ललित मौर्या

पृथ्वी के हर हिस्से में जीवन पनपता है, मीठे पाने से जुड़े पारिस्थितिकी तंत्र भी इससे अलग नहीं हैं। देखा जाए तो यह पारिस्थितिकी तंत्र पृथ्वी के एक फीसदी से भी कम हिस्से को कवर करते हैं, लेकिन इसके बावजूद जीवन के लिए बेहद मायने रखते हैं।

हालांकि जिस तरह इस बेहद नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान हो रहा है, वो यहां पाई जाने वाली वाले जीवों को विलुप्ति की कगार पर धकेल रहा है। इस बारे में की गई एक नई रिसर्च से पता चला है कि मीठे पानी की 24 फीसदी प्रजातियों पर खत्म होने का खतरा मंडराने लगा है। रिसर्च में आशंका जताई गई है कि आने वाले दशकों में मीठे पानी में पाई जाने वाली मछलियों, केकड़ों और ड्रैगनफ्लाई की हजारों प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं। कई कई अन्य प्रजातियां ऐसी हैं जो गंभीर खतरे का सामना कर रही हैं।

अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर में प्रकाशित अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने मीठे पाने में पाई जाने वाली करीब 24,000 प्रजातियों का अध्ययन किया है। इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं वो दर्शाते हैं कि इनमें से करीब एक-चौथाई प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है। करीब एक हजार प्रजातियां गंभीर रूप से संकटग्रस्त हैं। आप को जानकर हैरानी होगी कि 200 प्रजातियों को हम पहले ही खो चुके हैं।

वैज्ञानिकों के मुताबिक यह समस्या अनुमान से कहीं ज्यादा बड़ी हो सकती है, क्योंकि प्रजातियों के विलुप्त होने के जोखिम को पूरी तरह समझने के लिए अभी भी पर्याप्त जानकारी का आभाव है। अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता कैथरीन सेयर ने इन जानवरों के बारे में और अधिक जानने और इन्हें बचाने की तत्काल आवश्यकता पर जोर दिया है।

अध्ययन से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता कैथरीन सेयर ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा है, “मीठे पानी की जैव विविधता पर आंकड़ों की कमी को कुछ न करने का बहाना नहीं बना सकते। मीठे पानी के यह इकोसिस्टम सभी ज्ञात प्रजातियों में से 10 फीसदी का घर हैं। यह न केवल लोगों को साफ पानी और जीविका प्रदान करते हैं साथ ही बाढ़ और जलवायु में आते बदलावों जैसे खतरों से निपटने के लिए भी बेहद मायने रखते हैं। ऐसे में इनकी सुरक्षा प्रकृति और लोगों दोनों के लिए जरूरी है।“ जहां एक तरफ साफ, ताजा पानी जीवन के लिए बेहद जरूरी है। वहीं भोजन, पानी और अन्य संसाधनों की बढ़ती मांग के चलते मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र पर दबाव बढ़ रहा है।

अध्ययन के मुताबिक दलदल, मैंग्रोव जैसी आर्द्रभूमियां इन नुकसानों का सबसे ज्यादा खामियाजा भुगत रही हैं। 1700 के बाद से दुनिया में इन आद्रभूमियों का करीब 34 लाख वर्ग किलोमीटर हिस्सा नष्ट हो चुका है, जो आकार में भारत जितना बड़ा है। इन आर्द्रभूमि के नष्ट होने से वहां पाए जाने वाले पौधों और जानवरों के अलावा अन्य चीजों पर भी असर पड़ रहा है। इससे जलवायु परिवर्तन का सामना करने और बाढ़ को रोकने की क्षमता भी कमजोर होती है।

