विवेक मिश्रा
2013 में बताया गया था कि 27 करोड़ लोग देश में गरीबी रेखा से नीचे हैं। इनमें 21.67 करोड़ (लगभग) ग्रामीण और 5.31 करोड़ लगभग शहरों में मौजूद हैं। तबसे अब तक बीपीएल का कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है. क्या भारत में 27 करोड़ (2697.83 लाख) लोग गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) का जीवन यापन कर रहे हैं या 10 वर्ष से भी ज्यादा इस पुराने आंकड़े में अब तक कोई बदलाव हुआ है। क्या भारत के गांव में अब भी हर महीने 816 रुपए और शहरी क्षेत्रों में 1000 रुपए प्रति महीने से नीचे जीवन का गुजारा करने वाले ही गरीब हैं या फिर गुजर-बसर के लिए हर महीने रुपयों के खर्च की यह निम्नतम सीमा 10 वर्ष बाद अब बढ़ चुकी है? क्या सरकार अपनी मौजूदा अहम योजनाएं इन्हीं पुरानी सरकार के आंकड़ों के आधार पर गरीबों और गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों तक पहुंचा रही है?
मौजूदा सरकार के पास इन सवालों के बारे में क्या जानकारी है? असल में इन सभी सवालों का जवाब केंद्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के पास होना चाहिए। हालांकि, ऐसा नहीं है। डाउन टू अर्थ ने सूचना के अधिकार के तहत इन्हीं सवालों का एकआवेदन मंत्रालय को भेजा था। मंत्रालय ने यह आवेदन नीति आयोग के पास भेज दिया और नीति आयोग ने अपने जवाब में कहा कि आपको इन सवालों के जवाब संबंधित मंत्रालयों और राज्य सरकारों से पूछना चाहिए।
यानी सवाल जहां से शुरू हुए वहीं आकर सवाल बन गए और अनुत्तरित रह गए। फिर भी जिन सवालों के जवाब सरकार के थिंकटैंक नीति आयोग ने दिए वह हमें यह बताते हैं कि हमारी तरह सरकार को भी बहुत कुछ इन सवालों के बारे में नहीं पता है। या फिर ऐसे सवालों के जवाब उनके सरकारी दस्तावेजों में दर्ज नहीं हैं। आरटीआई के जवाब में कहा गया है कि उन्हीं सवालों के जवाब दिए जाएंगे जो पब्लिक अथॉरिटी के पास उपलब्ध हैं।
केंद्र सरकार के थिंकटैंक नीति आयोग ने सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत पूछे गए एक सवाल के जवाब में कहा है कि वर्ष 2024 में गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) कितने लोग जीवन यापन कर रहे हैं, इसकी जानकारी उनके पास नहीं है। न ही मौजूदा सरकार के पास “गरीब” शब्द की कोई आधिकारिक सरकारी परिभाषा मौजूद है। इतना ही नहीं, गरीबों को लक्ष्य करने वाली मौजूदा योजनाओं में गरीबी तय किए जाने का मौजूदा आधार क्या है, इस पर कोई जवाब आरटीआई में नहीं दिया गया है बल्कि अलग-अलग मंत्रालयों और राज्य सरकारों से यह सवाल पूछने को कहा गया है।
इस आरटीआई में वर्तमान में वास्तविक गरीबों की मौजूदा संख्या के बारे में पूछे जाने पर गरीबों की संख्या न बताते हुए जवाब में यह कहा गया कि नीति आयोग ने 17 जुलाई 2023 को यूएनडीपी और ओपीएचआई के सहयोग से “नेशनल मल्टीडायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स: ए प्रोग्रेस रिव्यू 2023” रिपोर्ट जारी किया। इस रिपोर्ट के अनुसार, 2015-16 और 2019-21 के बीच 13.5 करोड़ लोग “मल्टीडायमेंशनल पावर्टी” यानी बहुआयामी गरीबी से बाहर निकले।
आरटीआई में आगे इसी रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा गया कि 2015-16 और 2019-21 के बीच बहुआयामी रूप से गरीब लोगों की संख्या में 24.85 फीसदी से घटकर 14.96 फीसदी तक की भारी कमी आई है। डाउन टू अर्थ ने सूचना के अधिकार के तहत केंद्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय से 12 दिसंबर, 2024 को इन सवालों की जानकारी मांगी थी, जिसका जवाब 16 दिसंबर, 2024 को नीति आयोग के जरिए दिया गया।
आरटीआई के तहत सवाल पूछा गया “भारत सरकार द्वारा निर्धनता की आधिकारिक और वर्तमान परिभाषा क्या है? कृपया उन विशेष मानदंडों को प्रदान करें, जिनका उपयोग व्यक्तियों या परिवारों को गरीब के रूप में वर्गीकृत करने के लिए किया जाता है।” 16 दिसंबर, 2024 को नीति आयोग से हासिल आरटीआई रिप्लाई में कहा, “गरीबी अनुमान-2011-12” पर प्रेस नोट सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध है और इसे वेबसाइट पर एक्सेस किया जा सकता है।
डाउन टू अर्थ ने इस सार्वजनिक उपलब्ध प्रेस नोट का अध्ययन किया ताकि पूछे गए सवाल का जवाब हासिल हो जाए। हालांकि, सवाल का जवाब आधा-अधूरा और दशकों पुराना ही मिला। दरअसल 2013 में योजना आयोग के जरिए जारी इस प्रेस नोट में राष्ट्रीय और राज्यवार गरीबी का अनुमान जारी किया था। इसके तहत देश में गरीबी के स्तर का अनुमान उपभोक्ता खर्च सर्वेक्षणों के आधार पर किया गया था जो राष्ट्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) द्वारा किए जाते हैं।
