर्कफोर्स का 29.4 प्रतिशत महिलाएं थीं। यह आंकड़ा केवल एंट्री-लेवल वर्कर से संबंधित है।

स्टेम वर्कफोर्स में उच्च-स्तरीय नेतृत्व भूमिकाओं में महिलाएं सिर्फ 12 से 17 प्रतिशत हैं। नतीजतन, उनका आविष्कार के मोर्चे पर प्रदर्शन दयनीय था। संयुक्त राष्ट्र के विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (डब्ल्यूआईपीओ) के एक विश्लेषण के अनुसार 2022 में अंतरराष्ट्रीय पेटेंट रखने वाले आविष्कारकों में केवल 17 प्रतिशत महिलाएं थीं।

महिलाएं इतनी पीछे थीं कि वर्तमान रुझानों के आधार पर अंतरराष्ट्रीय पेटेंटिंग में लैंगिक समानता हासिल करने में उन्हें लगभग चार दशक और लगेंगे यानी 2061 तक। लेकिन भारत में एक विरोधाभास था। विश्व बैंक की सैंपल स्टडी में पाया गया कि देश में स्टेम शिक्षा में 42.3 प्रतिशत लोगों का उच्चतम स्तर था, जो 2017 में अमेरिका 34 प्रतिशत, ऑस्ट्रेलिया 32.1 प्रतिशत और जर्मनी 27.6 प्रतिशत से काफी अधिक था। रिपोर्ट ने यह नहीं बताया गया कि महिलाएं सबसे ज्यादा लाइफ साइंसेज में केंद्रित थीं। इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी में उनकी मौजूदगी नगण्य थी। शीर्ष तीन भारतीय विज्ञान अकादमियों में सिर्फ 9 प्रतिशत फेलो महिलाएं हैं।

परिवार संबंधी व्यक्तिगत मुद्दे शीर्ष कारणों में से एक हो सकते हैं कि स्टेम वर्कफोर्स में कुछ ही महिलाएं हैं, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि महिलाओं को कार्यस्थलों में पक्षपात, पूर्वाग्रहों और व्यवस्थागत बाधाओं से जूझना पड़ता है। ऐसे पूर्वाग्रह स्टेम प्रोडक्ट्स और नवाचारों को प्रभावित करते हैं। और फिर भी कोई ये सोचने से नहीं रोक सकता कि भारत में मैरी क्यूरी या करिको जैसी फौलादी और जुनूनी महिला क्यों नहीं हैं। आखिरकार, हमारे पास पिछली शताब्दी में असाधारण महिला वैज्ञानिक और आविष्कारक रहे हैं, वह भी तब जब उनके लिए कोई अनुकूल वातावरण नहीं था। इस अति प्रदूषण वाले दौर में ऐसी ही एक असाधारण हस्ती को याद रखना महत्वपूर्ण है जिनका नाम है, अन्ना मणि। वह भारत में बहुत कम जानी जाती हैं, हालांकि केरल की यह महिला दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित मौसम वैज्ञानिकों में से एक थीं।

प्रशिक्षण से भौतिक विज्ञानी मणि ने अपने शोध के जुनून को आगे बढ़ाने और महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए कई बाधाओं को तोड़ा। उन्हें 1940 के दशक से मौसम को मापने के लिए उपकरण बनाने और वैज्ञानिकों को ओजोन परत की निगरानी करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है। 1964 में उन्होंने पहला भारतीय निर्मित ओजोनसोंड बनाया था।

यह एक ऐसा उपकरण जो जमीन से 35 किमी ऊपर तक ओजोन की मौजूदगी को मापता है। वह अपने समय से बहुत आगे थीं। उन्होंने दो ऐसे क्षेत्रों सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा में कदम रखा जो बिल्कुल नए थे। उनके जीवनी लेखक ने मणि के बारे में लिखा है, “उन्होंने एक महिला वैज्ञानिक के रूप में उन कठिनाइयों और भेदभाव को हल्का कर दिया, जिनसे उन्हें जूझना पड़ा। उन्होंने विक्टिम पॉलिटिक्स का तिरस्कार किया।”

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

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