मीठे पानी के यह स्रोत कई तरह की चुनौतियों से जूझ रहे हैं। इनमें पानी का बहुत ज्यादा दोहन, नदियों पर बनाए जा रहे बांध आदि शामिल हैं। इनकी वजह से वन्यजीवों के आवास घट रहे हैं। कोलोराडो जैसी कुछ नदियां तो अब समुद्र तक भी नहीं पहुंच पा रही। इन सिकुड़ते आवासों में रह रहे जीव सीवेज, औद्योगिक कचरे और प्लास्टिक प्रदूषण से भी जूझ रहे हैं। हालांकि इन बढ़ते खतरों के बावजूद, मीठे पानी के पर्यावरण पर महासागरों की तुलना में बहुत कम अध्ययन किया गया है। अध्ययन के मुताबिक सभी ज्ञात प्रजातियों में से 10 फीसदी मीठे पानी पर निर्भर हैं। लेकिन इस अध्ययन में चार समूहों पर विशेष ध्यान दिया गया है जो इससे निकटता से जुड़े हैं, इनमें डेकापोड्स, ओडोनेट्स, मोलस्क और मछलियां शामिल हैं। इनमें डेकापोड, केकड़े, झींगा, क्रेफिश जैसे क्रस्टेशियन जीवों का समूह है। इनमें से कई समुद्र में रहते हैं, वहीं अन्य कई दुनिया भर में नदियों और नालों में पाए जाते हैं। इनमें से करीब 30 फीसदी पर विलुप्त होने का खतरा मंडराने लगा है।

नदियों, आर्द्रभूमियों को होता नुकसान इन जीवों के विनाश की बन रहा है वजह

अध्ययन के मुताबिक इन जीवों के लिए सबसे बड़ा खतरा खास तौर पर खेतों से निकलने वाला पानी है। इसकी वजह से कीटों को मरने के लिए डाला जाने वाला कीटनाशक मीठे पानी के स्रोतों तक पहुंच जाता है, जो अन्य जीवों के साथ-साथ केकड़ों और झींगों को भी नुकसान पहुंचाता है। इतना ही नहीं यह हानिकारक केमिकल्स मछलियों के लिए भी खतरा हैं। इनकी वजह से मछलियों की वृद्धि, प्रजनन क्षमता और व्यवहार प्रभावित होता है।

ओडोनेट्स कीटों का वह समूह है जिसमें ड्रैगनफ्लाई और डैमसेल्फलाई शामिल हैं। हालांकि यह जीव उड़ने के लिए जाने जाते हैं, लेकिन वे अपना ज्यादातर जीवन मीठे पानी में बढ़ते हुए नवजात शिशुओं (निम्फ) के रूप में बिताते हैं।

इससे इन जीवों के आवासों के नष्ट होने से खतरा बढ़ जाता है। खतरे में पड़ी इन प्रजातियों में से आधे से ज्यादा आर्द्रभूमि के कृषि भूमि में बदले जाने से प्रभावित हैं। कुछ इतनी ही संख्या में प्रजातियां पेड़ों के काटे जाने से प्रभावित हैं। इसकी वजह से इनके शिकार और आश्रय के लिए क्षेत्र नष्ट हो रहे हैं, जिनपर यह व्यस्क होने पर निर्भर रहते हैं।

शोधकर्ताओं ने अपने विश्लेषण में मोलस्क को शामिल नहीं किया है। बता दें कि यह वो समूह है, जिसमें न केवल घोंघे, बल्कि मीठे पानी के सीप जैसे अन्य अकशेरुकी जीव भी शामिल हैं। हालांकि इनपर किए पिछले शोधों से पता चला है कि इन जीवों में से करीब एक तिहाई पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में यदि इन जीवों को भी शामिल कर लिया जाए तो खतरे में पड़ी मीठे पानी की प्रजातियों की कुल संख्या में वृद्धि हो सकती है।

मीठे पानी के यह आवास न केवल एक बल्कि कई देशों में फैले हैं, इनकी विशालता और आपसी जुड़ाव इस गिरावटों को उलटना मुश्किल बनाती है। ऐसे में खतरे में पड़े इन मीठे पानी के जीवों को जीवित रहने का मौका देने के लिए विभिन्न संगठनों और देशों को मिलकर काम करने की जरूरत है।

       (‘डाउन-टू-अर्थ’ से साभार )

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