जुलाई, 2013 में जारी यह प्रेस नोट बीजेपी से पिछली केंद्रीय सरकार का है जो निर्धन शब्द की कोई सरकारी आधिकारिक परिभाषा नहीं बताता बल्कि यह बताता है कि गरीबी रेखा और गरीबी अनुपात का अनुमान लगाने के लिए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) ने 2009-10 और फिर 2011-12 में गरीबी का सर्वे (एनएसएसओ 68वां राउंड) किया। ऐसे सर्वेक्षण सामान्यतः पांच वर्ष पर किए जाते हैं। इस सर्वेक्षण के संक्षिप्त परिणाम 20 जून 2013 को जारी किए गए थे।
एनएससओ ने 1.2 लाख परिवारों के खर्च को सारणीबद्ध किया। चूंकि इन परिवारों में विभिन्न संख्या में सदस्य होते हैं, इसलिए तुलना के उद्देश्य से एनएसएसओ प्रत्येक परिवार के खर्च को सदस्य संख्या से विभाजित करता है, ताकि प्रति व्यक्ति मासिक उपभोग खर्च (एमपीसीई) का निर्धारण किया जा सके। इसे मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग खर्च (एमपीसीई) कहा जाता है। 2011-12 में तेंदुलकर पद्धति के अनुसार यह सर्वे किया गया।
इस सर्वे के मुताबिक राष्ट्रीय गरीबी रेखा प्रति व्यक्ति प्रति माह 816 रुपए और शहरी क्षेत्रों में 1,000 रुपए प्रति व्यक्ति प्रति माह अनुमानित की गई। वहीं, इस आधार पर अगर एक परिवार में पांच लोग हैं, तो ग्रामीण क्षेत्रों में उस परिवार के लिए गरीबी रेखा 4,080 रुपए प्रति माह और शहरी क्षेत्रों में 5,000 रुपए प्रति माह तय की गई।
इस सर्वे में बताया गया कि करीब 27 करोड़ लोग देश में गरीबी रेखा से नीचे हैं। इनमें 21.67 करोड़ (लगभग) ग्रामीण और 5.31 करोड़ लगभग शहरों में मौजूद हैं। बहरहाल आरटीआई में पूछा गया कि वर्ष 2024 में कितने लोग बीपीएल श्रेणी में हैं? इस जवाब में कहा गया कि इसकी जानकारी उनके पास नहीं है। बल्कि आरटीआई में एक दूसरे सवाल में यह बताया गया “जनवरी 2024 में ‘भारत में बहुआयामी गरीबी: 2005-06 के बाद से’ शीर्षक से एक चर्चा पत्र जारी किया गया, जिसमें 2005-06 से 2022-23 तक के बहुआयामी गरीबी के अनुमान शामिल हैं। इस चर्चा पत्र के अनुसार, भारत में बहुआयामी गरीबी में 2013-14 के 29.17 फीसदी से गिरावट दर्ज करते हुए 2022-23 में यह 11.28 फीसदी हो गई है। इसका अर्थ है कि पिछले 9 वर्षों में 24.82 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी से बाहर निकलने में सफल हुए हैं।”
आरटीआई के जवाब के आधार पर देखें तो एक नजर लगता है कि 2012 में मौजूद 27 करोड़ लोग जो गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे थे उनमें से कई लोग वह गरीबी के इस दलदल से निकल गए। गरीबी के आंकड़ों में काफी सुधार हो गया है। हालांकि, यह ध्यान देना होगा कि 24.82 करोड़ लोग जो गरीबी रेखा से निकल गए, वह बहुआयामी गरीबी से बाहर निकले हैं। वास्तविक गरीबी की स्थिति में उनकी हालत का कोई अंदाजा नहीं है। मिसाल के तौर पर सुप्रीम कोर्ट में हाल ही में दाखिल विशेषज्ञों की एक अंतरिम रिपोर्ट में कहा गया कि देश में एक किसान प्रतिदिन 27 रुपए से भी कम कमा रहा है।
बहुआयामी गरीबी सूचकांक में आय संबंधी गरीबी या वह आयाम शामिल नहीं है जिसका उपयोग भारत में गरीबी मापने के लिए किया जाता है। हमारे सभी विकास परियोजनाएं “गरीबों” के लिए लक्षित होती हैं, जो गरीबी रेखा के आधार पर निर्धारित की जाती हैं, और यह गरीबी सर्वेक्षण से तैयार होती है (भारत में आय स्तर का अनुमान खर्च के आधार पर लगाया जाता है)। आरटीआई के जवाब से ही पता चलता है कि भारत ने 2011 के बाद से कोई गरीबी सर्वेक्षण नहीं किया है। उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण हुआ लेकिन लेकिन आय संबंधी गरीबी का कोई डेटा उपलब्ध नहीं है, जो गरीबी मापने का मुख्य आधार है। बहुआयामी गरीबी में स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवनस्तर को देखा जा रहा है। इन तीन श्रेणियों को 12 संकेतकों में विभाजित किया गया है। हालांकि, आय और उपभोग खर्च के आंकड़ों को शामिल न करना गरीबी के अहम आयाम की अनदेखी है।
गरीबी के आंकड़े किसी देश की आर्थिक प्रगति का आकलन करने के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। सरकार को इन आंकड़ों की जरूरत इसलिए भी होती है ताकि वह गरीबी उन्मूलन के लिए चलाई जा रही योजनाओं, जैसे खाद्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के लाभार्थियों की संख्या का सही-सही अनुमान लगा सके। हालांकि, इस बारे में पूछे गए सवाल पर आरटीआई में नीति आयोग ने जवाब नहीं दिया। आरटीआई का जवाब तो मिला है लेकिन यह नहीं पता कि मौजूदा समय में गरीब कितने हैं।
(‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )