दयानिधि

भारत के पारंपरिक खुले में कपड़े धोने की जगहें, जिन्हें धोबी घाट कहा जाता है, ये सांस्कृतिक महत्व रखते हैं और पीढ़ियों से हजारों धोबियों को रोजगार दे रहे हैं। लेकिन इन धुलाई वाली जगहों को अब माइक्रोफाइबर के रूप में एक आधुनिक पर्यावरणीय चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। ये पानी में रहने वाले जीवों और लोगों के स्वास्थ्य को खतरे में डाल रहे हैं।

शोध पत्र के अनुसार धुलाई के दौरान कपड़ों से निकलने वाले छोटे सिंथेटिक रेशे और कण भारत में नदियों, झीलों और अन्य जल निकायों को प्रदूषित कर रहे हैं। माइक्रोफाइबर प्रदूषण एक खामोश लेकिन तेजी से बढ़ता हुआ चिंताजनक मुद्दा है।

कपड़ों की धुलाई के दौरान लाखों सिंथेटिक फाइबर बह जाते हैं, खास तौर पर धोबी घाटों और व्यावसायिक लॉन्ड्रियों में, जहां अक्सर छानने की प्रणाली का उपयोग किया जाता है। ये फाइबर या रेशे जल निकायों में मिल जाते हैं, समय के साथ जमा होते हैं और जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में रुकावट पैदा करते हैं।

श्रीनगर के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एनआईटी) के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्ययन में धोबी घाटों और इसी तरह के व्यावसायिक लॉन्ड्रियों से निकलने वाले पानी में माइक्रोफाइबर के स्तर को मापा गया है। धोबी घाट भारत की विशाल अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं।

एनवायर्नमेंटल साइंस एंड पोल्लुशण रिसर्च नामक पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक, धोबी घाट प्रति लीटर कचरे वाले पानी में 3,200 से अधिक माइक्रोफाइबर छोड़ते हैं, जबकि व्यावसायिक लॉन्ड्रियां प्रति लीटर लगभग 37,000 माइक्रोफाइबर छोड़ती हैं।

इनमें से अधिकांश कण पॉलिएस्टर और नायलॉन जैसे सिंथेटिक कपड़ों से आते हैं, जो बायोडिग्रेडेबल नहीं होते हैं। पानी में जाने के बाद ये माइक्रोफाइबर पानी में रहने वाले जीवों को नुकसान पहुंचाते हैं और आखिर में लोगों के खाद्य श्रृंखला में अपना रास्ता बना लेते हैं।

कश्मीर में झेलम नदी और डल झील क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए महत्वपूर्ण हैं। वे पर्यटन को बढ़ावा देते हैं और मछुआरों सहित हजारों लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं। हालांकि माइक्रोफाइबर प्रदूषण भयंकर खतरा पैदा करता है, जो वन्यजीवों और लोगों दोनों को प्रभावित करता है।

लगातार बढ़ता एक खामोश खतरा

श्रीनगर में कई धोबी घाट झेलम नदी के किनारे चलते हैं, इन घाटों से निकलने वाला गंदा पानी बिना उपचार किए नदी में बह जाता है। डल झील और झेलम नदी श्रीनगर के हजारों परिवारों के लिए जीवनरेखा हैं। बढ़ता माइक्रोफाइबर प्रदूषण एक खामोश आपदा है जिसका तुरंत समाधान किया जाना चाहिए।

शोध के मुताबिक, कई धोबी यहां कई पीढ़ियों से काम कर रहे हैं, नदी उनके काम और जीवन का अहम हिस्सा है। यह उनकी आय का एकमात्र स्रोत है। एक स्थानीय धोबी ने शोधकर्ताओं को बताया कि यदि काम करने के तरीके को रोकने या बदलने के लिए मजबूर किया जाता है, तो हमारे परिवारों का क्या होगा?”

धोबी और अन्य लोग असहाय महसूस करते हैं क्योंकि उनके पास संसाधनों और विकल्पों के बारे में जानकारी की कमी है। धोबी ने शोधकर्ताओं को बताया कि किसी ने हमारा मार्गदर्शन नहीं किया है या हमें किफायती समाधान नहीं दिए हैं। हमें सरकार और विशेषज्ञों से मदद की जरूरत है।

घाट धोबियों की विरासत का हिस्सा हैं। यह काम उन्हें अपने पिता और दादाओं से विरासत में मिला है। यह मात्र एक काम नहीं है, यह उनकी पहचान है। शोध के दौरान धोबी घाट समुदाय के एक बुजुर्ग ने भी इसी तरह की भावना व्यक्त की। उन्होंने कहा यह काम हमें सदियों से विरासत में मिला है।

नदी में कपड़े धोना सिर्फ आजीविका नहीं है, यह एक कला और जिम्मेदारी है जिसे हमने गर्व के साथ निभाया है। उन्होंने कहा कि समय बदल रहा है और हमें अपनी विरासत और हमें पोषण देने वाले पानी दोनों की रक्षा के लिए मार्गदर्शन की जरूरत है।

कैसे हो माइक्रोफाइबर और केमिकल डिटर्जेंट के प्रदूषण का समाधान?

माइक्रोफाइबर के साथ-साथ केमिकल डिटर्जेंट जलीय जीवन और लोगों के स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ा खतरा पैदा करते हैं, जबकि अनुपचारित सीवेज कई नदियों में समा जाता है। शोधकर्ता धोबी घाटों पर किफायती माइक्रोफाइबर फिल्टर लगाने का सुझाव देते हैं। ये फिल्टर अपशिष्ट जल के जल निकायों में जाने से पहले सिंथेटिक फाइबर को रोक सकते हैं।

उचित अपशिष्ट जल उपचार प्रणालियों वाली कपड़े धोने की सुविधाएं भी मदद कर सकती हैं। इससे प्रदूषण कम होगा और धोबियों के लिए काम करने की स्थिति में सुधार होगा। अन्य समाधानों में बायोडिग्रेडेबल डिटर्जेंट का उपयोग करना और धोबियों के बीच पर्यावरण के अनुकूल प्रथाओं के बारे में जागरूकता बढ़ाना भी शामिल है।

शोध के मुताबिक स्थानीय निवासी और संगठन भी सरकार से कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। श्रीनगर निवासी धोबियों के लिए वित्तीय सहायता और शिक्षा कार्यक्रमों की जरूरत पर जोर दिया जा रहा है। उन्होंने कहा, वे अनुकूलन के लिए तैयार हैं, लेकिन उन्हें संसाधनों और समर्थन की जरूरत है। यह एक साझी जिम्मेदारी है। पर्यावरण समूह भी माइक्रोफाइबर प्रदूषण को कम करने में घरों की भूमिका पर जोर दे रहे हैं।

शोधकर्ताओं ने शोध के हवाले से कहा कि उन्हें, श्रीनगर स्थित एनजीओ के सदस्य ने कहा कि यह समस्या घर से शुरू होती है क्योंकि हम सभी सिंथेटिक कपड़ों इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने आगे कहा, लोगों को इस बात के बारे में जागरूक होने की जरूरत है कि उनके कपड़े धोने के विकल्प पर्यावरण पर किस तरह से बुरा प्रभाव डाल रहे हैं।

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

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